श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कानड़ा महला ५ ॥ ऐसी कउन बिधे दरसन परसना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिधे = बिधि, तरीका, ढंग। परसना = (चरणों की) छोह।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (मुझे बता) ऐसा कौन सा तरीका है जिससे प्रभु के दर्शन (हो जाएं, प्रभु के चरणों की) छूह मिल जाए?।1। रहाउ।

आस पिआस सफल मूरति उमगि हीउ तरसना ॥१॥

पद्अर्थ: पिआस = तमन्ना। सफल मूरति = वह प्रभु जिसकी हस्ती (जीवों को सारे) फल देने वाली है। उमगि = उमंग में आ के। हीउ = हृदय।1।

अर्थ: हे भाई! सब जीवों को मन-माँगी मुरादें देने वाले प्रभु के दर्शनों की मेरी तमन्ना है इन्तजार है। उमंग में मेरा दिल (दर्शनों के लिए) तरस रहा है।1।

दीन लीन पिआस मीन संतना हरि संतना ॥ हरि संतना की रेन ॥ हीउ अरपि देन ॥ प्रभ भए है किरपेन ॥ मानु मोहु तिआगि छोडिओ तउ नानक हरि जीउ भेटना ॥२॥२॥३५॥

पद्अर्थ: दीन = निमाणा। मीन = मछली। रेन = चरण धूल। अरपि देन = भेट कर लिया जाए। किरपेन = कृपालु। तिआगि छोडिओ = त्याग दिया। भेटना = मिलता है।2।

अर्थ: (उक्तर:) अगर निमाणे हो के संत जनों के चरणों पर गिर जाएं (यदि प्रभु के दर्शनों की इतनी चाहत हो, जैसे) मछली को (पानी की) प्यास होती है, यदि संत-जनों के चरणों की धूल की खातिर अपना हृदय (भी) भेट कर दें, तो, हे भाई! प्रभु दयावान होता है। हे नानक! (जब किसी ने अपने अंदर से) अहंकार और मोह त्याग दिया, तब (उस को) प्रभु जी मिल जाते हैं।2।2।35।

कानड़ा महला ५ ॥ रंगा रंग रंगन के रंगा ॥ कीट हसत पूरन सभ संगा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कीट = कीड़ा। हसत = हाथी। पूरन = व्यापक।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा (इस जगत-तमाशे में) अनेक ही रंगों में (बस रहा है) कीड़ी से लेकर हाथी तक सबके साथ बसता है।1। रहाउ।

बरत नेम तीरथ सहित गंगा ॥ जलु हेवत भूख अरु नंगा ॥ पूजाचार करत मेलंगा ॥ चक्र करम तिलक खाटंगा ॥ दरसनु भेटे बिनु सतसंगा ॥१॥

पद्अर्थ: सहित = समेत। हेवत = बर्फ। अरु = और। पूजाचार = पूजा+आचार, पूजा आदि के कर्म। मेलंगा = अंगों को मेल के, आसन जमा के। खाटंगा = खट अंगों पर, (दोनों लातें, दोनों बाँहें, छाती, सिर) इन छह अंगों पर। दरसनु सत संगा = साधु-संगत का दर्शन।1।

अर्थ: हे भाई! (उस परमात्मा के दर्शन करने के लिए) कोई व्रत नेम रख रहा है, कोई गंगा समेत सारे तीर्थों का स्नान करता है; कोई (ठंडे) पानी और बर्फ (की ठंढ सह रहा है), कोई भूख काटता है कोई नंगा रहता है; कोई आसन जमा के पूजा आदि कर्म करता है; कोई अपने शरीर के छह अंगों पर चक्र-तिलक आदि लगाने के कर्म करता है। पर, साधु-संगत के दर्शन किए बिना (ये सारे कर्म व्यर्थ हैं)।1।

हठि निग्रहि अति रहत बिटंगा ॥ हउ रोगु बिआपै चुकै न भंगा ॥ काम क्रोध अति त्रिसन जरंगा ॥ सो मुकतु नानक जिसु सतिगुरु चंगा ॥२॥३॥३६॥

पद्अर्थ: हठि = हठ से। निग्रहि = इन्द्रियों को रोकने के यत्न से। बिटंगा = टांगों के बिना, सिर के भार, सिर बल। हउ रोगु = अहंकार का रोग। बिआपै = जोर डाल लेता है। चुकै न = खत्म नहीं होता। भंगा = तोट, कमी, दूरी। त्रिसन = तृष्णा। जरंगा = जलते हैं अंग। मुकतु = (विकारों से) स्वतंत्र।2।

अर्थ: हे भाई! (अनेक रंगों में व्यापक उस प्रभु के दर्शन करने के लिए) कोई मनुष्य हठ से इन्द्रियों को रोकने के प्रयत्न से सिर के बल होया हुआ है। (पर इस तरह बल्कि) अहंकार का रोग (मनुष्य पर अपना) जोर डाल लेता है, (उसके अंदर से आत्मिक जीवन की) कमी खत्म नहीं होती, काम-क्रोध-तृष्णा (की आग) में जलता रहता है। हे नानक! (काम-क्रोध-तृष्णा से) वह मनुष्य बचा रहता है जिसको सोहाना गुरु मिल जाता है।2।36।

कानड़ा महला ५ घरु ७    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तिख बूझि गई गई मिलि साध जना ॥ पंच भागे चोर सहजे सुखैनो हरे गुन गावती गावती गावती दरस पिआरि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तिख = तृष्णा, माया की प्यास। मिलि = मिल के। पंच चोर = (आत्मिक जीवन के सरमाए चुराने वाले कामादिक) पाँच चोर। हरे गुन = हरि के गुण। सहजे सुखैनो = बड़ी आसानी से। दरस पिआरि = दर्शन के प्यार में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! संत जनों को मिल के (मेरे अंदर से माया की) तृष्णा बिल्कुल ही समाप्त हो गई है। प्रभु के दर्शनों की तमन्ना में प्रभु के गुण गाते-गाते बड़ी ही आसानी से (कामादिक) पाँचों चोर (मेरे अंदर से) भाग गए हैं।1। रहाउ।

जैसी करी प्रभ मो सिउ मो सिउ ऐसी हउ कैसे करउ ॥ हीउ तुम्हारे बलि बले बलि बले बलि गई ॥१॥

पद्अर्थ: मो सिउ = मुझसे, मेरे साथ। हउ = मैं। करउ = मैं करूँ। हीओु = हृदय (असल शब्द ‘हीउ’ है यहां ‘हीओ’ पढ़ना है)। बलि बले = कुर्बान।1।

अर्थ: हे प्रभु! जिस तरह की मेहर तूने मेरे ऊपर की है (उसके बदले में मैं) वैसी ही (तेरी सेवा) मैं कैसे कर सकता हूँ? हे प्रभु! मेरा दिल तुझसे सदके जाता है, कुर्बान जाता है।1।

पहिले पै संत पाइ धिआइ धिआइ प्रीति लाइ ॥ प्रभ थानु तेरो केहरो जितु जंतन करि बीचारु ॥ अनिक दास कीरति करहि तुहारी ॥ सोई मिलिओ जो भावतो जन नानक ठाकुर रहिओ समाइ ॥ एक तूही तूही तूही ॥२॥१॥३७॥

पद्अर्थ: पै = पड़ कर। संत पाइ = संत जनों के पैरों पर। धिआइ = (तेरा नाम) स्मरण करके। केहरो = कौन सा? जितु = जिस (जगह) में। कीरति = महिमा। करहि = करते हैं (बहुवचन)। भावतो = प्यारा लगता है। ठाकुर = हे ठाकुर! रहिओ समाइ = व्यापक है।2।

अर्थ: हे प्रभु! पहले (तेरे) संत-जनों के पैरों में पड़ कर (और, तेरा नाम) स्मरण कर-कर के मैंने (तेरे संग) प्रीति बनाई है। हे प्रभु! तेरी वह जगह बहुत ही आश्चर्यजनक होगी जहाँ (बैठ के) तू (सारे) जीवों की संभाल करता है। तेरे अनेक ही दास तेरी महिमा करते रहते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे ठाकुर! तुझे वही (दास) मिल सका है जो तुझे प्यारा लगा। हे ठाकुर! तू हर जगह व्यापक है, हर जगह सिर्फ तू ही है।2।1।37।

कानड़ा महला ५ घरु ८    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

तिआगीऐ गुमानु मानु पेखता दइआल लाल हां हां मन चरन रेन ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: तिआगीऐ = त्याग देना चाहिए। पेखता = देख रहा है। दइआल = दया का घर प्रभु। हां हां मन = हे मन! रेन = धूल।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (अपने अंदर से) गुमान-अहंकार दूर कर लेना चाहिए। दया-का-घर सुंदर प्रभु (हमारे हरेक काम को) देख रहा है। हे मन! (सबके) चरणों की धूल (बना रह)।1। रहाउ।

हरि संत मंत गुपाल गिआन धिआन ॥१॥

पद्अर्थ: मंत = उपदेश। गिआन = गहरी सांझ। धिआन = तवज्जो, ध्यान।1।

अर्थ: हे भाई! हरि-गोपाल के संत जनों के उपदेश की गहरी विचार में तवज्जो जोड़े रख।1।

हिरदै गोबिंद गाइ चरन कमल प्रीति लाइ दीन दइआल मोहना ॥ क्रिपाल दइआ मइआ धारि ॥ नानकु मागै नामु दानु ॥ तजि मोहु भरमु सगल अभिमानु ॥२॥१॥३८॥

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। लाइ = जोड़े रख। मोहना = मन को मोह लेने वाला प्रभु। क्रिपाल = हे कृपालु! मइआ धारि = मेहर कर। नानकु मागै = नानक माँगता है। तजि = त्याग के। भरमु = भटकना।2।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद के गुण (अपने) दिल में (सदा) गाया कर, दीनों पर दया करने वाले मोहन प्रभु के सुंदर चरणों से प्रीति बनाए रख।

हे कृपा के श्रोत प्रभु! (मेरे पर सदा) मेहर कर (तेरा दास) नानक (अपने अंदर से) मोह-भ्रम और गुमान दूर कर के (तेरे दर से तेरा) नाम-दान माँगता है।2।1।38।

कानड़ा महला ५ ॥ प्रभ कहन मलन दहन लहन गुर मिले आन नही उपाउ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ कहन = प्रभु की महिमा। मलन दहन = (विकारों की) मैल को जलाने के समर्थ (महिमा)। लहन = प्राप्ति। गुर मिलै = गुरु को मिल के। आन = अन्य, कोई और। उपाउ = तरीका, उपाय, ढंग।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के (ही, विकारों की) मैल को जलाने की सामर्थ्य वाली प्रभु की महिमा प्राप्त होती है। और कोई तरीका (इसकी प्राप्ति का) नहीं है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh