श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 186

गउड़ी गुआरेरी महला ५ ॥ हम धनवंत भागठ सच नाइ ॥ हरि गुण गावह सहजि सुभाइ ॥१॥ रहाउ ॥ पीऊ दादे का खोलि डिठा खजाना ॥ ता मेरै मनि भइआ निधाना ॥१॥ रतन लाल जा का कछू न मोलु ॥ भरे भंडार अखूट अतोल ॥२॥ खावहि खरचहि रलि मिलि भाई ॥ तोटि न आवै वधदो जाई ॥३॥ कहु नानक जिसु मसतकि लेखु लिखाइ ॥ सु एतु खजानै लइआ रलाइ ॥४॥३१॥१००॥ {पन्ना 186}

पद्अर्थ: धनवंत = धन वाले, धनाढ, धनवान। भागठ = भाग्यशाली। नाइ = नाम के द्वारा। सच नाइ = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम की बरकति से। गावह = हम गाते हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = श्रेष्ठ प्रेम में।1। रहाउ।

खोलि = खेल के। ता = तब। मनि = मन मे। निधाना = खजाना।1।

जा का = जिन का। अखूट = ना खत्म होने वाला।2।

रलि मिलि = इकट्ठे हो के।3।

मसतकि = माथे पर। ऐतु = इस में। ऐतु खजाने = इस खजाने में।4।

अर्थ: (ज्यों ज्यों) हम परमात्मा के गुण (मिल के) गाते हैं, सदा स्थिर प्रभू के नाम की बरकति से हम (परमात्मा के नाम धन के) धनी बनते जा रहे हैं। भाग्यशाली बनते जा रहे हैं, आत्मिक अडोलता में टिके रहते हैं, प्रेम में मगन रहते हैं।1। रहाउ।

जब मैंने गुरू नानक देव से लेकर सारे गुरू साहिबान की बाणी का खजाना खोल के देखा, तब मेरे मन में आत्मिक आनंद का भण्डार भर गया।1।

(नोट: पाठक ध्यान से पढ़ें– खोल के ‘देखा’, ना कि ‘इकट्ठा किया’। गुरू अरजन साहिब ने सारे गुरू साहिबान की बाणी स्वयं एकत्र नहीं की, आपको सारी की सारी एकत्र की हुई बाणी गुरू राम दास जी से मिल गई)।

इस खजाने में परमात्मा की सिफत सालाह के अमोलक रत्नों-लालों के भण्डार भरे हुए (मैंने देखे), जो कभी खत्म नहीं हो सकते, जो तौले नहीं जा सकते।2।

हे भाई! जो मनुष्य (सत्संग में) इकट्ठे हो के इन भण्डारों को खुद इस्तेमाल करते हैं व औरों को भी बाँटते हैं, उनके पास इस खजाने की कमी नहीं होती, बल्कि और और बढ़होत्तरी होती है।3।

(पर) हे नानक! कह– जिस मनुष्य के माथे पे परमात्मा की बख्शिश का लेख लिखा होता है, वही इस (सिफत सालाह के) खजाने में भागीदार बनाया जाता है (भाव, वही साध-संगति में आ के सिफत सालाह की बाणी का आनंद पाता है)।4।31।100।

गउड़ी महला ५ ॥ डरि डरि मरते जब जानीऐ दूरि ॥ डरु चूका देखिआ भरपूरि ॥१॥ सतिगुर अपने कउ बलिहारै ॥ छोडि न जाई सरपर तारै ॥१॥ रहाउ ॥ दूखु रोगु सोगु बिसरै जब नामु ॥ सदा अनंदु जा हरि गुण गामु ॥२॥ बुरा भला कोई न कहीजै ॥ छोडि मानु हरि चरन गहीजै ॥३॥ कहु नानक गुर मंत्रु चितारि ॥ सुखु पावहि साचै दरबारि ॥४॥३२॥१०१॥ {पन्ना 186}

पद्अर्थ: डरि = डर के, सहम के। मरते = आत्मिक मौत मरते। चूका = समाप्त हो गया। भरपूरि = हर जगह व्यापक।1।

बलिहारै = कुर्बान। सरपर = जरूर। तारै = पार लंघाता है।1। रहाउ।

सोगु = फिक्र। गामु = गाना।2।

न कहीजै = नहीं कहना चाहिए। गहीजै = पकड़ने चाहिए।3।

मंतु = उपदेश। चितारि = याद रख, चेते रख। दरबारि = दरबार में।4।

अर्थ: मैं अपने गुरू से कुर्बान जाता हूँ, वह (दुख-रोग-सोग आदिक के समुंद्र में हम डूबतों को) छोड़ के नहीं जाता, वह (इस समुंद्र में से) जरूर पार लंघाता है।1। रहाउ।

जब तक हम ये समझते हैं कि परमात्मा कहीं दूर बसता है, तब तक (दुनिया के दुख रोग फिक्रों से) सहम सहम के आत्मिक मौत मरते रहते हैं। जब उसे (सारे संसार में कण कण में) व्यापक देख लिया, (उस वक्त दुनिया के दुख आदिक का) भय खत्म हो गया।1।

(हे भाई!दुनिया का) दुख रोग फिक्र (तभी व्यापता) है जब परमात्मा का नाम भूल जाता है। जब परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाते हैं तो (मन में) सदा आनंद बना रहता है।2।

(हे भाई!) ना किसी की निंदा करनी चाहिए, ना किसी की खुशामद। (दुनिया का) मान त्याग के परमात्मा के चरण (हृदय में) टिका लेने चाहिए।3।

हे नानक! कह– (हे भाई!) गुरू का उपदेश अपने चित्त में परोए रख, सदा कायम रहने वाले परमात्मा की दरगाह में आनंद पाऐगा।4।32।101।

गउड़ी महला ५ ॥ जा का मीतु साजनु है समीआ ॥ तिसु जन कउ कहु का की कमीआ ॥१॥ जा की प्रीति गोबिंद सिउ लागी ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागी ॥१॥ रहाउ ॥ जा कउ रसु हरि रसु है आइओ ॥ सो अन रस नाही लपटाइओ ॥२॥ जा का कहिआ दरगह चलै ॥ सो किस कउ नदरि लै आवै तलै ॥३॥ जा का सभु किछु ता का होइ ॥ नानक ता कउ सदा सुखु होइ ॥४॥३३॥१०२॥ {पन्ना 186}

पद्अर्थ: समीआ = समान, व्यापक। कहु = बताओ। का की = किस चीज की? कमीआ = कमी।1।

सिउ = साथ।1। रहाउ।

कउ = को। अन = अन्य। लपटायो = चिपका हुआ।2।

किस कउ = किस को (शब्द ‘किसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हट गई है)। तलै = नीचे।3।

जा का = जिस (परमात्मा) का। ता का = उस (परमात्मा) का।4।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य का प्यार परमात्मा के साथ बन जाता है उसके हरेक दुख, हरेक दर्द, हरेक भरम-वहिम दूर हो जाते हैं। रहाउ।

जिस मनुष्य को (ये यकीन बन जाए कि उसका) सज्जन प्रभू, मित्र प्रभू हर जगह व्यापक है, (हे भाई!) बता, उस मनुष्य को (फिर) किस चीज की कमी रह जाती है?।1।

(हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का आनंद आ जाता है, वह (दुनिया के) अन्य (पदार्थों के) स्वादों से नहीं चिपकता।2।

जिस मनुष्य के बोले हुए बोल परमात्मा की हजूरी में माने जाते हैं, उसे किसी और की मुथाजी (अधीनगी) नहीं रह जाती।3।

हे नानक! जिस परमातमा का रचा हुआ ये संसार है उस परमात्मा का सेवक जो मनुष्य बन जाता है उसे सदा आनंद प्राप्त रहता है।4।33।102।

गउड़ी महला ५ ॥ जा कै दुखु सुखु सम करि जापै ॥ ता कउ काड़ा कहा बिआपै ॥१॥ सहज अनंद हरि साधू माहि ॥ आगिआकारी हरि हरि राइ ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै अचिंतु वसै मनि आइ ॥ ता कउ चिंता कतहूं नाहि ॥२॥ जा कै बिनसिओ मन ते भरमा ॥ ता कै कछू नाही डरु जमा ॥३॥ जा कै हिरदै दीओ गुरि नामा ॥ कहु नानक ता कै सगल निधाना ॥४॥३४॥१०३॥ {पन्ना 186}

पद्अर्थ: जा कै = जिस के (हृदय में), जिस मनुष्य के दिल में। सम = बराबर, एक जैसा। जापै = प्रतीत होता है। काड़ा = झोरा, चिंता। बिआपै = प्रभाव डालता है।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। हरि साधू = परमात्मा का भगत।1। रहाउ।

अचिंतु = चिंता रहित प्रभू। मनि = मन में। कतहूँ = कभी भी।2।

मन ते = मन से। भरमा = भटकना। ता कै = उस के हृदय।3।

गुरि = गुरू ने। सगल = सारे। निधान = खजाने।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के भगत के हृदय में (सदा) आत्मिक अडोलता बनी रहती है, (सदा) आत्मिक आनंद बना रहता है। (हरी का भक्त) हरी-प्रभू की आज्ञा में ही चलता है।1। रहाउ।

(प्रभू की रजा में चलने के कारण) जिस मनुष्य के हृदय में हरेक दुख सुख एक जैसा ही प्रतीत होता है, उसे कोई चिंता-फिक्र कभी दबा नहीं सकती।1।

(हे भाई!) चिंता-रहित परमात्मा जिस मनुष्य के हृदय में आ बसता है, उसे कभी कोई चिंता नहीं सताती।2।

जिस मनुष्य के मन से भटकना खत्म हो जाती है, उसके मन में मौत का डर नहीं रह जाता।3।

हे नानक! कह– गुरू ने जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम टिका दिया है उसके अंदर, जैसे, सारे खजाने आ जाते हैं।4।34।103।

गउड़ी महला ५ ॥ अगम रूप का मन महि थाना ॥ गुर प्रसादि किनै विरलै जाना ॥१॥ सहज कथा के अम्रित कुंटा ॥ जिसहि परापति तिसु लै भुंचा ॥१॥ रहाउ ॥ अनहत बाणी थानु निराला ॥ ता की धुनि मोहे गोपाला ॥२॥ तह सहज अखारे अनेक अनंता ॥ पारब्रहम के संगी संता ॥३॥ हरख अनंत सोग नही बीआ ॥ सो घरु गुरि नानक कउ दीआ ॥४॥३५॥१०४॥ {पन्ना 186}

पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। प्रसादि = कृपा से।1।

सहज = आत्मिक अडोलता। कथा = सिफत सलाह। कुंट = चश्मे। भुंचा = रस लिया, खाया, आस्वादन लिया।1। रहाउ।

अनहत = एक रस। धुनि = सुर, आवाज।2।

अखारे = एकत्रॅ।3।

हरख = हर्ष, खुशी। बीआ = अन्य, दूसरा। गुरि = गुरू ने।4।

अर्थ: जिस मनुष्य के भाग्यों में प्राप्ति का लेख होता है वह (गुरू की कृपा से) आत्मिक अडोलता और सिफत सलाह के अमृत के चश्मों का आनंद पाता है।1। रहाउ।

(जिस मन में सिफत सालाह के चश्मे जारी हो जाते हैं) उस मन में अपहुँच स्वरूप वाले परमात्मा का निवास हो जाता है। (पर) किसी विरले मनुष्य ने गुरू की कृपा से (ये भेद) समझा है।1।

(जहाँ सिफत सालाह और आत्मिक अडोलता के चश्मे चल पड़ते हैं) उसका हृदय-स्थल एक-रस सिफत सालाह की बाणी की बरकति से अनोखा (सुंदर) हो जाता है। उसकी जुड़ी सुरति पर परमात्मा (भी) मोहित हो जाता है।2।

(जहाँ सिफत सालाह के चश्मे जारी होते हैं) वहाँ (उस आत्मिक अवस्था में टिके हुए) संत जन परमात्मा के चरणों में जुड़ के आत्मिक अडोलता के अनेकों और बेअंत अखाड़े रच के रखते हैं।3।

(उस अवस्था में) बेअंत खुशी ही खुशी बनी रहती है, किसी तरह की अन्य कोई चिंता फिक्र नहीं। (हे भाई!) गुरू ने वह आत्मिक ठिकाना (मुझे) नानक को (भी) बख्शा है।4।35।104।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh