श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी मः ५ ॥ कवन रूपु तेरा आराधउ ॥ कवन जोग काइआ ले साधउ ॥१॥ कवन गुनु जो तुझु लै गावउ ॥ कवन बोल पारब्रहम रीझावउ ॥१॥ रहाउ ॥ कवन सु पूजा तेरी करउ ॥ कवन सु बिधि जितु भवजल तरउ ॥२॥ कवन तपु जितु तपीआ होइ ॥ कवनु सु नामु हउमै मलु खोइ ॥३॥ गुण पूजा गिआन धिआन नानक सगल घाल ॥ जिसु करि किरपा सतिगुरु मिलै दइआल ॥४॥ तिस ही गुनु तिन ही प्रभु जाता ॥ जिस की मानि लेइ सुखदाता ॥१॥ रहाउ दूजा ॥३६॥१०५॥ {पन्ना 187}

पद्अर्थ: कवन रूपु = कौन सी शक्ल? जोग = योग के साधन। काइआ = काया,शरीर। साधउ = साधूँ, मैं वश में करूँ।1।

तुझु = तुझे। तुझु गावउ = मैं तेरी सिफत सालाह करूँ। पारब्रहम = हे पारब्रह्म! रीझावउ = मैं (तुझे) प्रसन्न करूँ।1। रहाउ।

बिधि = तरीका। जितु = जिससे। तरउ = तैरूँ, मैं पार होऊँ।2।

मलु = मैल। खोइ = दूर करे।3।

घाल = मेहनत। जिसु = जिस (मनुष्य) को। करि = कर के।4।

तिस ही: शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हट गई है।

तिन ही = तिनि ही, वे ही (शब्द ‘तिनि’ की आखिरी ‘ि’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई) उसने ही।1। रहाउ दूजा।

अर्थ: हे पारब्रह्म प्रभू! (तेरे बेअंत गुण हैं, मुझे समझ नहीं आती कि) मैं तेरा कौन सा गुण ले के तेरी सिफत सालाह करूँ, और कौन से बोल बोल के तुझे प्रसन्न करूँ?

(हे प्रभू! जगत के सारे जीव तेरा ही रूप हैं और तेरा कोई खास रूप नहीं। मैं नहीं जानता कि) तेरा वह कौन सा रूप है जिसका मैं ध्यान धरूँ। (हे प्रभू! मुझे समझ नहीं कि) जोग का वह कौन सा साधन है जिससे मैं अपने शरीर को वश में ले आऊँ (और तुझे प्रसन्न करूँ)। योग साधना के साथ तुझे खुश नहीं किया जा सकता।1।

हे पारब्रह्म! मैं तेरी कौन सी पूजा करूँ (जिससे तू प्रसन्न हो सके) ? हे प्रभू! वह कौन सा तरीका है जिससे मैं संसार समुंद्र पार लांघ जाऊँ?।2।

वह कौन सी तप साधना है जिससे मनुष्य (कामयाब) तपस्वी कहलवा सकता है (और तुझे खुश कर सकता है) ? वह कौन सा नाम है (जिसका जाप करके) (मनुष्य अपने अंदर से) अहंकार की मैल दूर कर सकता है?।3।

हे नानक! (मनुष्य सिर्फ अपने प्रयासों के आसरे प्रभू को प्रसन्न नहीं कर सकता। उसी मनुष्य के गाए हुए) गुण (की हुई) पूजा, ज्ञान और (जुड़ी हुई) सुरति आदिक की सारी मेहनत (सफल होती है) जिस पर दयाल हो के कृपा करके गुरू मिलता है।4।

उसी की ही की हुई सिफत सालाह (परवान है), उसी ने ही प्रभू के साथ जान पहिचान डाली है (जिसे गुरू मिला है और) जिसकी अरदास सारे सुख देने वाला परमात्मा मान लेता है।1। रहाउ दूजा।36।105।

गउड़ी महला ५ ॥ आपन तनु नही जा को गरबा ॥ राज मिलख नही आपन दरबा ॥१॥ आपन नही का कउ लपटाइओ ॥ आपन नामु सतिगुर ते पाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ सुत बनिता आपन नही भाई ॥ इसट मीत आप बापु न माई ॥२॥ सुइना रूपा फुनि नही दाम ॥ हैवर गैवर आपन नही काम ॥३॥ कहु नानक जो गुरि बखसि मिलाइआ ॥ तिस का सभु किछु जिस का हरि राइआ ॥४॥३७॥१०६॥ {पन्ना 187}

पद्अर्थ: तनु = शरीर। जा के = जिस का। गरबा = अहंकार। मिलख = जमीन। दरबा = द्रव्य, धन।1।

का कउ = किसे? लपटाइओ = चिपका हुआ, मोह कर रहा। ते = से।1। रहाउ।

सुत = पुत्र। बनिता = स्त्री। इसट = प्यारे। आप = अपना। माई = माँ।2।

रूपा = चाँदी। फुनि = भी। दाम = दौलत। हैवर = हय+वर, बढ़िया घोड़े। गैवर = गज+वर, बढ़िया हाथी।3।

जे = जिसे। गुरि = गुरू ने। बखसि = बख्शिश करके। जिस का, जिस का = (शब्द ‘तिसु’ ‘जिसु’ में ‘ु’ संबंधक कारक के कारण हट गई है)।4।

अर्थ: (हे भाई! तू) किस किस से मोह कर रहा है? (इनमें से कोई भी सदा के लिए) तेरा अपना नहीं है। (सदा के लिए) अपना (बने रहने वाला परमात्मा का) नाम (ही) है (जो) गुरू से प्राप्त होता है।1। रहाउ।?

(हे भाई!) ये शरीर, जिसका (तू) गर्व करता है (सदा वास्ते) अपना नहीं है। राज, भूमि, धन (ये भी सदा के लिए) अपने नहीं हैं।1।

पुत्र, स्त्री, भाई, प्यारे मित्र, पिता, माता (इनमें से कोई भी सदा के लिए) अपना नहीं है।2।

(हे भाई!) सोना, चाँदी व दौलत भी (सदा के लिए) अपने नहीं हैं। बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी (ये भी सदा के लिए) अपने काम नहीं आ सकते।3।

हे नानक! कह–जिस मनुष्य को बख्शिश करके गुरू ने (प्रभू के साथ) मिला दिया है, जिस मनुष्य का (सदा का साथी) परमात्मा बन गया है, सब कुछ उसका अपना है (भाव, उसे सारा जगत अपना दिखाई देता है, उसे दुनिया के साक-सम्बंधियों का, दुनिया के धन-पदार्थों का बिछोड़ा दुखी नहीं कर सकता)।4।37।106।

गउड़ी महला ५ ॥ गुर के चरण ऊपरि मेरे माथे ॥ ता ते दुख मेरे सगले लाथे ॥१॥ सतिगुर अपुने कउ कुरबानी ॥ आतम चीनि परम रंग मानी ॥१॥ रहाउ ॥ चरण रेणु गुर की मुखि लागी ॥ अह्मबुधि तिनि सगल तिआगी ॥२॥ गुर का सबदु लगो मनि मीठा ॥ पारब्रहमु ता ते मोहि डीठा ॥३॥ गुरु सुखदाता गुरु करतारु ॥ जीअ प्राण नानक गुरु आधारु ॥४॥३८॥१०७॥ {पन्ना 187}

पद्अर्थ: ता ते = उन (चरणों की) बरकति से। सगले = सारे।1।

किउ = को, से। कुरबानी = सदके। आतमु = अपने आप को, आत्मिक जीवन को। चीनि = परख के। परम = सबसे ऊँचा। मानी = मैं मानता हूँ।1। रहाउ।

रेणु = धूड़। मुखि = मुंह पर, माथे पर। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। जिनि = उस (मनुष्य) ने।2।

मनि = मन में। ता ते = उसकी बरकति से। मोहि = मैं।3।

जीअ आधारु = जीवात्मा का आसरा। प्राण आधारु = प्राणों का आसरा।4।

अर्थ: मैं अपने गुरू से सदके जाता हूँ (गुरू की कृपा से) मैं अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल कर कर के (आत्म-मंथन कर करके) सबसे श्रेष्ठ आनंद ले रहा हूँ।1। रहाउ।

(हे भाई!) गुरू के चरण मेरे माथे पर टिके हुए हैं, उनकी बरकति से मेरे सारे दुख दूर हो गए हैं।1।

जिस मनुष्य के माथे पर गुरू के चरणों की धूड़ लग गई, उसने अपनी सारी अहम् (पैदा करने वाली) बुद्धि त्याग दी।2।

(हे भाई!) गुरू का शबद मेरे मन को प्यारा लग रहा है, उसकी बरकति से मैं परमात्मा के दर्शन कर रहा हूँ।3।

हे नानक! (कह– मेरे वास्ते) गुरू (ही सारे) सुखों को देने वाला है, गुरू करतार (का रूप) है। गुरू मेरी जीवात्मा का सहारा है, गुरू मेरे प्राणों का सहारा है।4।38।107।

गउड़ी महला ५ ॥ रे मन मेरे तूं ता कउ आहि ॥ जा कै ऊणा कछहू नाहि ॥१॥ हरि सा प्रीतमु करि मन मीत ॥ प्रान अधारु राखहु सद चीत ॥१॥ रहाउ ॥ रे मन मेरे तूं ता कउ सेवि ॥ आदि पुरख अपर्मपर देव ॥२॥ तिसु ऊपरि मन करि तूं आसा ॥ आदि जुगादि जा का भरवासा ॥३॥ जा की प्रीति सदा सुखु होइ ॥ नानकु गावै गुर मिलि सोइ ॥४॥३९॥१०८॥ {पन्ना 187}

पद्अर्थ: रे = हे! कउ = को। आहि = तमन्ना कर। जा कै = जिसके घर में। ऊणा = कमी।1।

सा = जैसा। करि = बना। सद = सदा।1। रहाउ।

सेवि = सिमर, सेवा = भक्ति। आदि = सब की शुरूवात। पुरख = सर्व व्यापक। अपरंपर = परे से परे।2।

मन = हे मन! आदि = शुरू से ही। जुगादि = युगों के आरम्भ से ही। जा का = जिसका।3।

नानक गावै = नानक गाता है (शब्द ‘नानक’ करता कारक, एकवचन है)। सोई = उस प्रभू को ही।4।

अर्थ: हे मेरे मित्र मन!परमात्मा जैसा प्रीतम बना, उस (प्रीतम को) प्राणों के आसरे (प्रीतम) को सदा अपने चित्त में परोए रख।1। रहाउ।

हे मेरे मन! तू उस परमात्मा को मिलने की चाहत रख, जिसके घर में किसी चीज की भी कमी नहीं है।1।

हे मेरे मन! तू उस परमात्मा की सेवा-भक्ति कर, जो (सारे जगत का) मूल है, जो सब में व्यापक है, जो परे से परे है (बेअंत है) और जो प्रकाश-रूप है।2।

हे (मेरे) मन! तू उस परमात्मा पर (अपनी सारी जरूरतें पूरी होने की) आस रख जिस (की सहायता) का भरोसा सदा से ही (सब जीवों को है)।3।

(हे भाई!) जिस परमात्मा से प्रीति करने की बरकति से सदा आत्मिक आनंद मिलता है, नानक (अपने) गुरू को मिल के उसके गुण गाता है।4।39।108।

गउड़ी महला ५ ॥ मीतु करै सोई हम माना ॥ मीत के करतब कुसल समाना ॥१॥ एका टेक मेरै मनि चीत ॥ जिसु किछु करणा सु हमरा मीत ॥१॥ रहाउ ॥ मीतु हमारा वेपरवाहा ॥ गुर किरपा ते मोहि असनाहा ॥२॥ मीतु हमारा अंतरजामी ॥ समरथ पुरखु पारब्रहमु सुआमी ॥३॥ हम दासे तुम ठाकुर मेरे ॥ मानु महतु नानक प्रभु तेरे ॥४॥४०॥१०९॥ {पन्ना 187}

पद्अर्थ: हम = (भाव,) मैं। माना = मानता हूँ, स्वीकार करता हूँ। कुसल = सुख। कुसल समाना = सुख जैसे, सुख रूप।1।

टेक = आसरा। मनि चिति = मन चित्त में। जिसु = जिस (परमात्मा) का। किछु करणा = ये सब कुछ बनाया हुआ, ये सारी रचना।1। रहाउ।

वेपरवाहा = बे मुहथाज। ते = से, साथ। मोहि = मेरा। असनाहा = स्नेह, प्यार।2।

अंतरजामी = दिल की जानने वाला। समरथ = सब ताकतों का मालिक।3।

दासे = सेवक। ठाकुर = मालिक। महतु = महत्व, महत्वता, वडिआई। तेरे = तेरे (सेवक बनने से)।4।

अर्थ: (हे भाई!) मेरे मन-चित्त में सिर्फ ये सहारा है कि जिस परमात्मा की ये सारी रचना है वह मेरा मित्र है।1। रहाउ।

(हे भाई!) मेरा मित्र प्रभू जो कुछ करता है, उसे मैं (सिर-माथे) स्वीकार करता हूँ। मित्र-प्रभू के किए काम मुझे सुखदायक (प्रतीत होते) हैं।1।

(हे भाई!) मेरा मित्र प्रभू बे-मोहताज है (उसे किसी की कोई गर्ज नहीं, किसी से भय नहीं), गुरू की कृपा से उसके साथ मेरा प्यार बन गया है (भाव, मेरे साथ उसकी सांझ इस वास्ते नहीं बनी कि उसे कोई गरज थी। ये तो सत्गुरू की मेहर हुई है)।2।

मेरा मित्र-प्रभू (हरेक जीव के) दिल की जानने वाला है। सब ताकतों का मालिक है, सब में व्यापक है, बेअंत है, सब का मालिक है।3।

हे नानक! (कह–) हे प्रभू!तू मेरा मालिक है, मैं तेरा सेवक हूँ। तेरा सेवक बनने से ही (लोक-परलोक में) आदर मिलता है वडिआई मिलती है।4।40।109।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh