श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 188 गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ तुम भए समरथ अंगा ॥ ता कउ कछु नाही कालंगा ॥१॥ माधउ जा कउ है आस तुमारी ॥ ता कउ कछु नाही संसारी ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै हिरदै ठाकुरु होइ ॥ ता कउ सहसा नाही कोइ ॥२॥ जा कउ तुम दीनी प्रभ धीर ॥ ता कै निकटि न आवै पीर ॥३॥ कहु नानक मै सो गुरु पाइआ ॥ पारब्रहम पूरन देखाइआ ॥४॥४१॥११०॥ {पन्ना 188} पद्अर्थ: जा कउ = जिसे, जिस पे। समरथ = हे स्मर्थ प्रभू! अंगा = पक्ष। कालंगा = कलंक, दाग़।1। माधउ = (माया धव) माया का पति, हे प्रभू! संसारी = दुनियावी (आस)।1। रहाउ। सहसा = सहम।2। प्रभ = हे प्रभू! धीर = धीरज, सहारा। निकटि = नजदीक। पीर = पीड़ा, दुख-कलेश।3। सो = वह। कहु = कह। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे माया के पति-प्रभू! जिस मनुष्य को (सिर्फ) तेरी (सहायता की) उम्मीद है, उसे दुनिया (के लोगों की सहायता) की उम्मीद (करने की जरूरत) नहीं (रहती)।1। रहाउ। हे सब ताकतों के मालिक प्रभू! जिस मनुष्य का तू सहायक बनता है, उसे कोई (विकार आदि का) दाग नहीं छू सकता।1। (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में मालिक प्रभू की याद रहती है, उसे (दुनिया का) कोई सहम-फिक्र छू नहीं सकता।2। हे प्रभू! जिस मनुष्य को तूने धैर्य दिया है, कोई दुख-कलेश उसके नजदीक नहीं फटक सकता।3। हे नानक! कह– मैंने वह गुरू ढूँढ लिया है, जिसने मुझे (ऐसी ताकतों का मालिक) सर्व-व्यापक बेअंत प्रभू दिखा दिया है।4।41।110। गउड़ी महला ५ ॥ दुलभ देह पाई वडभागी ॥ नामु न जपहि ते आतम घाती ॥१॥ मरि न जाही जिना बिसरत राम ॥ नाम बिहून जीवन कउन काम ॥१॥ रहाउ ॥ खात पीत खेलत हसत बिसथार ॥ कवन अरथ मिरतक सीगार ॥२॥ जो न सुनहि जसु परमानंदा ॥ पसु पंखी त्रिगद जोनि ते मंदा ॥३॥ कहु नानक गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥ केवल नामु रिद माहि समाइआ ॥४॥४२॥१११॥ {पन्ना 188} पद्अर्थ: देह = (मानव-) शरीर। दुलभ = दुर्लभ, मुश्किल से मिलने वाली। ते = वह लोग। आतम घाती = अपनी आत्मा का नाश करने वाले।1। मरि न जाही = क्या वो मर नहीं जाते? वो जरूर आत्मिक मौत मर जाते हैं। बिहून = विहीन।1। रहाउ। हसत = हँसते। बिसथार = विस्तार, फैलाव। मिरतक = मृतक, मुर्दा।2। जसु = यश, सिफत सालाह। परमानंदा = सब से श्रेष्ठ आनंद का मालिक प्रभू। पंखी = पक्षी। त्रिगद जोनि = टेढ़ी जूनियों वाले, टेढे हो के चलने वाली जूनें। ते = से।3। गुरि = गुरू ने। मंत्र = उपदेश। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का किया। रिद माहि = हृदय में।4। अर्थ: (हे भाई!) जिन मनुष्यों को परमात्मा (का नाम) भूल जाता है, वे जरूर आत्मिक मौत मर जाते हैं। (क्योंकि) परमात्मा के नाम से वंचित रहे व्यक्ति का जीवन किसी भी काम का नहीं।1। रहाउ। ये दुर्लभ मानव शरीर बड़े भाग्यों से मिलता है। (पर) जो मनुष्य (ये शरीर प्राप्त करके) परमात्मा का नाम नहीं जपते, वे आत्मिक मौत ले लेते हैं।1। (परमात्मा के नाम से वंचित मनुष्य) खाने-पीने-हसने-खेलने के पसारा पसारते हैं (पर ये ऐसे ही है जैसे किसी मुर्दे को श्रृंगारना, और) मुर्दे को श्रृंगार का कोई लाभ नहीं होता।2। जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभू की सिफत सालाह नहीं सुनते, वो पशु-पक्षी व टेढ़े हो के चलने वाले (रेंगने वाले) जीवों की जूनियों से भी बुरे हैं।3। हे नानक! कह– जिस मनुष्य के हृदय में गुरू ने अपना उपदेश पक्का कर दिया है, उसके हृदय में सिर्फ परमात्मा का नाम ही सदा टिका रहता है।4।42।111। गउड़ी महला ५ ॥ का की माई का को बाप ॥ नाम धारीक झूठे सभि साक ॥१॥ काहे कउ मूरख भखलाइआ ॥ मिलि संजोगि हुकमि तूं आइआ ॥१॥ रहाउ ॥ एका माटी एका जोति ॥ एको पवनु कहा कउनु रोति ॥२॥ मेरा मेरा करि बिललाही ॥ मरणहारु इहु जीअरा नाही ॥३॥ कहु नानक गुरि खोले कपाट ॥ मुकतु भए बिनसे भ्रम थाट ॥४॥४३॥११२॥ {पन्ना 188} पद्अर्थ: का की = किस की? का को = किस का? नाम धरीक = नाम-मात्र ही, सिर्फ कहने मात्र ही। सभि = सारे।1। काहे कउ = क्यूँ? मूरख = हे मूर्ख! भखलाइआ = बड़ बड़ाना, सपने के असर तहत बोल रहा है। मिलि = मिल के। संजोगि = पिछले किए कर्मों के संजोग अनुसार। हुकमि = (प्रभू के) आदेश से।1। रहाउ। ऐका = (सब जीवों की) एक ही (‘ऐका’ स्त्रीलिंग है व ‘ऐको’ पुलिंग)। कहा = कहाँ? क्यों? रोति = रोता।2। करि = कर के, कह के। बिललाही = (लोग) बिलकते हैं। जीअरा = जीवात्मा।3। गुरि = गुरू ने। कपाट = किवाड़, भ्रम के पर्दे। भ्रम = भटकना। थाट = पसारे, बनावटें।4। अर्थ: हे मूर्ख! तू क्यूँ (बिलक रहा है, जैसे) सपने के असर में बोल रहा है? (तुझे ये सूझ नहीं कि) तू परमात्मा के हुकम में (पिछले) संयोगों के अनुसार (इन माता-पिता आदि संबंधियों से) मिल के (जगत में) आया है (जब तक ये संयोग कायम है तब तक इन संबंधियों से तेरा मेल रह सकता है)।1। रहाउ। (असल में सदा के लिए) ना कोई किसी की माँ है, ना कोई किसी का पिता है। (माता-पिता-पुत्र-सत्री आदि ये) सारे साक सदा कायम रहने वाले नहीं हैं, कहने मात्र के ही हैं।1। सब जीवों की एक ही मिट्टी है, सब में (करतार की) एक ही ज्योति मौजूद है, सब में एक ही प्राण हैं (जितना समय संजोग कायम है उतना समय ये तत्व इकट्ठे हैं। संजोगों की समाप्ति पर तत्व अलग-अलग हो जाते हैं। किसी को किसी के वास्ते) रोने की जरूरत नहीं पड़ती (रोने का लाभ भी नहीं होता)।2। (किसी संबन्धी के विछुड़ने पर लोग) ‘मेरा मेरा’ कह के बिलखते हैं, (पर ये नहीं समझते कि सदा के लिए कोई किसी का ‘मेरा’ नहीं और) ये जीवात्मा मरने वाली नहीं है।3। हे नानक! कह–जिन मनुष्यों के (माया के मोह से जकड़े हुए) किवाड़ गुरू ने खोल दिए, वे मोह के बंधनों से स्वतंत्र हो गए, उनकी मोह के भटकनों के सारे पसारे समाप्त हो गए।4।43।112। गउड़ी महला ५ ॥ वडे वडे जो दीसहि लोग ॥ तिन कउ बिआपै चिंता रोग ॥१॥ कउन वडा माइआ वडिआई ॥ सो वडा जिनि राम लिव लाई ॥१॥ रहाउ ॥ भूमीआ भूमि ऊपरि नित लुझै ॥ छोडि चलै त्रिसना नही बुझै ॥२॥ कहु नानक इहु ततु बीचारा ॥ बिनु हरि भजन नाही छुटकारा ॥३॥४४॥११३॥ {पन्ना 188} पद्अर्थ: दीसहि = दिखते हैं। तिन कउ = उन्हें। बिआपै = दबाए रखता है।1। कोउ = कोई भी। माया वडिआई = माया के कारण मिले आदर से। जिनि = जिस ने।1। रहाउ। भूमीआ = जमीन का मालिक। भूमि ऊपरि = जमीन की खातिर। लूझै = लड़ता झगड़ता है।2। ततु = तत्व, सार, निचोड़, असल काम की बात। छुटकारा = माया के मोह से खलासी।3। अर्थ: (हे भाई!) माया के कारण (जगत में) मिले आदर से कोई भी मनुष्य (असल में) बड़ा नहीं है। वही मनुष्य बड़ा है, जिसने परमात्मा के साथ लगन लगाई हुई है।1। रहाउ। (हे भाई! दुनिया में धन प्रभुता आदि से) जो लोग बड़े-बड़े दिखाई देते हैं, उन्हें (सदा ही) चिंता का रोग दबाए रखता है।1। जमीन का मालिक मनुष्य जमीन की (मल्कियत की) खातिर (औरों से) सदा लड़ता-झगड़ता रहता है (ये जमीन यहीं ही) छोड़ के (आखिर यहाँ से) चल पड़ता है। (पर सारी उम्र उसकी मल्कियत की) तृष्णा नहीं खत्म होती।2। हे नानक! कह–हमने विचार करके ये काम की बात ढूँढी है कि परमात्मा के भजन के बिना माया के मोह से निजात नहीं मिलती (और जब तक माया का मोह कायम है तब तक मनुष्य का दायरा छोटा ही रहता है।3।44।113। गउड़ी महला ५ ॥ पूरा मारगु पूरा इसनानु ॥ सभु किछु पूरा हिरदै नामु ॥१॥ पूरी रही जा पूरै राखी ॥ पारब्रहम की सरणि जन ताकी ॥१॥ रहाउ ॥ पूरा सुखु पूरा संतोखु ॥ पूरा तपु पूरन राजु जोगु ॥२॥ हरि कै मारगि पतित पुनीत ॥ पूरी सोभा पूरा लोकीक ॥३॥ करणहारु सद वसै हदूरा ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा ॥४॥४५॥११४॥ {पन्ना 188} पद्अर्थ: पूरा = जिसमें कोई कमी नही। मारगु = (जिंदगी का) रास्ता। सभु किछु = हरेक उद्यम।1। पूरी रही = सदा इज्जत बनी रही। जा = जब। पूरै = अभॅुल (गुरू) ने। ताकी = देखूँ। जन = (उन) लोगों ने।1। रहाउ। राजु जोगु = दुनिया के राज-भाग भी और परमात्मा से मेल भी।2। मारगि = रास्ते पर। पतित = (विकारों में) गिरे हुए। लोकीक = लोकाचारी, लोगों के साथ व्यवहार। हदूरा = अंग-संग।4। अर्थ: (पूरे गुरू की मेहर से) जिन मनुष्यों ने (अपने सब कार्य-व्यवहारों में) परमात्मा का आसरा लिए रखा, उनकी इज्जत सदा बनी रही क्योंकि अभॅुल गुरू ने उनकी इज्जत रखी।1। रहाउ। (गुरू की मेहर से) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बसता है, उसका हरेक उद्यम कमी-रहित होता है (क्योंकि) परमात्मा का नाम ही (जीवन का) सही रास्ता है, नाम ही असल (तीर्थ) स्नान है।1। (गुरू की मेहर से जो मनुष्य परमात्मा की शरण में रहता है वह) सदा के लिए आत्मिक आनंद पाता है और संतोष वाला जीवन व्यातीत करता है। (परमात्मा की शरण ही उसके वास्ते) अभॅुल तप है, वह पूर्ण राज भी भोगता है और परमात्मा के चरणों से भी जुड़ा रहता है।2। (गुरू की मेहर से जो मनुष्य) परमात्मा के राह पर चलते हैं वह (पहले) विकारों में गिरे हुए भी (अब) पवित्र हो जाते हैं। (उन्हें लोक-परलोक में) सदा के लिए शोभा मिलती है। लोगों के साथ उनका मेल जोल-व्यवहार भी ठीक रहता है।3। हे नानक! कह– जिस मनुष्य को मेरा अभॅुल गुरू मिल पड़ता है, करतार सृजनहार सदा उस मनुष्य के अंग-संग बसता है।4।45।114। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |