श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ संत की धूरि मिटे अघ कोट ॥ संत प्रसादि जनम मरण ते छोट ॥१॥ संत का दरसु पूरन इसनानु ॥ संत क्रिपा ते जपीऐ नामु ॥१॥ रहाउ ॥ संत कै संगि मिटिआ अहंकारु ॥ द्रिसटि आवै सभु एकंकारु ॥२॥ संत सुप्रसंन आए वसि पंचा ॥ अम्रितु नामु रिदै लै संचा ॥३॥ कहु नानक जा का पूरा करम ॥ तिसु भेटे साधू के चरन ॥४॥४६॥११५॥ {पन्ना 189}

पद्अर्थ: धुरि = पैरों की खाक। अघ = पाप। कोटि = करोड़ों।

(नोट: शब्द ‘काटि’ = करोड़; ‘कोटु’ = किला; ‘कोट’ = किले)।

प्रसादि = कृपा से। छोट = खलासी।1।

जपीअै = जपते हैं। ते = से।1। रहाउ।

संगि = संगति में। द्रिसटि आवै = दिखता है। सभु = हर जगह।2।

वसि = वश में। पंचा = (कामादिक) पाँचो। रिदै = हृदय में। संचा = संचित कियाए एकत्र किया।3।

जा का = जिस (मनुष्य) का। करम = भाग्य। तिसु = उसे। साधू = गुरू।4।

अर्थ: (हे भाई!) गुरू संत का दर्शन (ही) मुकम्मल (तीर्थ) स्नान है। गुरू संत की कृपा से परमात्मा का नाम जपा जा सकता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) गुरू संत के चरणों की धूड़ (माथे पे लगाने) से (मनुष्य के) करोड़ों पाप दूर हो जाते हैं। गुरू संत की कृपा से (मनुष्य को) जनम मरण के चक्र से निजात मिल जाती है।1।

(हे भाई!) गुरू संत की संगत में (रहने से) अहंकार दूर हो जाता है (गुरू की संगति में रहने वाले मनुष्य को) हर जगह एक परमात्मा ही नजर आता है।2।

(हे भाई!) जिस मनुष्य पर गुरू-संत मेहरवान हो जाए, (कामादिक) पाँचों दूत उसके वश में आ जाते हैं, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम अपने हृदय में इकट्ठा कर लेता है।3।

(पर) हे नानक! कह– उस मनुष्य को (ही) गुरू के चरण (परसने को) मिलते हैं, जिसकी बड़ी (बढ़िया) किस्मत हो।4।46।115।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि गुण जपत कमलु परगासै ॥ हरि सिमरत त्रास सभ नासै ॥१॥ सा मति पूरी जितु हरि गुण गावै ॥ वडै भागि साधू संगु पावै ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि पाईऐ निधि नामा ॥ साधसंगि पूरन सभि कामा ॥२॥ हरि की भगति जनमु परवाणु ॥ गुर किरपा ते नामु वखाणु ॥३॥ कहु नानक सो जनु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥४॥४७॥११६॥ {पन्ना 189}

पद्अर्थ: जपत = जपते हुए। कमलु = हिरदा। कौल फुल = कमल का फूल। परगासै = खिल जाता है। त्रास = डर। नासै = दूर हो जाता है, नाश हो जाता है।1।

सा = वही। मति = अक्ल। पूरी = त्रुटि हीन। जितु = जिस (अक्ल) से। साधू संगु = गुरू का संग।1। रहाउ।

साध संगि = गुरू की संगति में। निधि = खजाने। सभि = सारे।2।

परवाणु = कबूल। ते = से, साथ। वखाणु = उचारना।3।

जा कै रिदै = जिसके हृदय में।4।

अर्थ: (हे भाई!) वही अक्ल किसी गलती करने से बची समझो, जिस अक्ल की बरकति से मनुष्य परमात्मा के गुण गाता है (पर ये बुद्धि उस मनुष्य के अंदर पैदा होती है जो) सौभाग्य से गुरू की संगति प्राप्त कर लेता है।1। रहाउ।

(हे भाई !) परमात्मा के गुण गाने से (हृदय) कमल के फूल जैसा खिल उठता है। परमात्मा का नाम सिमरने से हरेक तरह के डर दूर हो जाता है।1।

(हे भाई !) गुरू की सँगत में रहने से परमात्मा का नाम खज़ाना मिल जाता है, और गुरू की सँगत में रहने से सभी काम सफल हो जाते हैं।2।

परमात्मा की भक्ति करने से मानस जनम सफल हो जाता है (परमात्मा की भक्ति) परमात्मा का नाम उचारना, गुरू की कृपा से ही मिलता है।3।

हे नानक! कह– (सिर्फ) वह मनुष्य (परमात्मा की दरगाह में) कबूल होता है, जिसके हृदय में सदा परमात्मा (का नाम) बसता है।4।47।116।

गउड़ी महला ५ ॥ एकसु सिउ जा का मनु राता ॥ विसरी तिसै पराई ताता ॥१॥ बिनु गोबिंद न दीसै कोई ॥ करन करावन करता सोई ॥१॥ रहाउ ॥ मनहि कमावै मुखि हरि हरि बोलै ॥ सो जनु इत उत कतहि न डोलै ॥२॥ जा कै हरि धनु सो सच साहु ॥ गुरि पूरै करि दीनो विसाहु ॥३॥ जीवन पुरखु मिलिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक परम पदु पाइआ ॥४॥४८॥११७॥ {पन्ना 189}

पद्अर्थ: ऐकसु सिउ = एक (परमात्मा) के साथ ही। जा का = जिसका। तिसै = उसी का। तात = ईरखा, जलन।

करन करावन = (सब कुछ) करने की ताकत रखने वाला और सब जीवों से कराने की ताकत रखने वाला। सोई = वह (परमात्मा) ही।1। रहाउ।

मनहि = मन में, मन लगा के। मुखि = मुंह से। इत = इस लोक में। उत = उस लोक में, परलोक में। कतहि = कहीं भी।2।

जा कै = जिस के (हृदय) में। साहु = शाहु, शाहुकार। सचु = सदा कायम रहने वाला। गुरि = गुरू ने। विसाहु = एतबार, साख।3।

पुरखु = सर्व व्यापक। जीवन = (सब जीवों की) जिंदगी (का आसरा)। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।4।

अर्थ: (जिस मनुष्य पे गुरू की कृपा होती है, उसे कहीं भी) गोबिंद के बिना और कोई (दूसरा) नहीं दिखता। (उसे हर जगह) वही करतार दिखता है जो सब कुछ करने की स्मर्था वाला है।1। रहाउ।

(गुरू की कृपा से) जिस मनुष्य का मन एक परमात्मा के साथ ही रंगा रहता है, उसे औरों के साथ ईष्या करनी भूल जाती है।1।

(गुरू की कृपा से जो मनुष्य) मन लगा के सिमरन की कमाई करता है और मुंह से सदा परमात्मा का नाम उचारता है, वह मनुष्य (स्वच्छ आत्मिक जीवन के स्तर से) कभी भी नहीं डोलता- ना इस लोक में ना ही परलोक में।2

(गुरू की कृपा से) जिस मनुष्य के पास परमात्मा का नाम-धन है, वह ऐसा शाहूकार है, जो सदा ही शाहूकार टिका रहता है। पूरे गुरू ने (परमात्मा की हजूरी में उसकी) साख बना दी है।3।

हे नानक! कह– (गुरू की कृपा से) जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभू, सब जीवों की जिंदगी का सहारा प्रभू मिल पड़ा है उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया है।4।48।117।

गउड़ी महला ५ ॥ नामु भगत कै प्रान अधारु ॥ नामो धनु नामो बिउहारु ॥१॥ नाम वडाई जनु सोभा पाए ॥ करि किरपा जिसु आपि दिवाए ॥१॥ रहाउ ॥ नामु भगत कै सुख असथानु ॥ नाम रतु सो भगतु परवानु ॥२॥ हरि का नामु जन कउ धारै ॥ सासि सासि जनु नामु समारै ॥३॥ कहु नानक जिसु पूरा भागु ॥ नाम संगि ता का मनु लागु ॥४॥४९॥११८॥ {पन्ना 189}

पद्अर्थ: भगत कै = भक्त के हृदय में। प्रान अधारु = प्राणों का आसरा। नामो = नाम ही। करि = करके।1। रहाउ।

सुख असथानु = आत्मिक आनंद (देने) का श्रोत। रतु = रंगा हुआ।2।

जन कउ = सेवक को। धारै = धरण करता है, धरवास देता है, सहारा देता है। सासि सासि = हरेक साँस के साथ। समारै = सम्भालता है।3।

संगि = साथ। ता का = उस (मनुष्य) का।4।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का) नाम है, वह मनुष्य (लोक परलोक में) आदर हासिल करता है, शोभा पाता है। (पर, ये हरी-नाम उसी मनुष्य को मिलता है) जिसे मेहर करके परमात्मा खुद (गुरू से) दिलवाता है।1। रहाउ।

भक्ति करने वाले मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम उसकी जिंदगी का सहारा है। नाम ही उसके वास्ते धन है, और नाम ही उसके वास्ते (असली) वणज-व्यापार है।1।

परमात्मा का नाम भक्त के हृदय में आत्मिक आनंद देने का श्रोत है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम-रंग में रंगा हुआ है, वही भगत है। वही परमात्मा की हजूरी में कबूल है।2।

परमात्मा का नाम (परमात्मा के) सेवक को सहारा देता है, सेवक अपनी एक-एक साँस के साथ परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) सम्भाल के रखता है।3।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य के बड़े भाग्य होते हैं, उसका (ही) मन परमात्मा के नाम के साथ प्रसन्न होता है।4।49।118।

गउड़ी महला ५ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ ॥ तब ते धावतु मनु त्रिपताइआ ॥१॥ सुख बिस्रामु पाइआ गुण गाइ ॥ स्रमु मिटिआ मेरी हती बलाइ ॥१॥ रहाउ ॥ चरन कमल अराधि भगवंता ॥ हरि सिमरन ते मिटी मेरी चिंता ॥२॥ सभ तजि अनाथु एक सरणि आइओ ॥ ऊच असथानु तब सहजे पाइओ ॥३॥ दूखु दरदु भरमु भउ नसिआ ॥ करणहारु नानक मनि बसिआ ॥४॥५०॥११९॥ {पन्ना 189}

पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। तब ते = तब से। धावतु = भटकता। त्रिपताइआ = तृप्त हो गया।1।

सुख बिस्रामु = आत्मिक आनंद देने का श्रोत प्रभू। गाइ = गा के। श्रमु = श्रम, थकावट। हती = मारी गई।1। रहाउ।

अराधि = ध्यान धर के। ते = से, साथ।2।

तजि = छोड़ के। ऐक सरणि = एक परमात्मा की शरण। सहजे = आत्मिक अडोलता में।3।

भरमु = भटकना। मनि = मन में।4।

अर्थ: (हे भाई! गुरू की कृपा से परमात्मा के) गुण गा के मैंने (वह) आत्मिक आनंद का दाता (परमात्मा) ढूँढ लिया है। (अब माया की खातिर मेरी) दौड़-भाग मिट गई है, (मेरी माया की तृष्णा की) बला मर चुकी है।1। रहाउ।

(हे भाई! जब से) गुरू संत की कृपा से मैं परमात्मा का नाम सिमर रहा हूँ, तब से (माया की खातिर) दौड़ने वाला मेरा मन तृप्त हो गया है।1।

(हे भाई! गुरू की कृपा से) भगवान के सुंदर चरणों का ध्यान धर के परमात्मा का नाम सिमरने से मेरी (हरेक किस्म की) चिंता मिट गई है।2।

(हे भाई! जब) मैं अनाथ, और सारे आसरे छोड़ के एक परमात्मा की शरण आ गया, तब आत्मिक अडोलता में टिक के मैंने उन सब (ठिकानों से) ऊँचा ठिकाना प्राप्त कर लिया ।3।

हे नानक! (कह– गुरू की कृपा से) सृजनहार परमात्मा मेरे मन में आ बसा है (और अब मेरा हरेक किस्म का) दुख-दर्द, भटकना व डर दूर हो गया है।4।50।119।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh