श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ कर करि टहल रसना गुण गावउ ॥ चरन ठाकुर कै मारगि धावउ ॥१॥ भलो समो सिमरन की बरीआ ॥ सिमरत नामु भै पारि उतरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ नेत्र संतन का दरसनु पेखु ॥ प्रभ अविनासी मन महि लेखु ॥२॥ सुणि कीरतनु साध पहि जाइ ॥ जनम मरण की त्रास मिटाइ ॥३॥ चरण कमल ठाकुर उरि धारि ॥ दुलभ देह नानक निसतारि ॥४॥५१॥१२०॥ {पन्ना 190}

पद्अर्थ: कर = हाथों से। करि = कर के। रसना = जीभ से। गावउ = मैं गाता हूँ। चरन = पैरों से। मारगि = रास्ते पर। धावउ = मैं दौड़ता हूँ।

भलो = भला, सुहावना, ठीक। समो = समय, बेला। बरीआ = वारी, अवसर। भै = (शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)।1। रहाउ।

नेत्र = आँखों से। पेखु = देख। लेखु = लिख।2।

साध पाहि = गुरू के पास। जाइ = जा के। त्रास = डर। मिटाइ = दूर कर।3।

उरि = हृदय में। धारि = रख। देह = शरीर। निसतारि = पार करा।4।

अर्थ: (हे मेरे मन! मानस जनम का ये) सुंदर समय (तुझे मिला है। ये मानस जनम ही परमात्मा के) सिमरन की बेला है। (इस मनुष्य जन्म में ही) परमात्मा का नाम सिमरते हुए (संसार के अनेकों) डरों से पार लांघ सकते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई! अपने गुरू की मेहर सदका) मैं अपने हाथों से (गुरमुखों की) सेवा करता हूँ और जीभ से (परमात्मा के) गुण गाता हूँ, और पैरों से मैं परमात्मा के रास्ते पे चल रहा हूँ।1।

(हे भाई! तू भी) अपनी आँखों से गुरमुखों के दर्शन कर, (गुरमुखों की संगति में रह के) अपने मन में अविनाशी परमात्मा के सिमरन का लेख लिखता रह।2।

(हे भाई!) गुरू की संगति में जा के तू परमात्मा के सिॅफत सालाह के गीत सुना कर और इस तरह जनम मरण में पड़ने वाली आत्मिक मौत का डर (अपने अंदर से) दूर कर ले।3।

हे नानक! (कह–हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण अपने हृदय में टिकाए रख। ये मानस शरीर बड़ी मुश्किल से मिला है, इसे (सिमरन की बरकति से संसार समुंद्र के विकारों से) पार लंघा ले।4।51।120।

गउड़ी महला ५ ॥ जा कउ अपनी किरपा धारै ॥ सो जनु रसना नामु उचारै ॥१॥ हरि बिसरत सहसा दुखु बिआपै ॥ सिमरत नामु भरमु भउ भागै ॥१॥ रहाउ ॥ हरि कीरतनु सुणै हरि कीरतनु गावै ॥ तिसु जन दूखु निकटि नही आवै ॥२॥ हरि की टहल करत जनु सोहै ॥ ता कउ माइआ अगनि न पोहै ॥३॥ मनि तनि मुखि हरि नामु दइआल ॥ नानक तजीअले अवरि जंजाल ॥४॥५२॥१२१॥ {पन्ना 190}

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। रसना = जीभ से।1।

सहसा = सहम। बिआपै = जोर डाले रखता है। भरमु = भटकना।1। रहाउ।

निकटि = नजदीक।2।

सोहै = सुंदर लगता है, सुंदर जीवन वाला बन जाता है। ता कउ = उसे।3।

मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। नामु दइआल = दयाल का नाम। तजीअले = (उस मनुष्य ने) छोड़ दिए हैं। अवरि = (शब्द ‘अवर’ का बहुवचन) और।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा को भुलाने से (दुनिया का) सहम-दुख (अपना) जोर डाल लेता है, (पर प्रभू का) नाम सिमरने से हरेक भटकना दूर हो जाती है, हरेक किस्म का डर भाग जाता है।1। रहाउ।

(पर नाम सिमरना भी जीवों के अपने वश की बात नहीं) जिस मनुष्य पे परमात्मा अपनी मेहर करता है वह मनुष्य (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम उचारता है।1।

(प्रभू की कृपा से जो मनुष्य) प्रभू की सिफत सालाह सुनता है, प्रभू की सिफत सालाह गाता है, कोई दुख उस मनुष्य के समीप नहीं फटकता।2।

(हे भाई!) परमात्मा की सेवा-भक्ति करते हुए मनुष्य सुंदर जीवन वाला बन जाता है, (क्योंकि) उस मनुष्य को माया (की तृष्णा की) आग सता नहीं सकती (उसके आत्मिक जीवन को जला नहीं सकती)।3।

हे नानक! दया के घर परमात्मा का नाम जिस मनुष्य के मन में दिल में व मुंह में बस जाता है, उस मनुष्य ने (अपने मन में से माया के मोह के) और सारे जंजाल उतार दिए होते हैं।4।42।121।

गउड़ी महला ५ ॥ छाडि सिआनप बहु चतुराई ॥ गुर पूरे की टेक टिकाई ॥१॥ दुख बिनसे सुख हरि गुण गाइ ॥ गुरु पूरा भेटिआ लिव लाइ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि का नामु दीओ गुरि मंत्रु ॥ मिटे विसूरे उतरी चिंत ॥२॥ अनद भए गुर मिलत क्रिपाल ॥ करि किरपा काटे जम जाल ॥३॥ कहु नानक गुरु पूरा पाइआ ॥ ता ते बहुरि न बिआपै माइआ ॥४॥५३॥१२२॥ {पन्ना 190}

पद्अर्थ: टेक = आसरा। टिकाई = टिका के। टेक टिकाई = आसरा ले के।1।

बिनसे = नाश हो जाते हैं। गाइ = गा के। भेटिआ = मिला। लिव = लगन।1। रहाउ।

गुरि = गुरू ने। विसूरे = झोरे। चिंत = चिंता।2।

अनद = आत्मिक खुशियां। गुर मिलत = गुरू को मिल के । जम जाल = जम के जाल, आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के जाल।3।

ता ते = उस से, उस (गुरू की) बरकति से। न बिआपै = जोर नहीं डालती।4।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को) पूरा गुरू मिल जाता है (और गुरू की मेहर से जो प्रभू चरणों में) सुरति जोड़ता है, परमात्मा के गुण गा के उसे सुख (ही सुख) मिलते हैं और उसके सारे (के सारे) दुख दूर हो जाते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई! तू भी) पूरे गुरू का आसरा ले। ये ख्याल छोड़ दे कि तू बहुत अक्लमंद और चतुर है (और जीवन-मार्ग को खुद ही समझ सकता है)।1।

(हे भाई!) गुरू ने (जिस मनुष्य को) परमात्मा का नाम मंत्र दिया है (उस मंत्र की बरकति से उसके सारे) झोरे (चिंता-फिक्र) मिट गए हैं उसकी (हरेक किस्म की) चिंता उतर गई है।2।

(हे भाई!) दया के श्रोत गुरू को मिल के आत्मिक शांति पैदा हो जाती है। गुरू कृपा करके (मनुष्य के अंदर से) आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के फंदे कट जाते हैं।3।

हे नानक! कह– (जिस मनुष्य को) पूरा गुरू मिल जाता है, उस गुरू की बरकति से (उस मनुष्य पर) माया (अपना) जोर नहीं डाल सकती।4।53।122।

गउड़ी महला ५ ॥ राखि लीआ गुरि पूरै आपि ॥ मनमुख कउ लागो संतापु ॥१॥ गुरू गुरू जपि मीत हमारे ॥ मुख ऊजल होवहि दरबारे ॥१॥ रहाउ ॥ गुर के चरण हिरदै वसाइ ॥ दुख दुसमन तेरी हतै बलाइ ॥२॥ गुर का सबदु तेरै संगि सहाई ॥ दइआल भए सगले जीअ भाई ॥३॥ गुरि पूरै जब किरपा करी ॥ भनति नानक मेरी पूरी परी ॥४॥५४॥१२३॥ {पन्ना 190}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। मनमुख कउ = मनमुख को, उस मनुष्य को जिसका मुंह अपनी तरफ है। संतापु = दुख, कलेश। लागो = लगता है, चिपकता है।1।

मीत हमारे = हे मेरे मित्रो! ऊजल = रौशन। होवहि = होंगे।1। रहाउ।

वसाइ = टिका रख। हतै = मार देता है, मार देगा। बलाइ = चुड़ैल।2।

सहाई = साथी। सगले = सारे। जीअ = (शब्द ‘जीउ’ का बहुवचन)।3।

भनति = कहता है। परी = पड़ी। पूरी परी = (मेहनत) पूरी हो गई।4।

अर्थ: हे मेरे मित्रो! सदा (अपने) गुरू को याद रखो। (गुरू का उपदेश याद रखने से) तुम्हारे मुंह परमात्मा की दरगाह में रौशन होंगे।1। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू के अनुसार रहता है) पूरे गुरू ने खुद उसे (सदैव कामादिक वैरियों से) बचा लिया है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को (इनका) सेक लगता ही रहता है।1।

(हे भाई! तू अपने) हृदय में गुरू के चरण बसाए रख (गुरू तेरे सारे) दुख-कलेश नाश करेगा। (कामादिक तेरे सारे) वैरियों को खत्म कर देगा (तेरे पर दबाव डालने वाली माया-) चुड़ैल को मार देगा।2।

हे भाई! गुरू का शबद ही तेरे साथ (सदैव साथ निभाने वाला) साथी है, (गुरू का शबद हृदय में परोए रखने से) सारे लोग दयावान हो जाते हैं।3।

नानक कहता है–जब पूरे गुरू ने (मेरे पर) मेहर की तो मेरे जीवन की मेहनत सफल हो गई (कामादिक वैरी मेरे पर हमला करने से हट गए)।4।54।123।

गउड़ी महला ५ ॥ अनिक रसा खाए जैसे ढोर ॥ मोह की जेवरी बाधिओ चोर ॥१॥ मिरतक देह साधसंग बिहूना ॥ आवत जात जोनी दुख खीना ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक बसत्र सुंदर पहिराइआ ॥ जिउ डरना खेत माहि डराइआ ॥२॥ सगल सरीर आवत सभ काम ॥ निहफल मानुखु जपै नही नाम ॥३॥ कहु नानक जा कउ भए दइआला ॥ साधसंगि मिलि भजहि गुोपाला ॥४॥५५॥१२४॥ {पन्ना 190}

पद्अर्थ: रसा = रस, स्वादिष्ट पदार्थ। ढोर = पशु। जेवरी = जंजीर, रस्सी से।1।

मिरतक = मृतक, मुर्दा। देह = शरीर। मिरतक देह = आत्मिक मौत मरे हुए शरीर। बिहूना = विहीन। खीना = क्षीण, कमजोर।1। रहाउ।

बसत्र = वस्त्र, कपड़े। डरना = जानवरों को डराने के लिए खेतों में खड़ा किया गया बनावटी रखवाला।2।

निहफल = निष्फल, व्यर्थ।3।

जा कउ = जिन मनुष्यों पे। साध संगि = साध-संगति में।4।

गुोपाला: शब्द ‘ग’ के साथ दो मात्राएं हैं ‘ु’ तथा ‘ो’ । असल शब्द ‘गोपाल है, यहाँ ‘गुपाल’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य साध-संगति से वंचित रहता है, उसका शरीर मुर्दा है (क्योंकि उसके अंदर आत्मिक मौत मरी हुई जीवात्मा है), वह मनुष्य जनम मरण के चक्र में पड़ा रहता है, जूनियों के दुखों के कारण उसका आत्मिक जीवन लगातार कमजोर होता चला जाता है।1। रहाउ।

जैसे पशु (चारे से पेट भर लेते हैं, वैसे ही साध-संगति से वंचित रह के आत्मिक मौत मरा हुआ मनुष्य) अनेकों स्वादिष्ट पदार्थ खाता रहता है और (रंगे हाथ पकड़े हुए) चोर की तरह (माया) के मोह की रस्सियों में लगातार (कसता) जकड़ता चला जाता है।1।

(आत्मिक मौत मरा मनुष्य) अनेकों सुंदर-सुंदर कपड़े पहनता है (गरीब मैले कपडों वाले लोग उससे डरते थोड़ा परे परे रहते हैं। इस तरह गरीबों के लिए वह ऐसे होता है) जैसे खेतों में (जानवरों को) डराने के लिए बनावटी रखवाला खड़ा किया होता है।2।

(अन्य पशु आदि के) सारे शरीर कोई ना कोई काम आ जाते हैं । अगर मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं जपता, तो इसका जगत में आना व्यर्थ ही जाता है।3।

हे नानक! कह–जिन मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, वह साध-संगति में (सत्संगियों के साथ) मिल के जगत के पालणहार प्रभू का भजन करते हैं।4।55।124।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh