श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ कलि कलेस गुर सबदि निवारे ॥ आवण जाण रहे सुख सारे ॥१॥ भै बिनसे निरभउ हरि धिआइआ ॥ साधसंगि हरि के गुण गाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ चरन कवल रिद अंतरि धारे ॥ अगनि सागर गुरि पारि उतारे ॥२॥ बूडत जात पूरै गुरि काढे ॥ जनम जनम के टूटे गाढे ॥३॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी ॥ जिसु भेटत गति भई हमारी ॥४॥५६॥१२५॥ {पन्ना 191}

पद्अर्थ: कलि = दुख, मानसिक झगड़े। गुर सबदि = गुरू के शबद ने। रहे = समाप्त हो गए।1।

बिनसे = दूर हो गए।1। रहाउ।

चरन कवल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। धारे = टिकाए। गुरि = गुरू ने।2।

बूडत जात = डूबते जाते। गाढे = जोड़ दिए, गाँठ लगा दी।3।

भेटत = मिल के। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: (हे भाई! जिन मनुष्यों ने) साध-संगति में (जा के) परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाए हैं, जिन्होंने निर्भय हरी का ध्यान (अपने हृदय में) धारण किया है, उनके (दुनिया के सारे) डर दूर हो गए हैं।1। रहाउ।

(साध-संगति में पहुँचे हुए जिन मनुष्यों के) मानसिक झगड़े और कलेश गुरू के शबद ने दूर कर दिए, उनके जनम मरण के चक्कर खत्म हो गए, उन्हें सारे सुख प्राप्त हो गए।1।

(साध-संगति की बरकति से जिन मनुष्यों ने) परमात्मा के सुंदर चरण अपने दिल में बसा लिए, गुरू ने उन्हें तृष्णा की आग के समुंद्र में से पार लंघा दिया।2।

(विकारों के समुंद्र में) डूब रहे मनुष्य को पूरे गुरू ने (बाँह से पकड़ के बाहर) निकाल लिया (और जब वे साध-संगति में पहुँच गए), उनको (परमात्मा से) अनेकों जन्मों से बिछुड़ों हुओं को (गुरू ने दुबारा परमात्मा के साथ) मिला दिया।3।

हे नानक! कह– मैं उस गुरू से सदके जाता हूँ, जिसको मिल के हमारी (जीवों की) उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।4।56।125।

गउड़ी महला ५ ॥ साधसंगि ता की सरनी परहु ॥ मनु तनु अपना आगै धरहु ॥१॥ अम्रित नामु पीवहु मेरे भाई ॥ सिमरि सिमरि सभ तपति बुझाई ॥१॥ रहाउ ॥ तजि अभिमानु जनम मरणु निवारहु ॥ हरि के दास के चरण नमसकारहु ॥२॥ सासि सासि प्रभु मनहि समाले ॥ सो धनु संचहु जो चालै नाले ॥३॥ तिसहि परापति जिसु मसतकि भागु ॥ कहु नानक ता की चरणी लागु ॥४॥५७॥१२६॥ {पन्ना 191}

पद्अर्थ: साध संगि = साध-संगति में, गुरू की संगति में। ता की = उस (परमात्मा) की।1।

भाई = हे वीर! तपति = जलन।1। रहाउ।

तजि = छोड़ के। नमसकारहु = नमस्कार करो, अपना सिर झुकाओ।2।

सासि सासि = हरेक श्वास से। मनहि = मन में। समाले = सम्भाल के रख। संचहु = इकट्ठा करो।3।

तिसहि = उस (मनुष्य) को। मसतकि = माथे पर।4।

अर्थ: हे मेरे वीर! परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पी (श्वास-श्वास परमात्मा का नाम सिमर। जिसने नाम सिमरा है) उसने सिमर सिमर के (अपने अंदर से विकारों की) सारी सड़न बुझा ली है।1। रहाउ।

(हे मेरे भाई!) साध-संगति में जा के उस परमात्मा का आसरा ले। अपना मन अपना तन (अर्थात अपने हरेक ज्ञानेंद्रियों को) उस परमात्मा के हवाले कर दे।1।

(हे मेरे वीर!) परमात्मा के सेवक के चरणों पे अपना सिर रख दे (इस तरह अपने अंदर से) अहंकार दूर करके जनम मरण के चक्कर समाप्त कर दे।2।

(हे मेरे भाई!) हरेक श्वास के साथ परमात्मा को अपने मन में संभाल के रख। वह (नाम-) धन इकट्ठा कर, जो तेरे साथ निभे।3।

(पर ये नाम-धन इकट्ठा करना जीवों के वश की बात नहीं। ये नाम-धन) उस मनुष्य को ही मिलता है, जिसके माथे पे भाग्य जागे। हे नानक! कह– (हे मेरे भाई!) तू उस मनुष्य के चरणों में लग (जिसे नाम धन मिला हुआ है)।4।57।126।

गउड़ी महला ५ ॥ सूके हरे कीए खिन माहे ॥ अम्रित द्रिसटि संचि जीवाए ॥१॥ काटे कसट पूरे गुरदेव ॥ सेवक कउ दीनी अपुनी सेव ॥१॥ रहाउ ॥ मिटि गई चिंत पुनी मन आसा ॥ करी दइआ सतिगुरि गुणतासा ॥२॥ दुख नाठे सुख आइ समाए ॥ ढील न परी जा गुरि फुरमाए ॥३॥ इछ पुनी पूरे गुर मिले ॥ नानक ते जन सुफल फले ॥४॥५८॥१२७॥ {पन्ना 191}

पद्अर्थ: सूके = सूखे हुए, जिनके अंदर आत्मिक जीवन वाला रस नहीं रहा। माहे = माहि, में। खिन माहि = छिन में। द्रिसटि = निगाह, नजर। संचि = सींच के। जीवाऐ = आत्मिक जीवात्मा डाल दी।1।

कउ = को। दीनी = दी।1। रहाउ।

पुनी = पूरी हो गई। सतिगुरि गुणतासा = गुणों के खजाने सतिगुरू ने।2।

आइ = आ के। समाइ = रच गए। गुरि = गुरू ने।3।

गुर मिले = (जो) गुरू को मिले। ते जन = वह लोग। सुफल = अच्छे फलों वाले।4।

अर्थ: जिस सेवक को (परमात्मा ने) अपनी सेवा-भक्ति (की दाति) दी। पूरे गुरू ने उसके सारे कष्ट काट दिए।1। रहाउ।

आत्मिक जीवन देने वाली निगाह करके गुरू नाम-जल से सींच के जिन्हें आत्मिक जीवन देता है, उन आत्मिक जीवन के रस से वंचित हो चुके मनुष्यों को गुरू एक छिन में हरे (भाव, आत्मिक जीवन वाले) बना देता है।1।

गुणों के खजाने सतिगुरू ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उसकी (हरेक किस्म की) चिंता मिट गई, उसके मन की (हरेक) आस पूरी हो गई।2।

जब गुरू ने जिस मनुष्य पर बख्शिश होने का हुकम किया, थोड़ी सी भी ढील ना हुई, उसके सारे दुख दूर हो गए, उसके अंदर (सारे) सुख आ के टिक गए।3।

हे नानक! जो मनुष्य पूरे गुरू से मिल गए, उनकी (हरेक किस्म की) इच्छा पूरी हो गई, उन्हें उच्च आत्मिक गुणों के सुंदर फल लग गए।4।58।127।

नोट: याद रहे कि असल संख्या 128 होनी चाहिए।

गउड़ी महला ५ ॥ ताप गए पाई प्रभि सांति ॥ सीतल भए कीनी प्रभ दाति ॥१॥ प्रभ किरपा ते भए सुहेले ॥ जनम जनम के बिछुरे मेले ॥१॥ रहाउ ॥ सिमरत सिमरत प्रभ का नाउ ॥ सगल रोग का बिनसिआ थाउ ॥२॥ सहजि सुभाइ बोलै हरि बाणी ॥ आठ पहर प्रभ सिमरहु प्राणी ॥३॥ दूखु दरदु जमु नेड़ि न आवै ॥ कहु नानक जो हरि गुन गावै ॥४॥५९॥१२८॥ {पन्ना 191}

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभू ने। सांति = ठंड, आत्मिक अडोलता। सीतल = ठंडे।1।

ते = से साथ। सुहेले = आसान।1। रहाउ।

सगल = सारे। थाउ = जगह, निशाना।2।

सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम-प्यार में। प्राणी = हे प्राणी!।3।

कहु = कह। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: (जिन मनुष्यों को परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वह मनुष्य) परमात्मा की कृपा से आसान (जीवन वाले) हो जाते हैं, उनको अनेक जन्मों के विछुड़ों को परमात्मा (अपने साथ) मिला लेता है।1। रहाउ।

जिन्हें परमात्मा अपने नाम की दाति देता है वे ठंडे जिगरे वाले बन जाते हैं। परमात्मा ने उनके अंदर ऐसी ठण्ड समा दी होती है कि उनके सारे ताप-कलेश दूर हो जाते हैं।1।

(जिन्हें परमात्मा अपने नाम की दाति देता है) परमात्मा का नाम सिमर सिमर के (उनके अंदर से) सारे रोगों के निशान ही मिट जाते हैं।2।

(जिस मनुष्य को परमात्मा नाम की दाति देता है वह) आत्मिक अडोलता में टिक के प्रेम-प्यार में लीन हो के परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी उचारता रहता है। हे प्राणी! (तू भी उसके दर से नाम की दाति माँग, और) आठों पहर प्रभू का नाम सिमरता रह।3।

हे नानक! कह– (परमात्मा की मेहर से) जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है। कोई दुख दर्द उसके नजदीक नहीं आता, उसे मौत का डर नहीं छूता (आत्मिक मौत का उसे खतरा नहीं रह जाता)।4।59।128।

गउड़ी महला ५ ॥ भले दिनस भले संजोग ॥ जितु भेटे पारब्रहम निरजोग ॥१॥ ओह बेला कउ हउ बलि जाउ ॥ जितु मेरा मनु जपै हरि नाउ ॥१॥ रहाउ ॥ सफल मूरतु सफल ओह घरी ॥ जितु रसना उचरै हरि हरी ॥२॥ सफलु ओहु माथा संत नमसकारसि ॥ चरण पुनीत चलहि हरि मारगि ॥३॥ कहु नानक भला मेरा करम ॥ जितु भेटे साधू के चरन ॥४॥६०॥१२९॥ {पन्ना 191}

पद्अर्थ: दिनस = दिन में। संजोग = मिलाप के अवसर। जितु = जिसके द्वारा। भेटे = मिले। निरजोग = निर्लिप।1।

कउ = को, से। बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ।1। रहाउ।

मूरतु = महूरत, दो घड़ी जितना समय (शब्द ‘मूरति’ और ‘मूरतु’ में फर्क स्मरणीय है)। रसना = जीभ।2।

पुनीत = पवित्र। मारगि = रास्ते पर।3।

करम = भाग्य, किस्मत। जितु = जिसकी बरकत से।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैं उस समय से कुर्बान जाता हूँ जिस समय मेरा मन परमात्मा का नाम जपता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) वे दिन सुहावने होते हैं, वे मिलाप के अवसर सुखदायक होते हैं जब (माया से) निर्लिप प्रभू जी मिल जाते हैं।1।

(हे भाई!) मनुष्य के लिए वह महूरत भाग्यशाली होता है, वह घड़ी अनमोल होती है जब उसकी जीभ परमात्मा का नाम उचारती है।2।

(हे भाई!) वह माथा भी भाग्यशाली है, जो गुरू-संत के चरणों में झुकता है। वह पैर पवित्र हो जाते हैं जो परमात्मा (के मिलाप) के रास्ते पर चलते हैं।3।

हे नानक! कह–मेरे बड़े भाग्य (जाग पड़ते हैं) जब मैं गुरू के चरण परसता हूँ।4।60।128।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh