श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ गुर का सबदु राखु मन माहि ॥ नामु सिमरि चिंता सभ जाहि ॥१॥ बिनु भगवंत नाही अन कोइ ॥ मारै राखै एको सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ गुर के चरण रिदै उरि धारि ॥ अगनि सागरु जपि उतरहि पारि ॥२॥ गुर मूरति सिउ लाइ धिआनु ॥ ईहा ऊहा पावहि मानु ॥३॥ सगल तिआगि गुर सरणी आइआ ॥ मिटे अंदेसे नानक सुखु पाइआ ॥४॥६१॥१३०॥ {पन्ना 192}

पद्अर्थ: भगवंत = भगवान, परमात्मा। अन = अन्य, और। साइ = वही।1। रहाउ।

उरि = उर में, दिल में। धारि = रख के। जपि = जप के।2।

गुर मूरति = गुरू का रूप, गुरू का शबद (‘गुर मूरति गुर सबदु है’ – भाई गुरदास जी)।

नोट: मनुष्य मनुष्य के नैन–नक्श में तो प्रत्यक्ष फर्क दिखता है, पर पैरों में फर्क करना बहुत कठिन है। अगर गुरू–व्यक्तियों की तसवीर का ध्यान धरने की हिदायत समझी जाए, तो गुरू ग्रंथ साहिब में अनेकों बार गुरू के चरणों का ही जिक्र है। शब्द ‘गुर–मूरति’ तो एक–दो बार ही आया है। परमात्मा के चरणों का ध्यान धरना भी कई बार लिखा मिलता है। इसका भाव ये है कि हृदय में से अहंकार निकाल के हरी–नाम में सुरति जोड़नी है, या, गुरू के शबद में जुड़ना है।

सिउ = से। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में।3।

सगल = सारे (आसरे)। अंदेसे = फिक्र।4।

अर्थ: (हे भाई!) भगवान के बिना (जीवों का) और कोई आसरा नहीं है। वह भगवान ही (जीवों को) मारता है। वह भगवान ही (जीवों को) पालता है।1। रहाउ।

(हे भाई! अगर उस भगवान का आसरा मन में दृढ़ करना है, तो) गुरू का शबद (अपने) मन में टिकाए रख। (गुरू-शबद की सहायता से भगवान का) नाम सिमर, तेरे सारे चिंता-फिक्र दूर हो जाएंगे।1।

(हे भाई! अगर भगवान का आसरा लेना है तो) अपने हृदय में दिल में गुरू के चरण बसा (भाव, निम्रता से गुरू की शरण पड़)। (गुरू के बताए हुए राह पर चल के परमात्मा का नाम) जप के तू (तृष्णा की) आग के समुंद्र से पार लांघ जाएगा।2।

(हे भाई! गुरू का शबद ही गुरू की मूरति है, गुरू का स्वरूप है) गुरू के शबद से अपनी सुरति जोड़, तू इस लोक में और परलोक में आदर हासिल करेगा।3।

हे नानक! जो मनुष्य अन्य सारे आसरे छोड़ के गुरू की शरण आता है, उसके सारे चिंता-फिक्र समाप्त हो जाते हैं, वह आत्मिक आनंद भोगता है।4।61।130।

गउड़ी महला ५ ॥ जिसु सिमरत दूखु सभु जाइ ॥ नामु रतनु वसै मनि आइ ॥१॥ जपि मन मेरे गोविंद की बाणी ॥ साधू जन रामु रसन वखाणी ॥१॥ रहाउ ॥ इकसु बिनु नाही दूजा कोइ ॥ जा की द्रिसटि सदा सुखु होइ ॥२॥ साजनु मीतु सखा करि एकु ॥ हरि हरि अखर मन महि लेखु ॥३॥ रवि रहिआ सरबत सुआमी ॥ गुण गावै नानकु अंतरजामी ॥४॥६२॥१३१॥ {पन्ना 192}

पद्अर्थ: मनि = मन में।1।

मन = हे मन! साधू जन = गुरमुखों ने। रसन = जीभ से।1। रहाउ।

द्रिसटि = दृष्टि, निगाह।2।

सखा = मित्र। करि = बना। लेखु = लिख, उकर ले।3।

रवि रहिआ = व्यापक है। सरबत = सर्वत्र, हर जगह। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।

अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी का उच्चारण कर। (इस बाणी से ही) संत जन अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाते हैं।1। रहाउ।

(हे भाई! उस गोबिंद की बाणी जप) जिसका सिमरन करने से हरेक किस्म के दुख दूर हो जाते हैं (और, बाणी की बरकति से) परमात्मा का अमोलक नाम मन में आ बसता है।1।

(हे भाई! उस गोबिंद की सिफत सालाह करता रह) जिसकी मेहर की निगाह से सदा आत्मिक आनंद मिलता है, और, जिसके बराबर का कोई नहीं है।2।

(हे भाई! उस) एक गोबिंद को अपना सज्जन-मित्र साथी बना, और उस हरी की सिफत सालाह के अक्षर (संस्कार) अपने मन में उकर ले (लिख)।3।

(हे भाई! सारे जगत का वह) मालिक हर जगह व्यापक है और हरेक के दिल की जानता है, नानक (भी) उस अंतरजामी स्वामी के गुण गाता है।4।62।131।

गउड़ी महला ५ ॥ भै महि रचिओ सभु संसारा ॥ तिसु भउ नाही जिसु नामु अधारा ॥१॥ भउ न विआपै तेरी सरणा ॥ जो तुधु भावै सोई करणा ॥१॥ रहाउ ॥ सोग हरख महि आवण जाणा ॥ तिनि सुखु पाइआ जो प्रभ भाणा ॥२॥ अगनि सागरु महा विआपै माइआ ॥ से सीतल जिन सतिगुरु पाइआ ॥३॥ राखि लेइ प्रभु राखनहारा ॥ कहु नानक किआ जंत विचारा ॥४॥६३॥१३२॥ {पन्ना 192}

पद्अर्थ: भै महि = डर में (शब्द ‘भउ’ किसी संबंधक के साथ ‘भै’ बन जाता है)। रचिओ = रचा हुआ है। तिसु = उस (मनुष्य) को। अधारा = आसरा।1।

न विआपै = जोर नहीं डालता।1। रहाउ।

सोग = ग़म, दुख। हरख = खुशी। आवण जाणा = (भय का) आना जाना। प्रभ भाणा = प्रभू को भाता है। तिनि = उस (मनुष्य) को।2।

अगनि सागरु = आग का समुंद्र। से = वह लोग।3।

राखि लेइ = रख लेता है।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरी शरण पड़ने से (तेरा पल्ला पकड़ने से) कोई डर अपना जोर नहीं डाल सकता (क्योंकि, फिर ये निष्चय बन जाता है कि) वही काम किया जा सकता है जो (हे प्रभू!) तुझे ठीक लगता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) सारा संसार (किसी न किसी) डर-सहम के नीचे दबा रहता है, सिर्फ उस मनुष्य पर (कोई) डर अपना जोर नहीं डाल सकता जिसे (परमात्मा का) नाम (जीवन के वास्ते) सहारा मिला हुआ है।1।

दुख मानने में या खुशी मनाने में (संसारी जीव के वास्ते डर-सहम का) आना जाना बना रहता है। सिर्फ उस मनुष्य ने (स्थाई) आत्मिक आनंद प्राप्त किया है जो प्रभू को प्यारा लगता है (जो प्रभू की रजा में चलता है)।2।

(हे भाई! ये संसार तृष्णा की) आग का समुंद्र है (इस में जीवों पे) माया अपना जोर डाले रखती है। जिन (भाग्यशालियों) को सत्गुरू मिल जाता है, वह (इस अग्नि सागर में विचरते हुए भी उनकी अंतरात्मा) शीतलता से (ठहराव) सहज में टिकी रहती है।3।

(पर) हे नानक! (डर सहम से बचने के लिए, अग्नि सागर के विकारों के सेक से बचने के लिए) जीवों बिचारों की क्या बिसात है? बचाने की ताकत रखने वाला परमात्मा स्वयं ही बचाता है (इस वास्ते हे नानक! उस परमात्मा का पल्ला पकड़े रख)।4।63।132।

गउड़ी महला ५ ॥ तुमरी क्रिपा ते जपीऐ नाउ ॥ तुमरी क्रिपा ते दरगह थाउ ॥१॥ तुझ बिनु पारब्रहम नही कोइ ॥ तुमरी क्रिपा ते सदा सुखु होइ ॥१॥ रहाउ ॥ तुम मनि वसे तउ दूखु न लागै ॥ तुमरी क्रिपा ते भ्रमु भउ भागै ॥२॥ पारब्रहम अपर्मपर सुआमी ॥ सगल घटा के अंतरजामी ॥३॥ करउ अरदासि अपने सतिगुर पासि ॥ नानक नामु मिलै सचु रासि ॥४॥६४॥१३३॥ {पन्ना 192}

पद्अर्थ: ते = से, साथ। जपीअै = जपा जा सकता है। दरगह = (तेरी) हजूरी में। थाउ = जगह, इज्जत।1।

पारब्रहम = हे पारब्रह्म प्रभू! सुखु = आत्मिक आनंद।1। रहाउ।

मनि = मन में। तउ = तो। न लागै = छू नहीं सकता। भ्रम = भटकना।

अपरंपर = हे बेअंत! घट = घड़ा,शरीर। अंतरजामी = हे दिल की जानने वाले!।3।

करउ = मैं करता हूँ। नानक मिलै = नानक को मिले। सचु = सदा कायम रहने वाला। रासि = सरमाया।4।

अर्थ: हे पारब्रह्म प्रभू! तरे बगैर (जीवों का और) कोई (आसरा) नहीं है। तेरी कृपा से ही (जीव को) सदा के लिए आत्मिक आनंद मिल सकता है।1। रहाउ।

(हे पारब्रह्म प्रभू !) तेरी मेहर से ही (तेरा) नाम जपा जा सकता है। तेरी कृपा से ही तेरी दरगाह में (जीव को) आदर मिल सकता है।1।

(हे पारब्रह्म प्रभू!) अगर तू (जीव के) मन में आ बसे तो (जीवों को कोई) दुख छू नहीं सकता। तेरी मेहर से जीव की भटकना दूर हो जाती है, जीव का डर सहम भाग जाता है।2।

हे पारब्रह्म प्रभू! हे बेअंत प्रभू! हे जगत के मालिक प्रभू! हे सारे जीवों के दिल की जानने वाले प्रभू!।3।;

(अगर तेरी मेहर हो तो ही) मैं अपने गुरू के आगे (ये) अरदास कर सकता हूँ कि मुझे नानक को प्रभू का नाम मिले (नानक वास्ते नाम ही) सदा कायम रहने वाला सरमाया है।4।64।133।

गउड़ी महला ५ ॥ कण बिना जैसे थोथर तुखा ॥ नाम बिहून सूने से मुखा ॥१॥ हरि हरि नामु जपहु नित प्राणी ॥ नाम बिहून ध्रिगु देह बिगानी ॥१॥ रहाउ ॥ नाम बिना नाही मुखि भागु ॥ भरत बिहून कहा सोहागु ॥२॥ नामु बिसारि लगै अन सुआइ ॥ ता की आस न पूजै काइ ॥३॥ करि किरपा प्रभ अपनी दाति ॥ नानक नामु जपै दिन राति ॥४॥६५॥१३४॥ {पन्ना 192}

पद्अर्थ: कण = दाने। थोथर = खाली। तुखा = तोह, बल्ली। बिहून = बगैर। सूने = सूना।1।

प्राणी = हे प्राणी! ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। देह = शरीर। बिगानी = पराई।1। रहाउ।

मुखि = माथे पर। भागु = अच्छी किस्मत। भरत = पति, भरता। सोहागु = सौभाग्य, सुहाग।2।

बिसारि = भुला के। अन = अन्य, और। सुआइ = स्वाद में। काइ = कोई भी। न पूजै = सिरे नहीं चढ़ती।3।

प्रभ = हे प्रभू! नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे प्राणी! सदा परमात्मा का नाम सिमरते रहो। परमात्मा के नाम के बिना ये शरीर जो आखिर पराया हो जाता है (जो मौत आने पर छोड़ना पड़ता है) धिक्कार-योग (कहा जाता) है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जैसे दानों के बगैर खाली तोह (किसी काम नहीं आते, इसी तरह) वो मुँह सूने हैं जो परमात्मा का नाम जपने के बिना हैं।1।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम जपे बिना किसी के माथे के भाग्य नहीं खुलते। पति के बिना (स्त्री का) सुहाग नहीं हो सकता।2।

(हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा का नाम भुला के और ही स्वादों में उलझा रहता है, उसकी कोई उम्मीद सिरे नहीं चढ़ती।3।

हे नानक! (कह–) हे प्रभू! मेहर करके तू जिस मनुष्य को अपने नाम की दाति बख्शता है वही दिन रात तेरा नाम जपता है।4।65।134।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh