श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 193 गउड़ी महला ५ ॥ तूं समरथु तूंहै मेरा सुआमी ॥ सभु किछु तुम ते तूं अंतरजामी ॥१॥ पारब्रहम पूरन जन ओट ॥ तेरी सरणि उधरहि जन कोटि ॥१॥ रहाउ ॥ जेते जीअ तेते सभि तेरे ॥ तुमरी क्रिपा ते सूख घनेरे ॥२॥ जो किछु वरतै सभ तेरा भाणा ॥ हुकमु बूझै सो सचि समाणा ॥३॥ करि किरपा दीजै प्रभ दानु ॥ नानक सिमरै नामु निधानु ॥४॥६६॥१३५॥ {पन्ना 193} पद्अर्थ: समरथु = स्मर्थ, सारी ताकतों का मालिक, सब कुछ करने योग्य। सुआमी = मालिक। तुम ते = तुझ से, तेरी मर्जी से। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।1। पारब्रहम = हे पारब्रह्म प्रभू! पूरन = हे सर्व व्यापक प्रभू! जन = सेवक। उधरहि = (संसार समुंद्र से) बच जाते हैं। कोटि = करोड़ों।1। रहाउ। जेते तेते = जितने भी हैं वे सारे। तेते = उतने, तितने। सभि = सारे। घनेरे = अनेकों।2। तेरा भाणा = तेरी रजा, जो कुछ तुझे पसंद आता है। सचि = सदा स्थिर नाम में।3। प्रभ = हे प्रभू! नानक = हे नानक! निधानु = खजाना।4। अर्थ: हे सर्व-व्यापक पारब्रह्म प्रभू! तेरे सेवकों को तेरा ही आसरा होता है। करोड़ों ही मनुष्य तेरी शरण पड़ कर (संसार समुंद्र से) बच जाते हैं।1। रहाउ। (हे पारब्रह्म!) तू सब ताकतों का मालिक है, तू ही मेरा मालिक है (मुझे तेरा ही आसरा है)। तू सबके दिल की जानने वाला है। जो कुछ जगत में हो रहा है तेरी प्रेरणा से ही हो रहा है।1। (हे पारब्रह्म! जगत में) जितने भी जीव हैं, सारे तेरे ही पैदा किए हुए हैं। तेरी मेहर से ही (जीवों को) अनेकों सुख मिल रहे हैं।2। (हे पारब्रहम्! संसार में) जो कुछ घटित हो रहा है, वही घटित होता है जो तुझे अच्छा लगता है। जो मनुष्य तेरी रजा को समझ लेता है, वह तेरे सदा स्थिर रहने वाले नाम में लीन रहता है।3। हे नानक! (कह–) हे प्रभू! मेहर कर के अपने नाम की दाति बख्श, ता कि तेरा दास नानक तेरा नाम सिमरता रहे (तेरा नाम ही तेरे दास के वास्ते सब सुखों का) खजाना है।4।66।135। गउड़ी महला ५ ॥ ता का दरसु पाईऐ वडभागी ॥ जा की राम नामि लिव लागी ॥१॥ जा कै हरि वसिआ मन माही ॥ ता कउ दुखु सुपनै भी नाही ॥१॥ रहाउ ॥ सरब निधान राखे जन माहि ॥ ता कै संगि किलविख दुख जाहि ॥२॥ जन की महिमा कथी न जाइ ॥ पारब्रहमु जनु रहिआ समाइ ॥३॥ करि किरपा प्रभ बिनउ सुनीजै ॥ दास की धूरि नानक कउ दीजै ॥४॥६७॥१३६॥ {पन्ना 193} पद्अर्थ: राम नामि = राम के नाम में। लिव = लगन।1। माही = में, माहि। ता कउ = उस (मनुष्य) को।1। रहाउ। निधान = खजाने। किलविख = पाप।2। महिमा = वडिआई, बड़प्पन, आत्मिक उच्चता। जनु = सेवक।3। प्रभ = हे प्रभू! बिनउ = विनती। सुनीअै = सुनो। कउ = को।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में (सदा) परमात्मा (का नाम) बसा रहता है, उस मनुष्य को कभी सपने में भी (कोई) दुख छू नहीं सकता।1। रहाउ। (हे भाई!) जिस मनुष्य की लगन परमात्मा के नाम में लगी रहती है, उसका दर्शन बड़े भाग्यों से मिलता है।1। (हे भाई! नाम की लगन वाले) सेवक (के हृदय में) (परमात्मा) सारे (आत्मिक गुणों के) खजाने डाल के रखता है। ऐसे सेवक की संगति में रहने से पाप और दुख दूर हो जाते हैं।2। (हे भाई! ऐसे) सेवक की आत्मिक उच्चता बयान नहीं की जा सकती। वह सेवक उस पारब्रहम् का रूप बन जाता है जो सब जीवों में व्यापक है।3। (हे नानक! कह–) हे प्रभू! मेरी विनती सुन। मेहर करके मुझ नानक को अपने ऐसे सेवक के चरणों की धूड़ दे।4।67।136। गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत तेरी जाइ बलाइ ॥ सरब कलिआण वसै मनि आइ ॥१॥ भजु मन मेरे एको नाम ॥ जीअ तेरे कै आवै काम ॥१॥ रहाउ ॥ रैणि दिनसु गुण गाउ अनंता ॥ गुर पूरे का निरमल मंता ॥२॥ छोडि उपाव एक टेक राखु ॥ महा पदारथु अम्रित रसु चाखु ॥३॥ बिखम सागरु तेई जन तरे ॥ नानक जा कउ नदरि करे ॥४॥६८॥१३७॥ {पन्ना 193} पद्अर्थ: जाइ = चली जाएगी। बलाइ = वैरन। कलिआण = सुख। सरब कलिआण = सारे ही सुख।1। मन मेरे = हे मेरे मन! जीअ कै कामि = जीवात्मा के काम।1। रहाउ। रैणि = रात। गुण अनंता = बेअंत प्रभू के गुण। निरमल = पवित्र। मंता = उपदेश।2। उपाव = (‘उपाउ’ का बहुवचन) उपाय। टेक = आसरा। महा पदारथु = सब से श्रेष्ठ पदार्थ।3। बिखम = विषम, मुश्किल। तेई जन = वही लोग। नदरि = निगाह।4। अर्थ: हे मेरे मन! एक परमात्मा का ही नाम सिमरता रह। ये नाम ही तेरी जीवात्मा के काम आएगा (जिंद के साथ निभेगा)।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा का सिमरन करते हुए तेरी वैरन (माया डायन) तुझसे परे हट जाएगी। (अगर परमात्मा का नाम तेरे) मन में आ बसे तो (तेरे अंदर) सारे सुख (आ बसेंगे)।1। (हे भाई!) पूरे गुरू का पवित्र उपदेश ले, और दिन रात बेअंत परमात्मा के गुण गाया कर।2। (हे भाई! संसार समुंद्र से पार लांघने के लिए) और सारे तरीके छोड़, और एक परमात्मा (के नाम) का आसरा रख। आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस चख - यही है सब पदार्थों से श्रेष्ठ पदार्थ।3। हे नानक! वही मनुष्य मुश्किल (संसार) समुंद्र से (आत्मिक पूँजी समेत) पार लांघते हैं, जिन पे (परमात्मा खुद मेहर की) नजर करता है।4।68।137। गउड़ी महला ५ ॥ हिरदै चरन कमल प्रभ धारे ॥ पूरे सतिगुर मिलि निसतारे ॥१॥ गोविंद गुण गावहु मेरे भाई ॥ मिलि साधू हरि नामु धिआई ॥१॥ रहाउ ॥ दुलभ देह होई परवानु ॥ सतिगुर ते पाइआ नाम नीसानु ॥२॥ हरि सिमरत पूरन पदु पाइआ ॥ साधसंगि भै भरम मिटाइआ ॥३॥ जत कत देखउ तत रहिआ समाइ ॥ नानक दास हरि की सरणाइ ॥४॥६९॥१३८॥ {पन्ना 193} पद्अर्थ: चरन कमल प्रभ = प्रभू के कमल फूलों जैसे सुंदर चरण। सतिगुर मिलि = गुरू को मिल के। निसतारे = (संसार समुंद्र से) पार लांघ गए।1। भाई = हे भाई! साधू = गुरू। धिआई = ध्यान लगा के, सिमर।1। रहाउ। देह = शरीर, मानस शरीर। दुलभ = जो बड़ी मुश्किल से मिलता है। ते = से। नीसानु = परवाना, राहदारी।2। पूरन पदु = वह आत्मिक दर्जा जहाँ किसी कमी की गुँजाइश नहीं रहती। संगि = संगति में।3। जत कत = जिधर किधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = तत्र, उधर (ही)।4। अर्थ: हे मेरे भाई! गोबिंद की सिफत सालाह के गीत गाते रहो। गुरू को मिल के परमात्मा का नाम सिमरो।1। रहाउ। (हे मेरे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के चरण अपने हृदय में टिकाते हैं, पूरे सतगुरू को मिल के वह (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं। (हे मेरे भाई! जिन मनुष्यों ने इस जीवन सफर में) सत्गुरू से परमात्मा के नाम की राहदारी हासिल कर ली है, उनका मानस शरीर- बड़ी कठनाई से मिली हुई मनुष्य देह- (परमात्मा की नजरों में) कबूल हो जाती है।2। (हे मेरे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरते हुए वह मनुष्य वह आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है, जहाँ किसी कमी की संभावना नहीं रह जाती। साध-संगति में रह के मनुष्य सारे डर सारी ही भटकनें मिटा लेता है। हे नानक! (कह– हे मेरे भाई!गुरू की शरण की बरकति से) मैं जिधर भी देखता हूँ, उधर ही परमात्मा व्यापक दिखता है। (हे भाई! प्रभू के) सेवक प्रभू की शरण में ही टिके रहते हैं।4।69।138। गउड़ी महला ५ ॥ गुर जी के दरसन कउ बलि जाउ ॥ जपि जपि जीवा सतिगुर नाउ ॥१॥ पारब्रहम पूरन गुरदेव ॥ करि किरपा लागउ तेरी सेव ॥१॥ रहाउ ॥ चरन कमल हिरदै उर धारी ॥ मन तन धन गुर प्रान अधारी ॥२॥ सफल जनमु होवै परवाणु ॥ गुरु पारब्रहमु निकटि करि जाणु ॥३॥ संत धूरि पाईऐ वडभागी ॥ नानक गुर भेटत हरि सिउ लिव लागी ॥४॥७०॥१३९॥ {पन्ना 193} पद्अर्थ: बलि जाउ = मैं सदके जाता हूँ। जीवा = जीऊूं, मैं जी पड़ता हूँ, मेरे अंदर उच्च आत्मिक अवस्था पैदा होती है।1। पारब्रहम् = हे पारब्रहम्! लगउ = मैं लगा रहूँ।1। रहाउ। उर = उरस्, हृदय। गुर = गुर (चरण), गुरू के चरण। अधारी = आसरा।2। परवाणु = प्रवान, कबूल। निकटि = नजदीक।3। संत धूरि = गुरू संत के चरणों की धूड़। गुर भेटत = गुरू को मिल के।4। अर्थ: हे पूरन पारब्रहम्! हे गुरदेव! कृपा कर, मैं तेरी सेवा भक्ति में लगा रहूँ।1। रहाउ। (हे भाई!) मैं सत्गुरू जी के दर्शन से सदके जाता हूँ। सतिगुरू जी का नाम याद करके मेरे अंदर उच्च आत्मिक जीवन पैदा होता है।1। (इस वास्ते, हे भाई! गुरू के) सुंदर चरण मैं अपने मन में हृदय में टिकाता हूँ। गुरू के चरण मेरे मन का, मेरे तन का, मेरे धन का, मेरी जीवात्मा का आसरा हैं।2। (हे भाई!) गुरू को पारब्रहम् प्रभू को (सदा अपने) नजदीक बसता समझ। (इस तरह तेरा मानस) जनम कामयाब हो जाएगा। तू (परमात्मा की हजूरी में) कबूल हो जाएगा।3। हे नानक! गुरू संत के चरणों की धूड़ बड़े भाग्यों से मिलती है। गुरू को मिलने से परमात्मा (के चरणों) के साथ लगन लग जाती है।4।70।139। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |