श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ करै दुहकरम दिखावै होरु ॥ राम की दरगह बाधा चोरु ॥१॥ रामु रमै सोई रामाणा ॥ जलि थलि महीअलि एकु समाणा ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि बिखु मुखि अम्रितु सुणावै ॥ जम पुरि बाधा चोटा खावै ॥२॥ अनिक पड़दे महि कमावै विकार ॥ खिन महि प्रगट होहि संसार ॥३॥ अंतरि साचि नामि रसि राता ॥ नानक तिसु किरपालु बिधाता ॥४॥७१॥१४०॥ {पन्ना 194}

पद्अर्थ: दुहकरम = दुष्कर्म, बुरे काम। होर = (अपने जीवन का) दूसरा पक्ष।1।

रमै = सिमरता है। रामाणा = राम का (सेवक)। जलि = जल में। थलि = धरती। महीअलि = मही+तल, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में, आकाश में।1। रहाउ।

बिखु = जहर। मुखि = मुंह से। जमपुरि = यम की पुरी में। पुरि = पुर में, शहर में।2।

संसारि = संसार में। होहि = हो जाते हैं।3।

साचि नामि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू नाम में। रसि = रस में। बिधाता = सृजनहार प्रभू!।4।

अर्थ: (हे भाई!) वही मनुष्य राम का (सेवक माना जाता है) जो राम को सिमरता है। (उस मनुष्य को निश्चय हो जाता है कि) राम, जल में, धरती में, आकाश में हर जगह व्यापक है।1। रहाउ।

(पर, जो सिमरन-हीन मनुष्य राम को सर्व-व्यापक नहीं प्रतीत करता, वह अंदर छुप के) बुरे कर्म कमाता है (बाहर जगत को अपने जीवन का) दूसरा पक्ष दिखाता है (जैसे चोर सेंध में रंगे हाथों पकड़ा जाता है, और फंस जाता है, वैसे ही) वह परमातमा की दरगाह में चोर की भांति बांधा जाता है।1।

(सिमरन-हीन रह के) परमात्मा को हर जगह ना बसता जानने वाला मनुष्य अपने मुंह से (लोगों को) आत्मिक जीवन देने वाला उपदेश सुनाता है (पर उसके) अंदर (विकारों की) जहर है। (जिसने उसके अपने आत्मिक जीवन को मार दिया है, ऐसा मनुष्य) यम की पुरी में बाँधा हुआ चोटें खाता है (आत्मिक मौत के वश में पड़ा अनेको विकारों की चोटें सहता हैं)।2।

(सिमरन-हीन मनुष्य परमात्मा को अंग-संग ना जानता हुआ) अनेकों पदार्थों पीछे (लोगों से छुपा के) विकार कर्म कमाता है, पर (उसके कुकर्म) जगत के अंदर एक छिन में ही प्रगट हो जाते हैं।3।

हे नानक! जो मनुष्य अपने अंदर सदा स्थिर हरी नाम में जुड़ा रहता है, परमात्मा के प्रेम-रस में भीगा रहता है, सृजनहार प्रभू उस पर दयावान होता है।4।71।140।

गउड़ी महला ५ ॥ राम रंगु कदे उतरि न जाइ ॥ गुरु पूरा जिसु देइ बुझाइ ॥१॥ हरि रंगि राता सो मनु साचा ॥ लाल रंग पूरन पुरखु बिधाता ॥१॥ रहाउ ॥ संतह संगि बैसि गुन गाइ ॥ ता का रंगु न उतरै जाइ ॥२॥ बिनु हरि सिमरन सुखु नही पाइआ ॥ आन रंग फीके सभ माइआ ॥३॥ गुरि रंगे से भए निहाल ॥ कहु नानक गुर भए है दइआल ॥४॥७२॥१४१॥ {पन्ना 194}

पद्अर्थ: राम रंगु = परमात्मा (के प्यार) का रंग। देइ बुझाइ = समझा दे, सूझ डाल दे।1।

रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। साचा = सदा कायम रहने वाला, पक्के रंग वाला, जिस पर कोई और रंग अपना असर ना कर सके। बिधाता = सृजनहार।1। रहाउ।

संतह संगि = संतों की संगति में। बैसि = बैठ के।2।

आन = अन्य। फीके = कच्चे, बेस्वादे।3।

गुरि = गुरू ने। से = वह लोग (बहुवचन)। निहाल = प्रसन्न, खिले हुए जीवन वाले।4।

अर्थ: जो मन परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगा जाता है, उस पर (माया का) कोई और रंग अपना असर नहीं डाल सकता, वह (मानो) गहरे लाल रंग वाला हो जाता है, वह सर्व-व्यापक सृजनहार का रूप हो जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) परमात्मा के प्यार का रंग (अगर किसी भाग्यशाली के मन पर चढ़ जाए तो फिर) कभी (उस मन से) उतरता नहीं, दूर नहीं होता।1।

(हे भाई! जो मनुष्य) संत जनों की संगति में बैठ के परमात्मा के गुण गाता है (सिफत सालाह करता है, उसके मन को परमात्मा के प्यार का रंग चढ़ जाता है, और) उसका वह रंग कभी नहीं उतरता।2।

(हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरे बिना (कभी किसी ने) आत्मिक आनंद नहीं पाया। (हे भाई!) माया (के स्वादों) के अन्य सभी रंग उतर जाते हैं (माया के स्वादों से मिलने वाले सुख होछे होते हैं)।3।

हे नानक! कह– जिन पे सतिगुरू जी दयावान होते हैं जिन्हें गुरू ने परमात्मा के प्रेम रंग में रंग दिया है, वह सदा खिले जीवन वाले रहते हैं।4।72।141।

नोट: पाठक याद रखें कि यहाँ पिछले सिलसिले के मुताबिक बड़ा अंक 142 चाहिए था। गिनती में एक की कमी चली आ रही है।

गउड़ी महला ५ ॥ सिमरत सुआमी किलविख नासे ॥ सूख सहज आनंद निवासे ॥१॥ राम जना कउ राम भरोसा ॥ नामु जपत सभु मिटिओ अंदेसा ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि कछु भउ न भराती ॥ गुण गोपाल गाईअहि दिनु राती ॥२॥ करि किरपा प्रभ बंधन छोट ॥ चरण कमल की दीनी ओट ॥३॥ कहु नानक मनि भई परतीति ॥ निरमल जसु पीवहि जन नीति ॥४॥७३॥१४२॥ {पन्ना 194}

पद्अर्थ: सिमरत = सिमरन करते हुए। किलविख = पाप। सहज = आत्मिक अडोलता। निवासे = बस जाते हैं।1।

कउ = को। जपत = जपते हुए। सभु अंदेसा = सारा फिक्र।1। रहाउ।

साध संगि = साध-संगति में। भराती = भटकना। गाइअहि = गाए जाते हैं।2।

प्रभ बंधन छोट = माया के बंधनों से खलासी देने वाले प्रभू जी ने। ओट = सहारा।3।

मनि = मन में। परतीति = श्रद्धा। जसु = सिफत सालाह (का जल)। नीति = सदा।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के सेवकों को (हर वक्त) परमात्मा (की सहायता) का भरोसा बना रहता है, (इस वास्ते) परमात्मा का नाम जपते हुए (उनके अंदर से) हरेक फिक्र मिटा रहता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) मालिक-प्रभू का नाम सिमरते हुए (परमात्मा के सेवकों के सारे) पाप नाश हो जाते है, (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता के सुखों के आनंदों का निवास बना रहता है।1।

(हे भाई!) साध-संगति में रहने के कारण (परमात्मा के सेवकों को) कोई डर नहीं छू सकता, कोई भटकना नहीं भटका सकती। (क्योंकि, परमात्मा के सेवकों के हृदय में) दिन रात गोपाल प्रभू के गुण गाए जाते हैं (उनके अंदर हर समय सिफत सालाह टिकी रहती है)।2।

(हे भाई!) माया के बंधनों से खलासी देने वाले प्रभू जी ने मेहर करके (अपने सेवकों को अपने) सुंदर चरणों का सहारा (सदा) बख्शा होता है।3।

(इस वास्ते) हे नानक! कह– (परमात्मा के सेवकों के) मन में (परमात्मा की ओट आसरे का) निश्चय बना रहता है, और परमात्मा के सेवक सदा (जीवन को) पवित्र करने वाला सिफत सालाह का अमृत पीते रहते हैं।4।73।142।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि चरणी जा का मनु लागा ॥ दूखु दरदु भ्रमु ता का भागा ॥१॥ हरि धन को वापारी पूरा ॥ जिसहि निवाजे सो जनु सूरा ॥१॥ रहाउ ॥ जा कउ भए क्रिपाल गुसाई ॥ से जन लागे गुर की पाई ॥२॥ सूख सहज सांति आनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥३॥ नाम रासि साध संगि खाटी ॥ कहु नानक प्रभि अपदा काटी ॥४॥७४॥१४३॥ {पन्ना 194}

पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। ता का = उस (मनुष्य) का।1।

को = का। वापारी = वणज करने वाला। पूरा = अडोल चित्त, जिस पर कोई कमी अपना प्रभाव ना डाल सके। जिसहि = जिस (मनुष्य) को। निवाजे = इज्जत बख्शता है, मेहर करता है। सूरा = सूरमा, शूरवीर, विकारों का टकराव करने के स्मर्थ।1। रहाउ।

कउ = को (शब्द ‘को’ और ‘कउ’ का फर्क साद रखने के योग्य है)। गुसाई = धरती का मालिक, प्रभू। पाई = पांय, पैरों पर।2।

सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। जीवे = उच्च आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं। परमानंद = सबसे उच्च आत्मिक आनंद का मालिक प्रभू।3।

रासि = पूँजी, सरमाया, धन। खाटी = कमा ली। प्रभि = प्रभू ने। अपदा = बिपता, मुसीबत।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम-धन का व्यापार करने वाला मनुष्य अडोल हृदय का मालिक बन जाता है (उस पर कोई विकार अपना प्रभाव नहीं डाल सकते, क्योंकि) जिस मनुष्य पर परमात्मा अपने नाम-धन की दाति की मेहर करता है वह मनुष्य (विकारों से टकराव करने वाला) शूरवीर बन जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई!परमात्मा की मेहर से) जिस मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में लग जाता है उसका हरेक दुख दर्द दूर हो जाता है, उस की (माया आदि वाली) भटकना समाप्त हो जाती है।1।

(पर, हे भाई! नाम-धन की दाति गुरू के द्वारा ही मिलती है और) जिन मनुष्यों पर धरती के मालिक प्रभू जी दयावान होते हैं, वह मनुष्य गुरू के चरणों में आ लगते हैं (गुरू की शरण पड़ते हैं)।2।

(हे भाई!) सब से ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभू को सिमर-सिमर के मनुष्य आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, फिर उनके अंदर सदा सुख शांति और आत्मिक अडोलता के आनंद बने रहते हैं।3।

हे नानक! कह–जिस मनुष्य ने साध-संगति में टिक के परमात्मा के नाम-धन की राशि कमा ली है, परमात्मा ने उसकी हरेक किस्म की बिपता दूर कर दी है।4।74।143।

गउड़ी महला ५ ॥ हरि सिमरत सभि मिटहि कलेस ॥ चरण कमल मन महि परवेस ॥१॥ उचरहु राम नामु लख बारी ॥ अम्रित रसु पीवहु प्रभ पिआरी ॥१॥ रहाउ ॥ सूख सहज रस महा अनंदा ॥ जपि जपि जीवे परमानंदा ॥२॥ काम क्रोध लोभ मद खोए ॥ साध कै संगि किलबिख सभ धोए ॥३॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ नानक दीजै साध रवाला ॥४॥७५॥१४४॥ {पन्ना 194}

पद्अर्थ: सभि = सारे। मिटहि = मिट जाते हैं। चरण कमल = कमल फूल जैसे सुंदर चरण। परवेस = टिकाए रख।1।

लख बारी = लाखों बार। प्रभ दा = प्रभू का। पिआरी = हे प्यारी जीभ!1। रहाउ।

सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। जीवे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। परमानंदा = सबसे ऊँचे आत्मिक आनंद के मालिक प्रभू!2।

मद = अहंकार। खोऐ = नाश कर लिए। संगि = संगति में। किलबिख = पाप।3।

करि किरपा = कृपा कर। प्रभ = हे प्रभू! रवाला = चरण धूड़।4।

अर्थ: हे प्यारी जीभ! (तू ) लाखों बार परमात्मा का नाम उचारती रह और परमात्मा का आत्मिक जीवन वाला नाम-रस पीती रह।1। रहाउ।

(हे भाई!) अपने मन में परमात्मा के सुंदर चरण बसाए रख। परमात्मा का नाम सिमरने से मन के सारे कलेश मिट जाते हैं।1।

(हे भाई!) जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद के मालिक-प्रभू का नाम जपते हैं, वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेते हैं, उनके अंदर आत्मिक अडोलता के बड़े सुख आनंद बने रहते हैं।2।

(हे भाई!नाम-रस पीने वाले मनुष्य अपने अंदर से) काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार (आदि विकारों का) नाश कर लेते हैं। गुरू की संगति में रह के वह (अपने मन में से) सारे पाप धो लेते हैं।3।

हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! मेहर कर और नानक को गुरू के चरणों की धूड़ बख्श।4।75।144।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh