श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 195 गउड़ी महला ५ ॥ जिस का दीआ पैनै खाइ ॥ तिसु सिउ आलसु किउ बनै माइ ॥१॥ खसमु बिसारि आन कमि लागहि ॥ कउडी बदले रतनु तिआगहि ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभू तिआगि लागत अन लोभा ॥ दासि सलामु करत कत सोभा ॥२॥ अम्रित रसु खावहि खान पान ॥ जिनि दीए तिसहि न जानहि सुआन ॥३॥ कहु नानक हम लूण हरामी ॥ बखसि लेहु प्रभ अंतरजामी ॥४॥७६॥१४५॥ {पन्ना 195} पद्अर्थ: पैनै = पहिनता है। खाइ = खाता है। किउ बनै = कैसे बने, कैसे फॅब सकता है? नहीं फॅबता। माइ = हे माँ! जिस का: शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। बिसारि = भुला के। आन = अन्य। कंमि = काम में। लागहि = लगते हैं।1। रहाउ। तिआगि = त्याग के। दासि = दासी, माया। कत = कहाँ?।2। खावहि = खाते हैं। जिनि = जिस (प्रभू) ने। तिसहि = उस (प्रभू) को। सुआन = (बहुवचन) कुत्ते।3। लूण हरामी = (खाए हुए) नमक को हराम करने वाले, ना-शुक्रगुजार। प्रभ = हे प्रभू!4। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) मालिक प्रभू (की याद) भुला के अन्य कामों में उलझे रहते हैं, वह नकारी माया के बदले में अपना कीमती मानस जनम गवा लेते हैं। (वे रत्न तो फेंक देते हैं, पर कउड़ी को सम्भालते हैं)।1। रहाउ। हे माँ! जिस परमात्मा का दिया हुआ (अन्न) मनुष्य खाता है, (दिया हुआ कपड़ा मनुष्य) पहनता है उसकी याद में आलस करना किसी भी तरह शोभा नहीं देता।1। (हे भाई !) परमात्मा को छोड़ के और (पदार्थोँ के) लोभ वश हो के (परमात्मा की) दासी माया को सलाम करने से कहीं भी शोभा नहीं मिल सकती।2। (हे भाई!) कुत्ते (के स्वाभाव वाले मनुष्य) स्वादिष्ट भोजन खाते हैं, अच्छे-अच्छे खाने खाते हैं, पीने वाली चीजें पीते हैं, पर जिस परमात्मा ने (ये सारे पदार्थ) दिए हैं उसे जानते-पहिचानते भी नहीं।3। हे नानक! कह–हे प्रभू! हम जीव ना-शुक्रे हैं। हे जीवों के दिल की जानने वाले प्रभू! हमें बख्श ले।4।76।145। गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ के चरन मन माहि धिआनु ॥ सगल तीरथ मजन इसनानु ॥१॥ हरि दिनु हरि सिमरनु मेरे भाई ॥ कोटि जनम की मलु लहि जाई ॥१॥ रहाउ ॥ हरि की कथा रिद माहि बसाई ॥ मन बांछत सगले फल पाई ॥२॥ जीवन मरणु जनमु परवानु ॥ जा कै रिदै वसै भगवानु ॥३॥ कहु नानक सेई जन पूरे ॥ जिना परापति साधू धूरे ॥४॥७७॥१४६॥ {पन्ना 195} पद्अर्थ: माहि = में। मजन = स्नान, डुबकी।1। दिनु = (सारा) दिन। हरि हरि सिमरनु = सदा हरी का सिमरन कर। भाई = हे भाई! कोटि = करोड़ों। मलु = (विकारों की) मैल। (शब्द ‘मलु’ शक्ल में पुलिंग की तरह है पर है ये स्त्री लिंग)।1। रहाउ। कथा = सिफत सालाह। मन बांछत = मन इच्छित,मन भाते।2। जीवन मरणु जनमु = पैदा होने से मरने तक सारा जीवन। जा कै रिदै = जिसके हृदय में।3। पूरे = सारे गुणों वाले। साधू धूरे = गुरू के चरणों की धूड़।4। अर्थ: हे मेरे भाई! सारा दिन सदा परमात्मा का सिमरन किया कर। (जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करता है उसके) करोड़ों जन्मों के (विकारों की) मैल उतर जाती है।1। रहाउ। (हे मेरे बंधु!) अपने मन में परमात्मा का ध्यान धर। (प्रभू-चरणों का ध्यान ही) सारे तीर्थों का स्नान है।1। (हे मेरे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की सिफत सालाह अपने हृदय में बसाता है, वह सारे मन-इच्छित फल प्राप्त कर लेता है।2। (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में भगवान आ बसता है, जनम से लेकर मौत तक उस मनुष्य का सारा जीवन (प्रभू की हजूरी में) कबूल हो जाता है।3। हे नानक! वही मनुष्य सही जीवन वाले बनते हैं जिन्हें गुरू के चरणों की धूड़ मिल जाती है।4।77।146। गउड़ी महला ५ ॥ खादा पैनदा मूकरि पाइ ॥ तिस नो जोहहि दूत धरमराइ ॥१॥ तिसु सिउ बेमुखु जिनि जीउ पिंडु दीना ॥ कोटि जनम भरमहि बहु जूना ॥१॥ रहाउ ॥ साकत की ऐसी है रीति ॥ जो किछु करै सगल बिपरीति ॥२॥ जीउ प्राण जिनि मनु तनु धारिआ ॥ सोई ठाकुरु मनहु बिसारिआ ॥३॥ बधे बिकार लिखे बहु कागर ॥ नानक उधरु क्रिपा सुख सागर ॥४॥ पारब्रहम तेरी सरणाइ ॥ बंधन काटि तरै हरि नाइ ॥१॥ रहाउ दूजा ॥७८॥१४७॥ {पन्ना 195} पद्अर्थ: मुकर पाइ = (संस्कृत क्रिया का पहला हिस्सा सदा एकारांत होता है, आखिरी अक्षर के साथ ‘ि’ की मात्रा लगी होती है। ये नियम सारी बाणी में ठीक उतरता है। पर ‘जपु’ बाणी में देखो “केते लै लै मुकरु पाहि”) मुकर जाता है। जोहहि = निगाह में रखते हैं।1। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। जीउ = जीवात्मा। पिंडु = शरीर। भरमहि = तू भटकेगा।1। रहाउ। साकत = माया ग्रस्त जीव, प्रभू से टूटा हुआ। रीति = जीवन मर्यादा। बिपरीत = उलट।2। जिनि = जिस (प्रभू) ने। धारिआ = (अपनी जोति से) सहारा दिया हुआ है। मनहु = मन से।3। बधे = बढ़े हुए हैं। कागर = कागज, दफतर। उधरु = उद्धार ले, बचा ले। सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र प्रभू!4। पारब्रहम् = हे पारब्रहम्! नाइ = नाम के द्वारा।1। रहाउ दूसरा। अर्थ: (हे भाई! तू) उस परमात्मा (की याद) से मुंह मोड़े बैठा है, जिसने (तुझे) जीवात्मा दी, जिसने (तुझे) शरीर दिया। (याद रख, यहां से गवा के) करोड़ों जन्मों में अनेकों जूनियों में भटकता फिरेगा।1। रहाउ। (हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की बख्शी दातें) खाता रहता है पहनता रहता है और उस बात को नहीं मानता (मुकरा रहता है) कि ये सब परमात्मा का दिया है, उस मनुष्य को धर्मराज के दूत अपनी निगरानी में रखते हैं (भाव, वह मनुष्य सदा आत्मिक मौत मरा रहता है)।1। (हे भाई!) माया ग्रसित मनुष्य की जीवन मर्यादा ही ऐसी है कि वह जो कुछ करता है सारा बे-मुख्ता का काम ही करता है।2। (हे भाई!) जिस परमात्मा ने जीव की जीवात्मा को, मन को, शरीर को (अपनी ज्योति का) सहारा दिया हुआ है, उस पालणहार प्रभू को साकत मनुष्य अपने मन से भुलाए रखता है।3। (इस तरह हे बंधु! उस साकत के इतने) विकार बढ़ जाते हैं कि उनके (बुरे लेखों के) अनेकों पृष्ठ ही लिखे जाते हैं। हे नानक! (प्रभू दर पे अरदास कर और कह–) हे दया के समुंद्र! (तू स्वयं हम जीवों को विकारों से) बचा के रख।4। हे पारब्रहम् प्रभू! जो मनुष्य (तेरी मेहर से) तेरी शरण आते हैं, वह तेरे हरी-नाम की बरकति से (अपने माया के) बंधन काट के (संसार समुंद्र से) पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ दूजा।78।147। गउड़ी महला ५ ॥ अपने लोभ कउ कीनो मीतु ॥ सगल मनोरथ मुकति पदु दीतु ॥१॥ ऐसा मीतु करहु सभु कोइ ॥ जा ते बिरथा कोइ न होइ ॥१॥ रहाउ ॥ अपुनै सुआइ रिदै लै धारिआ ॥ दूख दरद रोग सगल बिदारिआ ॥२॥ रसना गीधी बोलत राम ॥ पूरन होए सगले काम ॥३॥ अनिक बार नानक बलिहारा ॥ सफल दरसनु गोबिंदु हमारा ॥४॥७९॥१४८॥ {पन्ना 195} पद्अर्थ: लोभ कउ = लोभ की खातिर। कीनो = किया, बनाया। मुकति पदु = वह आत्मिक अवस्था जहां कोई वासना छू नहीं सकती।1। सभु कोइ = हरेक जीव। जा ते = जिस से। बिरथा = खाली, व्यर्थ।1। रहाउ। सुआइ = स्वार्थ वास्ते। रिदै = हृदय में। बिदारिआ = नाश कर दिया।2। रसना = जीभ। गीधी = (गृध् = to covet, to desire) लालसा करती है।3। बलिहारा = कुर्बान। सफल दरसनु = जिसका दर्शन सारे फल देता है।4। अर्थ: (हे भाई!) हरेक मनुष्य ऐसे (प्रभू को) मित्र बनाए, जिस (के दर) से कोई खाली नहीं रहता।1। रहाउ। (हे भाई!देखो गोबिंद की उदारता!) चाहे कोई मनुष्य अपनी किसी लालच की खातिर उसे मित्र बनाता है (फिर भी वह उसके) सारे मनोरथ पूरे कर देता है जहाँ कोई वासना फटक नहीं सकती।1। जिस मनुष्य ने (उस गोबिंद को) अपनी गरज वास्ते भी अपने हृदय में ला टिकाया है, (गोबिंद ने उसके) सारे दुख-दर्द सारे रोग दूर कर दिए हैं।2। (हे भाई!) जिस मनुष्य की जीभ गोबिंद का नाम उचारने की तमन्ना रखती है, उसके सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं।3। हे नानक! (कह–) हम अपने गोबिंद से अनेकों बार कुर्बान जाते हैं, हमारा गोबिंद ऐसा है कि उसके दर्शन सारे फल देते हैं।4।79।148। गउड़ी महला ५ ॥ कोटि बिघन हिरे खिन माहि ॥ हरि हरि कथा साधसंगि सुनाहि ॥१॥ पीवत राम रसु अम्रित गुण जासु ॥ जपि हरि चरण मिटी खुधि तासु ॥१॥ रहाउ ॥ सरब कलिआण सुख सहज निधान ॥ जा कै रिदै वसहि भगवान ॥२॥ अउखध मंत्र तंत सभि छारु ॥ करणैहारु रिदे महि धारु ॥३॥ तजि सभि भरम भजिओ पारब्रहमु ॥ कहु नानक अटल इहु धरमु ॥४॥८०॥१४९॥ {पन्ना 195-196} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। हिरे = नाश हो जाते हैं। कथा = सिफत सालाह। साध संगि = साध-संगति में। सुनाहि = (जो मनुष्य) सुनते हैं।1। पीवत = पीते हुए। राम रसु = राम के नाम का रस। अंम्रित गुण = आत्मिक जीवन देने वाले गुण। अंम्रित जासु = आत्मिक जीवन देने वाला यश। खुधितासु = भूख।1। रहाउ। सहज = आत्मिक अडोलता। निधान = खजाने। भगवान = हे भगवान!।2। अउखध = दवाईआं। तंत = तंत्र, टूणे। सभि = सारे। छारु = राख, तुच्छ। धारु = टिकाए रख।3। तजि = त्याग के। भजिओ = भजा है, उपासना की है, सिमरा है। अटल = (अ-टल) कभी ना टलने वाला।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम रस पीते हुए, परमात्मा के आत्मिक जीवन देने वाले गुणों का जस गाते हुए, परमात्मा के चरण जप के (माया की) भूख मिट जाती है।1। रहाउ। (हे भाई!) जो मनुष्य साध-संगति में (टिक के) परमात्मा की सिफत सालाह सुनते हैं, उनकी जिंदगी की राह में आने वाली करोड़ों रुकावटें एक छिन में नाश हो जाती हैं।1। हे भगवान! जिस मनुष्य के हृदय में तू बस जाता है, उसे सारे सुखों के खजाने व आत्मिक अडोलता के आनंद प्राप्त हो जाते हैं।2। (हे भाई!) सृजनहार प्रभू को अपने हृदय में टिकाए रख। (इसके मुकाबले के अन्य) सभी औषधियां, सारे मंत्र और तंत्र (टूणे) तुच्छ हैं।3। हे नानक! कह– जिस मनुष्य ने सारे भ्रम त्याग के पारब्रहम् प्रभू का भजन किया है, (उसने देख लिया है कि भजन-सिमरन वाला) धर्म ऐसा है जो कभी फल देने में कमी नहीं आने देता।4।80।149। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |