श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 196 गउड़ी महला ५ ॥ करि किरपा भेटे गुर सोई ॥ तितु बलि रोगु न बिआपै कोई ॥१॥ राम रमण तरण भै सागर ॥ सरणि सूर फारे जम कागर ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरि मंत्रु दीओ हरि नाम ॥ इह आसर पूरन भए काम ॥२॥ जप तप संजम पूरी वडिआई ॥ गुर किरपाल हरि भए सहाई ॥३॥ मान मोह खोए गुरि भरम ॥ पेखु नानक पसरे पारब्रहम ॥४॥८१॥१५०॥ {पन्ना 196} पद्अर्थ: करि = करे, करता है। भेटे = मिलता है। गुर = गुरू को। सोई = वही। तितु = उसके द्वारा। तितु बलि = उस (आत्मिक) बल के द्वारा। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता।1। रमण = सिमरन। तरण = पार लांघ जाना। भै सागर = संसार समुंद्र। सूर = शूरवीर (गुरू)। फारे = फाड़े जाते हैं। जम कागर = जमों के कागज, आत्मिक मौत लाने वाले संस्कार।1। रहाउ। सतिगुरि = सतिगुरू ने। आसर = आसरा।2। संजम = इंद्रियों को विकारों से रोकने के यत्न। सहाई = मदद करने वाले।3। गुरि = गुरू ने। पेखु = देख। नानक = हे नानक! पसरे = व्यापक।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का सिमरन करने से संसार समुंद्र से पार लांघ जाते हैं। शूरवीर गुरू की शरण पड़ने से जमों के लेखे फाड़े जाते हैं, (आत्मिक मौत लाने वाले सारे संस्कार मिट जाते हैं)।1। रहाउ। (पर हे भाई!) वही मनुष्य गुरू को मिलता है, जिस पर परमात्मा कृपा करता है। (गुरू के मिलाप की बरकति से मनुष्य के अंदर आत्मिक बल पैदा होता है) उस बल के कारण कोई रोग अपना जोर नहीं डाल सकता।1। (हे भाई! जिस मनुष्य को) सत्गुरू ने परमात्मा का नाम मंत्र दे दिया, इस नाम-मंत्र के आसरे उसके सारे मनोरथ पूरे हो गए।2। (हे भाई! जिस मनुष्य पर) सतिगुरू जी कृपाल हुए, जिसके मददगार सत्गुरू जी बन गए, उसको सारे जपों का, सारे तपों का, सारे संजमों का सम्मान प्राप्त हो गया।3। हे नानक! देख, गुरू ने जिस मनुष्य के अहंकार, मोह आदि भ्रम नाश कर दिए, उसे पारब्रहम् प्रभू जी हर जगह व्यापक दिख पड़े।4।81।150। गउड़ी महला ५ ॥ बिखै राज ते अंधुला भारी ॥ दुखि लागै राम नामु चितारी ॥१॥ तेरे दास कउ तुही वडिआई ॥ माइआ मगनु नरकि लै जाई ॥१॥ रहाउ ॥ रोग गिरसत चितारे नाउ ॥ बिखु माते का ठउर न ठाउ ॥२॥ चरन कमल सिउ लागी प्रीति ॥ आन सुखा नही आवहि चीति ॥३॥ सदा सदा सिमरउ प्रभ सुआमी ॥ मिलु नानक हरि अंतरजामी ॥४॥८२॥१५१॥ {पन्ना 196} पद्अर्थ: बिखै राज ते = विषौ-विकारों के प्रभाव से। अंधुला = (विकारों में) अंधा। दुखि = दुख में। लागै = लगता है, फसता है। चितारी = चितारता है।1। कउ = को, वास्ते। तूही = तू ही, तेरा नाम ही। मगनु = मस्त। नरकि = नर्क में।1। रहाउ। गिरसत = घिरा हुआ। बिखु = (विकारों का) जहर। माते का = मस्त हुए हुए का। ठउर ठाउ = जगह ठिकाना। नाम = निशान।2। सिउ = से। आन = अन्य। चीति = चिक्त में।3। सिमरउ = मैं सिमरूँ। प्रभ = हे प्रभू! अंतरजामी = हे सब के दिल की जानने वाले!।4। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे दास के वास्ते तेरा नाम ही (लोक-परलोक में) इज्जत है। (तेरा दास जानता है कि) माया में मस्त मनुष्य को (माया) नर्क में ले जाती है (और सदा दुखी रखती है)।1। रहाउ। (हे भाई!) विषियों के प्रभाव से (मनुष्य विकारों में) बहुत अंधा हो जाता है (तब उसे परमात्मा का नाम कभी नहीं सूझता, पर विकारों के कारण जब वह) दुख में फंसता है, तब परमात्मा का नाम याद करता है।1। (हे भाई!) रोगों से घिरा हुआ मनुष्य परमात्मा का नाम याद करता है, पर विकारों के जहर में मस्त हुए मनुष्य के आत्मिक जीवन का कहीं नामो निशान नहीं मिलता (विकारों का जहर उसके आत्मिक जीवन को खत्म कर देता है)।2। (हे भाई! परमात्मा के) सुंदर चरणों से (जिस मनुष्य की) प्रीत बन जाती है, उसे दुनिया वाले और सुख याद नहीं आते।3। हे नानक! (अरदास कर और कह–) हे प्रभू!हे स्वामी! हे अंतरजामी हरी! (मुझे) मिल, मैं सदा ही तुझे सिमरता रहूँ।4।82।151। गउड़ी महला ५ ॥ आठ पहर संगी बटवारे ॥ करि किरपा प्रभि लए निवारे ॥१॥ ऐसा हरि रसु रमहु सभु कोइ ॥ सरब कला पूरन प्रभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ महा तपति सागर संसार ॥ प्रभ खिन महि पारि उतारणहार ॥२॥ अनिक बंधन तोरे नही जाहि ॥ सिमरत नाम मुकति फल पाहि ॥३॥ उकति सिआनप इस ते कछु नाहि ॥ करि किरपा नानक गुण गाहि ॥४॥८३॥१५२॥ {पन्ना 196} पद्अर्थ: संगी = साथी। बटवारे = वाट+मारे, राहजन, डाकू। करि = कर के। प्रभि = प्रभू ने। लऐ निवारे = निवार लिए, दूर कर दिए।1। रमहु = माणो। सभ कोइ = हरेक जीव। कला = ताकत। सोइ = वह।1। रहाउ। तपति = तपश, जलन। सागर = समुंद्र। उतारणहार = पार लंघाने की ताकत रखने वाला।2। सिमरत = सिमरते हुए। मुकति = खलासी, मुक्ति। पाहि = प्राप्त कर लेते हैं।3। उकति = युक्ति, दलील। इस ते = इस जीव से (‘इसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है)। करि किरपा = मेहर कर। गाहि = गा सकते हैं।4। अर्थ: (हे भाई!) वह परमात्मा सारी मुकम्मल ताकतों का मालिक है (जो मनुष्य उसका पल्ला पकड़ता है, वह किसी विकार को उसके नजदीक नहीं फटकने देता)। हरेक जीव ऐसी समर्था वाले प्रभू के नाम का रस ले।1। रहाउ। (हे भाई!कामादिक पाँचों) डाकू आठों पहर (मनुष्य के साथ) साथी बने रहते हैं (और इसके आत्मिक जीवन पर डाका मारते रहते हैं। जिन्हें बचाया है) प्रभू ने स्वयं ही कृपा करके बचा लिया है।1। (हे भाई!कामादिक विकारों की) संसार समुंद्र में बड़ी तपश पड़ रही है (इस तपश से बचने के लिए प्रभू का ही आसरा लो) प्रभू एक पल में इस जलन में से पार लंघाने की ताकत रखने वाला है।2। (हे भाई! माया के मोह के ये विकार आदिक) अनेकों बंधन हैं (मनुष्य के अपने प्रयत्नों से ये बंधन) तोड़े नहीं जा सकते। पर परमात्मा का नाम सिमरते हुए इन बंधनों से निजात-रूपी फल हासिल कर लेते हैं।3। हे नानक! (प्रभू-दर पर अरदास कर और कह– हे प्रभू!) इस जीव की कोई ऐसी सियानप, कोई ऐसी दलील नहीं चल सकती (जिससे ये इन डाकूओं के पँजे से बच सके। हे प्रभू! तू स्वयं) कृपा कर, जीव तेरे गुण गाएं (और इनसे बच सकें)।4।83।152। गउड़ी महला ५ ॥ थाती पाई हरि को नाम ॥ बिचरु संसार पूरन सभि काम ॥१॥ वडभागी हरि कीरतनु गाईऐ ॥ पारब्रहम तूं देहि त पाईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के चरण हिरदै उरि धारि ॥ भव सागरु चड़ि उतरहि पारि ॥२॥ साधू संगु करहु सभु कोइ ॥ सदा कलिआण फिरि दूखु न होइ ॥३॥ प्रेम भगति भजु गुणी निधानु ॥ नानक दरगह पाईऐ मानु ॥४॥८४॥१५३॥ {पन्ना 196} पद्अर्थ: थाती = धन की थैली। को = का। बिचरु = चल फिर। सभि = सारे।1। वड भागी = बड़े भाग्यों से। पारब्रहम् = हे पारब्रहम्! तू = तुम।1। रहाउ। उरि = उरस्, हृदय में। भव सागरु = संसार समुंद्र। चढ़ि = (प्रभू चरणों के जहाज पे) चढ़ के।2। साधू संगु = गुरू की संगति। सभु कोइ = हरेक मनुष्य। कलिआण = सुख।3। गुणी निधान = गुणों का खजाना प्रभू। मानु = आदर।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा की सिफत सालाह का गीत बड़े भाग्यों से गाया जा सकता है। हे पारब्रहम् प्रभू! अगर तू स्वयं हम जीवों को अपनी सिफत सालाह की दाति दे तो ही हमें मिल सकती है।1। रहाउ। (हे भाई!अगर तूने परमात्मा की कृपा से) परमात्मा के नाम धन की थैली हासिल कर ली है, तो तू संसार के कार्य-व्यवहारों में भी (निसंग हो कर) विचर। तेरे सारे काम सिरे चढ़ जाएंगे।1। (हे भाई!) परमात्मा के चरण अपने हृदय में दिल में टिकाए रख। (प्रभू चरण-रूपी जहाज पर) चढ़ के तू संसार समुंद्र से पार लांघ जाएगा।2। (हे भाई!) हरेक प्राणी गुरू की संगति करो। (गुरू की संगति में रहने से) सदा सुख ही सुख होंगे, दुबारा कोई दुख व्याप नहीं सकेगा।3। हे नानक! प्रेम-भरी भक्ति से सारे गुणों के खजाने परमात्मा का भजन कर, (इस तरह) परमात्मा की हजूरी में आदर-सत्कार मिलता है।4।84।153। गउड़ी महला ५ ॥ जलि थलि महीअलि पूरन हरि मीत ॥ भ्रम बिनसे गाए गुण नीत ॥१॥ ऊठत सोवत हरि संगि पहरूआ ॥ जा कै सिमरणि जम नही डरूआ ॥१॥ रहाउ ॥ चरण कमल प्रभ रिदै निवासु ॥ सगल दूख का होइआ नासु ॥२॥ आसा माणु ताणु धनु एक ॥ साचे साह की मन महि टेक ॥३॥ महा गरीब जन साध अनाथ ॥ नानक प्रभि राखे दे हाथ ॥४॥८५॥१५४॥ {पन्ना 196-197} पद्अर्थ: जलि = जल में। थलि = धरती में। महीअलि = मही+तलि, धरती के तल पर, आकाश में। हरि मीत गुण = प्रभू मित्र के गुण। नीत = सदा। भ्रम = भटकना।1। संगि = (जीव के) नाल। पहरूआ = राख। जा कै सिमरणि = जिस के सिमरन से। जम डरूआ = मौत का डर।1। रहाउ। रिदै = हृदय में।2। ऐक = एक परमात्मा की। टेक = सहारा।3। जन साध = साध जन, गुरमुखि, गुरू के सेवक। अनाथ = निआसरे। प्रभि = प्रभू ने।4। अर्थ: (हे भाई!) जिस परमात्मा के सिमरन की बरकति से मौत का डर नहीं रह जाता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटक सकती), वह परमात्मा हर समय जीव के साथ रखवाला है।1। रहाउ। (हे भाई!) जो प्रभू-मित्र जल में, धरती में, आकाश में, हर जगह व्यापक है, उसके गुण सदा गाने से सब किस्म की भटकनें नाश हो जाती है। (हे भाई!) प्रभू के सुंदर चरणों का जिस मनुष्य के हृदय में निवास हो जाता है, उसके सारे दुखों का नाश हो जाता है; एक परमात्मा का नाम ही उस मनुष्य की आस बन जाता है, प्रभू का नाम ही उस का मान-तान और धन हो जाता है। उस मनुष्य के मन में सदा कायम रहने वाले शाह परमात्मा का ही सहारा होता है।2,3। हे नानक! (कह– हे भाई! जो) बड़े गरीब और अनाथ लोग (थे, जब वह) गुरू के सेवक (बन गए, गुरू की शरण आ पड़े) परमात्मा ने (उन्हें दुखों-कलेशों से) हाथ दे कर बचा लिया।4।85।154। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |