श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 197 गउड़ी महला ५ ॥ हरि हरि नामि मजनु करि सूचे ॥ कोटि ग्रहण पुंन फल मूचे ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के चरण रिदे महि बसे ॥ जनम जनम के किलविख नसे ॥१॥ साधसंगि कीरतन फलु पाइआ ॥ जम का मारगु द्रिसटि न आइआ ॥२॥ मन बच क्रम गोविंद अधारु ॥ ता ते छुटिओ बिखु संसारु ॥३॥ करि किरपा प्रभि कीनो अपना ॥ नानक जापु जपे हरि जपना ॥४॥८६॥१५५॥ {पन्ना 197} पद्अर्थ: नामि = नाम में, नाम (-तीर्थ) में। मजनु = स्नान। करि = कर के। सूचे = स्वच्छ, पवित्र। कोटि = करोड़ों। मूचे = बहुत, ज्यादा।1। किलविख = पाप।1। संगि = संगति में। मारगु = रास्ता।2। बच = बचन। क्रम = कर्म, काम। अधारु = आसरा। ता ते = उससे। बिखु = जहर।3। प्रभि = प्रभू ने। जपे = जपता है।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम (तीर्थ) में स्नान करके स्वच्छ (जीवन वाले बन जाते हैं)। (नाम तीर्थ में स्नान करने से) करोड़ों ग्रहणों के समय किए (दान-) पुंन्न के फलों से भी ज्यादा फल मिलते हैं।1। रहाउ। (हे भाई! जिस मनुष्य के) हृदय में परमात्मा के चरन बस जाएं, उसके अनेकों जन्मों के (किए) पाप नाश हो जाते हैं।1। (हे भाई!जिस मनुष्य ने) साध-संगति में टिक के परमात्मा की सिफत सालाह का फल प्राप्त कर लिया। जमों का रास्ता उसे नजर भी नहीं पड़ता (आत्मिक मौत उसके कहीं नजदीक भी नहीं फटकी)।2। (हे भाई! जिस मनुष्य ने) अपने मन का अपने बोलों का अपने कामों का आसरा परमात्मा (के नाम) को बना लिया, उस से संसार (का मोह) दूर हट गया, उससे (विकारों का वह) जहर परे रह गया (जो मनुष्य के आत्मिक जीवन को मार देता है)।3। हे नानक! मेहर कर के प्रभू ने जिस मनुष्य को अपना बना लिया। वह मनुष्य सदा प्रभू का जाप जपता है प्रभू का भजन करता है।4।86।155। गउड़ी महला ५ ॥ पउ सरणाई जिनि हरि जाते ॥ मनु तनु सीतलु चरण हरि राते ॥१॥ भै भंजन प्रभ मनि न बसाही ॥ डरपत डरपत जनम बहुतु जाही ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै रिदै बसिओ हरि नाम ॥ सगल मनोरथ ता के पूरन काम ॥२॥ जनमु जरा मिरतु जिसु वासि ॥ सो समरथु सिमरि सासि गिरासि ॥३॥ मीतु साजनु सखा प्रभु एक ॥ नामु सुआमी का नानक टेक ॥४॥८७॥१५६॥ {पन्ना 197} पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। हरि जाते = हरी से गहरी सांझ डाली है। सीतलु = ठण्डा,शांत। राते = रते रहने से, प्यार डालने से।1। भै भंजन प्रभ = सारे डरों का नाश करने वाला प्रभू। मनि = मन में। न बसाही = जो मनुष्य नहीं बसाते, बसाहि। जाही = जाहि, लांघ जाते हैं।1। रहाउ। रिदै = हृदय में। ता के = उस के।2। जनमु = जिंदगी। जरा = बढ़ापा। मिरतु = मौत। वासि = बस रहा। सासि = (हरेक) श्वास से। गिरासि = (हरेक) ग्रास के साथ।3। सखा = साथी। टेक = आसरा, सहारा।4। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) सारे डरों का नाश करने वाले प्रभू को अपने मन में नहीं बसाते, उनके अनेकों जन्म इन डरों से काँपते हुए ही बीत जाते हैं।1। रहाउ। (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के साथ जान पहिचान बना ली है उसी की शरण पड़ा रह, (क्योंकि) प्रभू-चरणों में प्यार डाल के मन शांत हो जाता है, शरीर (भाव, हरेक इंद्रिय) शांत हो जाता है।1। (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम बस जाता है, उसके सारे काम सारे मनोरथ सफल हो जाते हैं।2। (हे भाई!) हमारा जीना, हमारा बुढ़ापा और हमारी मौत जिस परमात्मा के वश में है, उस सब ताकतों के मालिक प्रभू को हरेक साँस के साथ और हरेक ग्रास के साथ सिमरता रह।3। हे नानक! (कह– हे भाई!) एक परमात्मा ही (हम जीवों का) मित्र है सज्जन है, साथी है। उस मालिक प्रभू का नाम ही (हमारी जिंदगी का) सहारा है।4।87।156। गउड़ी महला ५ ॥ बाहरि राखिओ रिदै समालि ॥ घरि आए गोविंदु लै नालि ॥१॥ हरि हरि नामु संतन कै संगि ॥ मनु तनु राता राम कै रंगि ॥१॥ रहाउ ॥ गुर परसादी सागरु तरिआ ॥ जनम जनम के किलविख सभि हिरिआ ॥२॥ सोभा सुरति नामि भगवंतु ॥ पूरे गुर का निरमल मंतु ॥३॥ चरण कमल हिरदे महि जापु ॥ नानकु पेखि जीवै परतापु ॥४॥८८॥१५७॥ {पन्ना 197} पद्अर्थ: बाहरि = जगत के साथ कार्य-व्यवहार करते हुए। रिदै = हृदय में। समालि = संभाल के। घरि = हृदय घर में। लै नालि = साथ ले कर।1। संतन कै संगि = संतों के साथ। राता = रंगा हुआ। रंगि = रंग में।1। रहाउ। परसादी = प्रसादि, कृपा से। सागरु = (संसार) समुंद्र। किलविख = पाप। सभि = सारे। हिरिआ = दूर कर लिए।2। नामि = नाम में। भगवंतु = भाग्यों वाले। मंतु = उपदेश।3। जापु = जपता रह। नानकु जीवै = नानक आत्मिक जीवन हासिल करता है। पेखि = देख के।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा संत जनों के हृदय में बसता है। परमात्मा के (प्रेम) रंग में (संत जनों का) मन रंगा रहता है, तन (भाव, हरेक ज्ञानेंद्री) रंगी रहती है।1। रहाउ। (हे भाई!) जगत से कार्य-व्यवहार करते हुए संत जनों ने गोबिंद को अपने हृदय में संभाल के रखा होता है। गोबिंद को संत जन अपने हृदय घर में सदा अपने साथ रखते हैं।1। (हे भाई!) गुरू की कृपा से (परमात्मा का नाम हृदय में संभाल के संत जन) संसार समुंद्र से पार लांघ जाते हैं, और अनेकों जन्मों के (पहले किए हुये) सारे पाप दूर कर लेते हैं।2। (हे भाई!तू भी) पूरे गुरू का उपदेश (अपने हृदय में बसा। जो मनुष्य गुरू का उपदेश हृदय में बसाता है, वह) भाग्यशाली हो जाता है, वह (लोक परलोक में) बड़प्पन कमाता है, उसकी सुरति प्रभू के नाम में जुड़ती है।3। (हे भाई!तू भी परमात्मा के) सुंदर चरण (अपने) हृदय में जपता रह। नानक (उस परमात्मा का) प्रताप देख के आत्मिक जीवन हासिल करता है।4।88।157। गउड़ी महला ५ ॥ धंनु इहु थानु गोविंद गुण गाए ॥ कुसल खेम प्रभि आपि बसाए ॥१॥ रहाउ ॥ बिपति तहा जहा हरि सिमरनु नाही ॥ कोटि अनंद जह हरि गुन गाही ॥१॥ हरि बिसरिऐ दुख रोग घनेरे ॥ प्रभ सेवा जमु लगै न नेरे ॥२॥ सो वडभागी निहचल थानु ॥ जह जपीऐ प्रभ केवल नामु ॥३॥ जह जाईऐ तह नालि मेरा सुआमी ॥ नानक कउ मिलिआ अंतरजामी ॥४॥८९॥१५८॥ {पन्ना 197} पद्अर्थ: धंनु = भाग्यशाली। इह थानु = ये हृदय स्थल। कुसल खेम = कुशल आनंद। प्रभि = प्रभू ने।1। रहाउ। बिपति = मुसीबत। कोटि = करोड़ों। गाही = गाए जाते हैं।1। हरि बिसरिअै = अगर हरी बिसर जाए। घनेरे = बहुत। नेरे = नजदीक।2। थानु = स्थान, हृदय। जह = जहाँ।3। सुआमी = स्वामी, मालिक प्रभू। कउ = को। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4। अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद के गुण गाने से (मनुष्य का) ये हृदय-स्थल भाग्यशाली बन जाता है (क्योंकि, जिस हृदय में प्रभू की सिफत सलाह आ बसी, उस में) प्रभू ने खुद सारे सुख, सारे आनंद ला बसाए।1। रहाउ। (हे भाई!) बिपता (सदा) उस हृदय में (बीतती रहती) है, जिस में परमात्मा (के नाम) का सिमरन नहीं है। जिस हृदय में परमात्मा के गुण गाए जाते हैं, वहाँ करोड़ों ही आनंद हैं।1। (हे भाई!) अगर मनुष्य को परमात्मा (का नाम) बिसर जाए, तो उसे अनेकों दुख, अनेकों रोग (आ घेरते हैं)। (पर) परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से जम (मौत का भय) नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत नहीं आती)।2। (हे भाई!) वह हृदय-स्थल भाग्यशाली है, वह हृदय सदा अडोल रहता है, जिस में परमात्मा का ही नाम जपा जाता है।3। (हे भाई!) सबके दिल की जानने वाला प्रभू (अपनी कृपा से मुझ) नानक को मिल गया है, अब मैं जिधर जाता हूँ, उधर मेरा मालिक-प्रभू मुझे अपने साथ दिखाई देता है।4।89।158। गउड़ी महला ५ ॥ जो प्राणी गोविंदु धिआवै ॥ पड़िआ अणपड़िआ परम गति पावै ॥१॥ साधू संगि सिमरि गोपाल ॥ बिनु नावै झूठा धनु मालु ॥१॥ रहाउ ॥ रूपवंतु सो चतुरु सिआणा ॥ जिनि जनि मानिआ प्रभ का भाणा ॥२॥ जग महि आइआ सो परवाणु ॥ घटि घटि अपणा सुआमी जाणु ॥३॥ कहु नानक जा के पूरन भाग ॥ हरि चरणी ता का मनु लाग ॥४॥९०॥१५९॥ {पन्ना 197-198} पद्अर्थ: धिआवै = ध्यान धरता है, हृदय में याद रखता है। परम गति = सब से ऊँची अवस्था।1। साधू संगि = गुरू की संगति में।1। रहाउ। रूपवंतु = रूप वाला। चतुरु = तीक्ष्ण बुद्धि वाला। जिनि = जिस ने। जिन जनि = जिस जन ने।2। परवाणु = परवान, कबूल। घटि घटि = हरेक शरीर में। जाणु = पहिचान।3। जा के = जिस मनुष्य के।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू की संगति में (रह के) सृष्टि के पालणहार प्रभू (के नाम) का सिमरन किया कर। प्रभू के नाम के बिना और कोई धन और कोई चीज पक्का साथ निभाने वाली नहीं है।1। रहाउ। जो मनुष्य गोबिंद प्रभू को अपने हृदय में याद करता रहता है, वह चाहे विद्वान हो अथवा विद्या हीन, वह सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है।1। (हे भाई!) वही मनुष्य रूप वाला है, वही तीक्ष्ण बुद्धि वाला है, वही अक्लमंद है, जिस मनुष्य ने परमातमा की रजा को (सदा सिर माथे पर) माना है।2। (हे भाई!) अपने मालिक प्रभू को हरेक शरीर में बसता हुआ पहिचान। (जिस मनुष्य ने मालिक प्रभू को हरेक शरीर में बसता पहिचान लिया है) वही मनुष्य जगत में आया सफल है।3। हे नानक! कह–जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जाग पड़ते हैं, उसका मनपरमात्मा के चरणों में लगा रहता है।4।90।159। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |