श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 198 गउड़ी महला ५ ॥ हरि के दास सिउ साकत नही संगु ॥ ओहु बिखई ओसु राम को रंगु ॥१॥ रहाउ ॥ मन असवार जैसे तुरी सीगारी ॥ जिउ कापुरखु पुचारै नारी ॥१॥ बैल कउ नेत्रा पाइ दुहावै ॥ गऊ चरि सिंघ पाछै पावै ॥२॥ गाडर ले कामधेनु करि पूजी ॥ सउदे कउ धावै बिनु पूंजी ॥३॥ नानक राम नामु जपि चीत ॥ सिमरि सुआमी हरि सा मीत ॥४॥९१॥१६०॥ {पन्ना 198} पद्अर्थ: सिउ = साथ। साकत संगु = साकत का साथ। साकत = माया ग्रसित मनुष्य, ईश्वर से टूटा हुआ। ओह = वह साकत। बिखई = विषयी, विषौ विकारों का प्यारा। ओसु = उस (दास) को। को = का।1। रहाउ। मन असवार = (जैसे ‘मन-तारू’) जो सवारी करनी नहीं जानता। तुरी = घोड़ी। कापुरखु = हिजड़ा। पुचारै = प्यार करता है।1। नेत्रा = नादान, रस्सी। दुहावै = दूध चूता है। चरि = चढ़ के। पावै = पड़ता है, दौड़ाता है।2। गाडर = भेड़। कामधेनु = (धेनु = गाय। काम = वासना) हरेक वासना पूरी करने वाली गाय (जो स्वर्ग में रहने वाली मानी जाती है और जो समुंद्र मंथन के समय चौदह रत्नों में से एक रत्न थी)। पूजी = पूजा की। पूँजी = सरमाया।3। सा = जैसा।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के भक्त के साथ माया-ग्रसित मनुष्य का जोड़ नहीं बन सकता (क्योंकि) वह साकत विषियों का प्यारा होता है और उस भगत को परमात्मा का प्रेम रंग चढ़ा होता है।1। रहाउ। (हरी के दास और साकत का संग इस तरह है) जैसे किसी अनाड़ी सवार के वास्ते सजाई गई घोड़ी, जैसे कोई हिजड़ा किसी स्त्री को प्यार करे।1। (हे भाई! हरी के दास और साकत का मेल यूँ ही है) जैसे कोई मनुष्य बछड़ा दे के बैल का दूध चूने की कोशिश करने लगे, जैसे कोई मनुष्य गाय पर चढ़ कर उसे शेर के पीछे दौड़ाने लग पड़े।2। (हे भाई!हरी के भक्त और साकत का मेल ऐसे है) जैसे कोई मनुष्य भेड़ लेकर उसे कामधेन समझ कर पूजने लग जाए, जैसे कोई मनुष्य बगैर पूँजी के सौदा खरीदने उठ दौड़े।3। हे नानक! (हरी के दासों की संगति में टिक कर) परमात्मा का नाम अपने मन में सिमर, परमात्मा जैसे मालिक व मित्र का सिमरन करा कर।4।91।160। गउड़ी महला ५ ॥ सा मति निरमल कहीअत धीर ॥ राम रसाइणु पीवत बीर ॥१॥ हरि के चरण हिरदै करि ओट ॥ जनम मरण ते होवत छोट ॥१॥ रहाउ ॥ सो तनु निरमलु जितु उपजै न पापु ॥ राम रंगि निरमल परतापु ॥२॥ साधसंगि मिटि जात बिकार ॥ सभ ते ऊच एहो उपकार ॥३॥ प्रेम भगति राते गोपाल ॥ नानक जाचै साध रवाल ॥४॥९२॥१६१॥ {पन्ना 198} पद्अर्थ: सा = वह (ये शब्द स्त्री लिंग है)। मति = बुद्धि। कहीअत = कही जाती है। धीर = धैर्य। रसाइण = रसों का घर, सब रसों से श्रेष्ठ। बीर = हे वीर!।1। ओट = आसरा। छोट = खलासी।1। रहाउ। निरमलु = पवित्र (ये शब्द पुलिंग है। पहिली तुक वाला शब्द ‘निरमल’ स्त्री लिंग है)। जितु = जिस में, जिससे। रंगि = प्रेम में।2। मिटि जात = मिट जाते हैं। ते = से।3। राते = रंगे हुए। जाचै = मांगता है। रवाल = चरणों की धूल।4। अर्थ: (हे भाई!) अपने हृदय में परमात्मा के चरणों का आसरा बना, (ऐसा करने से) जन्म मरण के चक्र से निजात मिल जाती है।1। रहाउ। हे भाई! वह बुद्धि पवित्र कही जाती है, धैर्य वाली कही जाती है, (जिसका आसरा लेकर मनुष्य) सब रसों से उत्तम प्रभू नाम का रस पीता है।1। (हे भाई!) वह शरीर पवित्र है जिसमें कोई पाप नहीं पैदा होता। परमात्मा के प्रेम रंग की बरकति से पवित्र हुए मनुष्य का तेज-प्रताप (चमकता) है।2। (हे भाई!साध-संगति किया कर) साध-संगति में रहने से (अंदर से) सारे विकार दूर हो जाते हैं। (साध-संगति का) सबसे उत्तम यही उपकार है।3। जो मनुष्य परमात्मा की प्रेम भक्ति में लगे रहते हैं, नानक उनके चरणों की धूड़ मांगता है।4।92।161। गउड़ी महला ५ ॥ ऐसी प्रीति गोविंद सिउ लागी ॥ मेलि लए पूरन वडभागी ॥१॥ रहाउ ॥ भरता पेखि बिगसै जिउ नारी ॥ तिउ हरि जनु जीवै नामु चितारी ॥१॥ पूत पेखि जिउ जीवत माता ॥ ओति पोति जनु हरि सिउ राता ॥२॥ लोभी अनदु करै पेखि धना ॥ जन चरन कमल सिउ लागो मना ॥३॥ बिसरु नही इकु तिलु दातार ॥ नानक के प्रभ प्रान अधार ॥४॥९३॥१६२॥ {पन्ना 198} पद्अर्थ: सिउ = से। पूरन = सारे गुणों से भरपूर। वडभागी = भाग्यशाली।1। रहाउ। भरता = पति। पेखि = देख के। बिगसै = खुश होती है, खिल पड़ती है। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। चितारी = चितारि, चितार के।1। ओति = बुना हुआ। प्रोति = परोया हुआ (ओत प्रोत = समाया हुआ)। राता = रंगा हुआ, मस्त।2। अनदु = खुशी। जन मना = सेवक का मन।3। दातार = हे दातार! अधार = हे आसरे!।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा से जिन मनुष्यों को ऐसी प्रीति (जिसका जिक्र यहाँ किया जा रहा है) बनती है, वह मनुष्य भाग्यशाली हो जाते हैं, वे सारे गुणों से भरपूर हो जाते हैं, परमात्मा उन्हें अपने साथ मिला लेता है।1। रहाउ। जैसे स्त्री अपने पति को देख के खुश होती है, वैसे ही हरी का दास हरी का नाम याद कर के अंतरात्मे विभोर (हिलोरे मारता है) में आता है।1। जैसे माँ अपने पुत्रों को देख-देख के जीती है, वैसे ही परमात्मा का भक्त परमात्मा के साथ ओत-प्रोत रहता है (ताने-पेटे के सूत्र में बंधा)।2। (जैसे, हे भाई!) लालची मनुष्य धन देख के आनंदित होता है, वैसे ही परमात्मा के भक्त का मन परमात्मा के सुंदर चरणों से लिपटा रहता है।3। हे दातार! हे नानक के प्राणों के आसरे प्रभू! (मुझ नानक को) एक रत्ती जितना समय भी ना भूल।4।93।162। गउड़ी महला ५ ॥ राम रसाइणि जो जन गीधे ॥ चरन कमल प्रेम भगती बीधे ॥१॥ रहाउ ॥ आन रसा दीसहि सभि छारु ॥ नाम बिना निहफल संसार ॥१॥ अंध कूप ते काढे आपि ॥ गुण गोविंद अचरज परताप ॥२॥ वणि त्रिणि त्रिभवणि पूरन गोपाल ॥ ब्रहम पसारु जीअ संगि दइआल ॥३॥ कहु नानक सा कथनी सारु ॥ मानि लेतु जिसु सिरजनहारु ॥४॥९४॥१६३॥ {पन्ना 198} पद्अर्थ: रसाइणि = रसों के घर हरि नाम में। गीधे = गिझे हुए, मस्त, रचे हुए। बीधे = भेदे हुए।1। रहाउ। आन = अन्य। दीसहि = दिखते हैं। सभि = सारे। छारु = राख। निहफल = व्यर्थ।1। अंध = अंधा। कूप = कूआँ। ते = से।2। वणि = बन में। त्रिणि = तिनकों में। त्रिभवणि = तीनों भवनों वाले संसार में। पसारु = पसारा, खिलारा। जीअ संगि = सारे जीवों के साथ।3। सारु = संभाल, हृदय में संभाल। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य सबसे श्रेष्ठ हरी-नाम-रस में मस्त रहते हैं वह मनुष्य परमात्मा के सुंदर चरणों की प्रेमा-भक्ति में लीन रहते हैं (जैसे भौरा कमल फूल में अभेद हो जाता है)।1। रहाउ। (हे भाई! उन मनुष्यों को दुनिया के) और सारे रस (प्रभू-नाम-रस के मुकाबले में) राख दिखते हैं। परमात्मा के नाम के बिना संसार के सारे पदार्थ उन्हें व्यर्थ प्रतीत होते हैं।1। (हे भाई!) गोबिंद के गुण आश्चर्यजनक प्रताप वाले हैं (जो मनुष्य परमात्मा के गुण गाते हैं उन्हें परमात्मा) खुद (माया के मोह के) अंधे कूएं में से निकाल लेता है।2। (हे भाई! हरी-नाम-रस में मस्त लोगों को) सृष्टि का पालणहार प्रभू, बन में, त्रिण में, तीन भवनीय संसार में व्यापक दिखता है। उन्हें ये सारा जगत परमात्मा का पसारा दिखता है, परमात्मा सब जीवों के अंग-संग प्रतीत होता है, और दया का घर दिखता है।3। हे नानक! कह– (हे भाई! तू भी अपने हृदय में) वह सिफत सालाह संभाल, जिस (सिफत सालाह रूप कथनी) को सृजनहार प्रभू आदर-सत्कार देता है।4।94।163। गउड़ी महला ५ ॥ नितप्रति नावणु राम सरि कीजै ॥ झोलि महा रसु हरि अम्रितु पीजै ॥१॥ रहाउ ॥ निरमल उदकु गोविंद का नाम ॥ मजनु करत पूरन सभि काम ॥१॥ संतसंगि तह गोसटि होइ ॥ कोटि जनम के किलविख खोइ ॥२॥ सिमरहि साध करहि आनंदु ॥ मनि तनि रविआ परमानंदु ॥३॥ जिसहि परापति हरि चरण निधान ॥ नानक दास तिसहि कुरबान ॥४॥९५॥१६४॥ {पन्ना 198-199} पद्अर्थ: नित प्रति = नित्य, सदा ही। नावणु = स्नान। सरि = सरोवर में। राम सरि = राम (के नाम रूपी) सरोवर में। कीजै = करना चाहिए। झोलि = हिला के प्रेम से। पीजै = पीना चाहिए।1। रहाउ। उदकु = पानी। मजनु = स्नान। सभि = सारे।1। संत संगि = हरि संत से। तह = वहाँ, राम-सरोवर में डुबकी लगाने से, प्रभू चरणों में जुड़ने से। गोसटि = मिलाप। किलविख = पाप। खोइ = (मनुष्य) खो देता है, नाश कर लेता है।2। साध = गुरमुख लोग। मनि = मन में। तनि = तन में। रविआ = हर समय मौजूद। परमानंदु = सबसे श्रेष्ठ आनंद का मालिक प्रभू।3। जिसहि = जिस मनुष्य को। निधान = खजाने।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम रूपी सरोवर में सदा ही स्नान करना चाहिए। (परमात्मा के नाम का रस) सबसे श्रेष्ठ रस है, आत्मिक जीवन देने वाले इस हरी नाम रस को बड़े प्रेम से पीना चाहिए।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा का नाम पवित्र जल है, (इस जल में) स्नान करने से सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं (सारी वासनाएं समाप्त हो जाती हैं)।1। (हे भाई!) वहाँ (उस हरी-नाम-जल में डुबकी लगाते हुए) प्रभू संत से मिलाप हो जाता है (और, मनुष्य अपने) करोड़ों जन्मों के (किए हुए) पाप दूर कर लेता है।7। (हे भाई! जो) गुरमुख बंदे (हरी नाम) सिमरते हैं, वे आत्मिक आनंद लेते हैं। उन्हें अपने मन में अपने हृदय में सब से श्रेष्ठ आनंद का मालिक परमात्मा हर समय मौजूद दिखाई देता है।3। हे नानक! (कह–) परमात्मा के चरणों के खजाने जिस मनुष्य को प्राप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य पर से प्रभू के भक्त सेवक कुर्बान हो जाते हैं।4।95।164। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |