श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ सो किछु करि जितु मैलु न लागै ॥ हरि कीरतन महि एहु मनु जागै ॥१॥ रहाउ ॥ एको सिमरि न दूजा भाउ ॥ संतसंगि जपि केवल नाउ ॥१॥ करम धरम नेम ब्रत पूजा ॥ पारब्रहम बिनु जानु न दूजा ॥२॥ ता की पूरन होई घाल ॥ जा की प्रीति अपुने प्रभ नालि ॥३॥ सो बैसनो है अपर अपारु ॥ कहु नानक जिनि तजे बिकार ॥४॥९६॥१६५॥ {पन्ना 199}

पद्अर्थ: जितु = जिस (के कारण) से। जागै = जागता रहे, विकारों से सुचेत रहे।1। रहाउ।

दूजा भाउ = परमात्मा के बिना किसी और से प्यार। संगि = संगति में।1।

जानु न = ना समझ।2।

घाल = मेहनत। जा की = जिस (मनुष्य) की।3।

बैसनो = विष्णु भक्त। अपर अपारु = परे से परे, बहुत श्रेष्ठ। जिनि = जिस ने।4।

अर्थ: (हे भाई!) वह (धार्मिक) उद्यम कर, जिस के करने से तेरे मन को विकारों की मैल ना लग सके, और तेरा ये मन परमात्मा की सिफत सालाह में टिक के (विकारों के हमलों से) सुचेत रहे।1। रहाउ।

(हे भाई!) सिर्फ एक परमात्मा का नाम जप। किसी और का प्यार (अपने मन में) मत ला। साध-संगति में टिक के सिर्फ परमात्मा का नाम जपा कर।1।

(हे भाई! निहित) धार्मिक कर्म, व्रत पूजा आदिक (बनाए हुए) नेम- परमात्मा के सिमरन के बिना ऐसे किसी दूसरे कर्म को (उच्च आत्मिक जीवन के वास्ते सहायक) ना समझ।2।

(हे भाई!सिर्फ) उस मनुष्य की मेहनत सफल होती है, जिसकी प्रीति अपने परमात्मा के साथ बनी हुई है।3।

हे नानक! कह– (कर्म-धर्म-नेम-ब्रत-पूजा करने वाला मनुष्य असल वैष्णव नहीं है) वह वैष्णव परे से परे और श्रेष्ठ है, जिस ने (साध-संगति में टिक के सिमरन की बरकति से अपने अंदर से) सारे विकार दूर कर लिए हैं।4।96।165।

गउड़ी महला ५ ॥ जीवत छाडि जाहि देवाने ॥ मुइआ उन ते को वरसांने ॥१॥ सिमरि गोविंदु मनि तनि धुरि लिखिआ ॥ काहू काज न आवत बिखिआ ॥१॥ रहाउ ॥ बिखै ठगउरी जिनि जिनि खाई ॥ ता की त्रिसना कबहूं न जाई ॥२॥ दारन दुख दुतर संसारु ॥ राम नाम बिनु कैसे उतरसि पारि ॥३॥ साधसंगि मिलि दुइ कुल साधि ॥ राम नाम नानक आराधि ॥४॥९७॥१६६॥ {पन्ना 199}

पद्अर्थ: जीवत = जीते हुए। देवाने = हे दिवाने! हे पागल मनुष्य! उन ते = उनसे। को वरसांने = कौन लाभ उठा सकते हैं?।1।

ठगउरी = ठग बूटी, वह बूटी जो खिला के ठॅग भोले लोगों को ठॅग लेते हैं। बिखै ठगउरी = विषौ विकारों वाली ठॅग बूटी। जिनि जिनि = जिस जिस ने।2।

दारन = भयानक। दुतर = दुष्तर, जिससे पार लांघना कठिन है। उतरसि = तू पार होगा।3।

दुइ कुल = ये लोक और परलोक। साधि = साध के, संवार के। आराधि = सिमर।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमर, (ये सिमरन-लेख ही धुर से रॅबी नियम अनुसार तेरे मन में तेरे हृदय में (सदा के लिए) ) उकरा रह सकता हैं, पर ये माया (जिसकी खातिर सारी उम्र दौड़ भाग करता है, आखिर) किसी काम नहीं आती।1। रहाउ।

हे दिवाने मनुष्य! जो माया के पदार्थ मनुष्य को जीवित ही छोड़ जाते हैं, मौत आने पर उनसे कोई क्या लाभ उठा सकता है?।1।

(हे भाई! याद रख) जिस जिस मनुष्य ने विषियों की ठॅगी बूटी खा ली है, (विकारों की) उसकी तृष्णा कभी भी नहीं मिटती।2।

(हे भाई!) इस संसार (-समुंद्र) से पार लांघना बहुत मुश्किल है। ये बड़े भयानक दुखों से भरपूर है। तू परमात्मा के नाम के बिना किस तरह इससे पार लांघ सकेगा?।3।

हे नानक! (कह– हे भाई!) साध-संगति में मिल के परमात्मा का नाम सिमर, और ये लोक व परलोक दोनों ही सँवार ले।4।97।166।

गउड़ी महला ५ ॥ गरीबा उपरि जि खिंजै दाड़ी ॥ पारब्रहमि सा अगनि महि साड़ी ॥१॥ पूरा निआउ करे करतारु ॥ अपुने दास कउ राखनहारु ॥१॥ रहाउ ॥ आदि जुगादि प्रगटि परतापु ॥ निंदकु मुआ उपजि वड तापु ॥२॥ तिनि मारिआ जि रखै न कोइ ॥ आगै पाछै मंदी सोइ ॥३॥ अपुने दास राखै कंठि लाइ ॥ सरणि नानक हरि नामु धिआइ ॥४॥९८॥१६७॥ {पन्ना 199}

पद्अर्थ: जि दाढ़ी = जो दाढ़ी। खिंजै = खिझती है। पारब्रहमि = पारब्रहम् ने। सा = वह दाढ़ी (शब्द ‘सा’ स्त्री लिंग है)।1।

पूरा = सम्पूर्ण, जिसमें कोई कमी नहीं। राखनहारु = रक्षा करने की ताकत रखने वाला।1। रहाउ।

आदि = शुरू से। जुगादि = युगों के आरम्भ से। प्रगटि = प्रकट होता है। मुआ = आत्मिक मौत मरता है। उपजि = उत्पन्न हो के, उपज के। तापु = दुख कलेश।2।

जिनि = उस (परमात्मा) ने। जि = जिस के मारे को। आगै = परलोक में। पाछै = इस लोक में। मंदी सोइ = बदनामी।3।

कंठि = गले से। लाइ = लगा के। नानक = हे नानक!4।

अर्थ: (हे भाई!) जीवों को पैदा करने वाला परमात्मा (सदा) न्याय करता है। (ऐसा न्याय) जिसमें कोई कमी नहीं होती। वह करतार अपने सेवकों की सहायता करने की स्मर्था वाला है।1। रहाउ।

(हे भाई! देख उसका न्याय!) जो दाढ़ी गरीबों पर खिझती रहती है पारब्रहम् प्रभू ने वह दाढ़ी आग में जला दी (होती) है (भाव, जो मनुष्य अहंकार में आ कर दूसरों को दुखी करता है, वह खुद भी क्रोध की अग्नि में जलता रहता है)।1।

(हे भाई! जगत के) आरम्भ से, युगों की शुरुवात से ही परमात्मा का तेज प्रताप प्रगट होता आया है (कि दूसरों की) निंदा करने वाला मनुष्य (स्वयं) आत्मिक मौत मरा रहता है, (उसके अपने अंदर निंदा के कारण) बड़ा दुख-कलेश बना रहता है।2।

(हे भाई! गरीबों पर अत्याचार करने वाले मनुष्य को) वह परमात्मा (खुद) आत्मिक मौत मार देता होता है जिससे (परमात्मा के बिनां) और कोई बचा नहीं सकता, (ऐसे मनुष्य की) इस लोक में भी और परलोक में भी बदनामी ही होती है।3।

हे नानक! (कह–) परमात्मा अपने सेवकों को अपने गले से लगा के रखता है (भाव, उनके उच्च आत्मिक जीवन का पूरा ध्यान रखता है)। (हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़, और उस परमात्मा का नाम (सदा) सिमर।4।98।167।

गउड़ी महला ५ ॥ महजरु झूठा कीतोनु आपि ॥ पापी कउ लागा संतापु ॥१॥ जिसहि सहाई गोबिदु मेरा ॥ तिसु कउ जमु नही आवै नेरा ॥१॥ रहाउ ॥ साची दरगह बोलै कूड़ु ॥ सिरु हाथ पछोड़ै अंधा मूड़ु ॥२॥ रोग बिआपे करदे पाप ॥ अदली होइ बैठा प्रभु आपि ॥३॥ अपन कमाइऐ आपे बाधे ॥ दरबु गइआ सभु जीअ कै साथै ॥४॥ नानक सरनि परे दरबारि ॥ राखी पैज मेरै करतारि ॥५॥९९॥१६८॥ {पन्ना 199}

पद्अर्थ: महजरु = (अरबी लफ्ज ‘महजर’) मेजरनामा, किसी के विरुद्ध की गई शिकायत जिस पर बहुतों के दस्तख़त हों। कीतोनु = कीता उन, उस (परमात्मा) ने कर दिया। संतापु = कलेश।1।

जिसहि सहाई = जिसकी सहायता करने वाला। जमु = मौत का डर। नेरा = नजदीक।1। रहाउ।

कूड़ु = झूठ। हाथ पछोड़ै = हाथों से पटकता है। मूढ़ु = मूर्ख।2।

बिआपे = घिरे हुए, दबाए हुए। अदली = अदल करने वाला, न्याय करने वाला।3।

अपन कमाईअै = अपने किए कर्मों के अनुसार। आपे = स्वयं ही। बाधे = बंधे हुए। दरबु = धन। सभु = सारा। जीअ कै साथै = जीवात्मा के साथ ही।4।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा गोबिंद जिस मनुष्य का सहायक बनता है, उसे मौत का डर नहीं छू सकता।1। रहाउ।

(हे भाई! देखो, हमारे विरुद्ध तैयार किया हुआ) मेजरनामा करतार ने खुद झूठा (साबित) कर दिया, (और झूठ अनर्थ थोपने वाले) पापियों को (आत्मिक तौर पर) बहुत दुख-कलेश हुआ।1।

(हे भाई!) जो मनुष्य (किसी को हानि पहुँचाने के लिए) झूठ बोलता है वह अंधा मूर्ख सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की दरगाह में अपना सिर अपने हाथों से पीटता है (भाव, वह पश्चाताप करता है)।2।

(हे भाई!) परमात्मा स्वयं न्याय करने वाला बन के (कचहरी लगाए) बैठा हुआ है (उससे कोई ठॅगी नहीं हो सकती)। जो मनुष्य बुरे कर्म करते हैं (उसके न्याय के अनुसार) वे अनेकों रोगों में ग्रसे रहते हैं।3।

(हे भाई! धन आदि की खातिर जीव पाप कर्म करते हैं, पर) सारा ही धन जीवात्मा के साथ ही (जीव के हाथों) चला जाता है, और अपने किए कर्मों के अनुसार जीव खुद ही (मोह के बंधनों में) बंधे रहते हैं।4।

हे नानक! (कह–) जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ते हैं परमात्मा के दर पर गिरते हैं, उनकी इज्जत मेरे करतार ने सदा ही रख ली है।5।99।168।

गउड़ी महला ५ ॥ जन की धूरि मन मीठ खटानी ॥ पूरबि करमि लिखिआ धुरि प्रानी ॥१॥ रहाउ ॥ अह्मबुधि मन पूरि थिधाई ॥ साध धूरि करि सुध मंजाई ॥१॥ अनिक जला जे धोवै देही ॥ मैलु न उतरै सुधु न तेही ॥२॥ सतिगुरु भेटिओ सदा क्रिपाल ॥ हरि सिमरि सिमरि काटिआ भउ काल ॥३॥ मुकति भुगति जुगति हरि नाउ ॥ प्रेम भगति नानक गुण गाउ ॥४॥१००॥१६९॥ {पन्ना 199-200}

पद्अर्थ: मीठ खटानी = मीठी लगी है। पूरबि करमि = पूर्व जन्म के किए कर्मों के अनुसार। धरि = धुर से।1।

अहंबुधि = अहंकार ग्रसित बुद्धि। मन थिधाई = मन की चिकनाहट। मंजाई = मांज दी।

(नोट: चिकने बरतन को मिट्टी या राख से मांजा जाता है)।1।

देही = शरीर। तेही = उस तरीके से। सुधु = पवित्र (शब्द ‘सुधु’ पुलिंग, व ‘सुध’ स्त्रीलिंग)।2।

भेटिओ = मिला। भउ काल = काल का भउ।3।

मुकति = मोक्ष। भुगति = भोग। जुगति = जोग।4।

अर्थ: (हे भाई!) पूर्व जन्म के किए कर्मों के अनुसार जिस प्राणी के माथे पर धुर दरगाह से लेख लिखा होता है, उसके मन को परमात्मा के सेवक की चरण-धूड़ मीठी लगती है।1। रहाउ।

अहंकार वाली बुद्धि के कारण (मनुष्य के) मन को (अहम् की) चिकनाई लगी रहती है (उस चिकनाई के कारण मन पर किसी उपदेश का असर नहीं होता, जैसे चिकने बरतन पर पानी नहीं ठहरता। जिस मनुष्य को ‘जन की धूरि’ मीठी लगती है) साधू की चरण-धूड़ से उसकी बुद्धि मांजी जाती है और शुद्ध हो जाती है।1।

अगर मनुष्य अनेकों (तीर्थों के) पानियों से अपने शरीर को धोता रहे, तो भी उसके मन की मैल नहीं उतरती, उस तरह (भाव, तीर्थ-स्नानों से भी) वह मनुष्य पवित्र नहीं हो सकता।2।

(हे भाई!) जिस मनुष्य को सत्गुरू मिल जाता है, जिस पे गुरू सदा दयावान रहता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम सिमर सिमर के (अपने अंदर से) मौत का डर (आत्मिक मौत का खतरा) दूर कर लेता है।3।

हे नानक! प्रेम-भरी भक्ति से परमात्मा के गुण गाता रह। परमात्मा का नाम ही विकारों से निजात दिलवाता है। नाम ही आत्मिक जीवन की खुराक है, नाम जपना ही जीवन की सही जुगति है।4।100।169।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh