श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गउड़ी महला ५ ॥ जीवन पदवी हरि के दास ॥ जिन मिलिआ आतम परगासु ॥१॥ हरि का सिमरनु सुनि मन कानी ॥ सुखु पावहि हरि दुआर परानी ॥१॥ रहाउ ॥ आठ पहर धिआईऐ गोपालु ॥ नानक दरसनु देखि निहालु ॥२॥१०१॥१७०॥ {पन्ना 200}

पद्अर्थ: पदवी = दर्जा। जीवन पदवी = ऊँचा आत्मिक दर्जा। जिन = जिन (हरि के दासों को)। परगासु = प्रकाश।1।

मन = हे मन! कानी सुनि = कानों से सुन, ध्यान से सुन। हरि दुआरि = हरी के दर पर।1। रहाउ।

धिआईअै = ध्याना चाहिए। देखि = देख के। निहालु = प्रसन्न।1।

अर्थ: हे मेरे मन! ध्यान से परमात्मा का नाम सुना कर। हे प्राणी! (सिमरन की बरकति से) तू हरी के दर पर सुख प्राप्त करेगा।1। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, वे हरी के दास हैं) हरी के दासों को उच्च आत्मिक दर्जा प्राप्त है। उन (हरी के दासों) को मिलके आत्मा को (ज्ञान का) प्रकाश मिल जाता है।1।

हे नानक! (हरी के दासों की संगति में रह के) आठों पहर सृष्टि के पालनहार प्रभू को सिमरना चाहिए। (सिमरन की बरकति से हर जगह परमात्मा का) दर्शन करके (मन) खिला रहता है।2।101।170।

गउड़ी महला ५ ॥ सांति भई गुर गोबिदि पाई ॥ ताप पाप बिनसे मेरे भाई ॥१॥ रहाउ ॥ राम नामु नित रसन बखान ॥ बिनसे रोग भए कलिआन ॥१॥ पारब्रहम गुण अगम बीचार ॥ साधू संगमि है निसतार ॥२॥ निरमल गुण गावहु नित नीत ॥ गई बिआधि उबरे जन मीत ॥३॥ मन बच क्रम प्रभु अपना धिआई ॥ नानक दास तेरी सरणाई ॥४॥१०२॥१७१॥ {पन्ना 200}

पद्अर्थ: गोबिदि = गोबिंद ने। गुर गोबिदि = गोबिंद के रूप गुरू ने। पाई = दी, बख्शी। सांति = ठंढ। ताप = दुख कलेश। भाई = हे भाई!1। रहाउ।

रसन = जीभ से। कलिआन = खुशियां।1।

अगम = अपहुँच। साधू संगमि = गुरू की संगति में। निसतार = पार उतारा।2।

नित नीत = सदा ही। बिआधि = रोग। उबरे = बच गए। मीत = हे मित्र!।3।

बच = वचन। क्रम = कर्म। धिआई = मैं ध्याऊँ।4।

अर्थ: हे मेरे भाई! गोबिंद के रूप गुरू ने (जिस मनुष्य को नाम की दाति) बख्श दी, उसके अंदर ठंढ पड़ गई, उसके सारे दुख-कलेश और पाप नाश हो गए।1। रहाउ।

(हे भाई!) जो मनुष्य अपनी जीभ से सदा परमात्मा का नाम उच्चारण करता है, उसके सारे रोग दूर हो जाते हैं, उसके अंदर आनंद ही आनंद बने रहते हैं।1।

(हे भाई!) जो मनुष्य अपहुँच पारब्रहम् प्रभू के गुणों का विचार करता रहता है, गुरू की संगति में रह के उस का (संसार-समुंद्र से) पार उतारा हो जाता है।2।

हे (मेरे) मित्र! सदा परमात्मा के गुण गाते रहो। (जो मनुष्य गुण गाते हैं, उनका हरेक) रोग दूर हो जाता है, वह मनुष्य (रोगों-विकारों से) बचे रहते हैं।3।

हे नानक! (प्रभू-चरणों में प्रार्थना करके कह– हे प्रभू!) मैं तेरा दास तेरी शरण आया हूँ। (मेहर कर) मैं अपने मन से बचनों से और कर्मों से सदा अपने मालिक प्रभू को सिमरता रहूँ।4।102।171।

गउड़ी महला ५ ॥ नेत्र प्रगासु कीआ गुरदेव ॥ भरम गए पूरन भई सेव ॥१॥ रहाउ ॥ सीतला ते रखिआ बिहारी ॥ पारब्रहम प्रभ किरपा धारी ॥१॥ नानक नामु जपै सो जीवै ॥ साधसंगि हरि अम्रितु पीवै ॥२॥१०३॥१७२॥ {पन्ना 200}

पद्अर्थ: प्रगासु = रौशनी। गुरदेव = हे गुरदेव!1। रहाउ।

सीतला = माता का रोग, चेचक। ते = से। रखिआ = बचाया। बिहारी = (विहारिन्) हे सुंदर प्रभू! किरपा धारी = कृा धार के।1।

जीवै = आत्मिक जीवन हासिल करता है। साध संगि = साध-संगति में।2।

अर्थ: हे गुरदेव! जिस मनुष्य की (आत्मिक) आँखों को तूने (ज्ञान का) प्रकाश बख्शा, उसके सारे वहम (जगह जगह की भटकना) दूर हो गई। तेरे दर पर टिक के की हुई उसकी सेवा सफल हो गई।1। रहाउ।

हे सुंदर स्वरूप! हे पारब्रहम्! हे प्रभू! तूने ही कृपा करके शीतला से बचाया है (और कोई देवी आदि तेरे बराबर की नहीं है)।

नोट: सन् 1594 से 1599 तक माझे (बृहक्तर पंजाब का इलाका) में सख्त अकाल पड़ा रहा। चेचक आदि बीमारियों की महामारी भी फैल गई। (छेवें गुरू) गुरू हरि गोबिंद साहिब का जन्म 1595 में हुआ था। (पाँचवें गुरू) गुरू अरजन साहिब जी भूखों, रोग पीड़ितों की सहायता के लिए पाँच साल माझे के गाँवों में, फिर लाहौर शहर में भी विचरते रहे। बालक गुरू हरि गोबिंद को भी अपने साथ ही रखने की आवश्यक्ता बनी रही, क्योंकि बाबा पृथ्वी चंद जी (गुरू अरजन देव जी के बड़े भ्राता) उनको जान से मार देना चाहते थे। चेचक के इलाके में घूमने की वजह से अमृतसर वापिस आने पर गुरू हरि गोबिंद साहिब को माता निकल आई। वहमी–भरमी सि्त्रयां आ आ के सीतला देवी की पूजा के वास्ते प्रेरित करती रहीं। इस वहिम–भरम से सदा के लिए बचाने के लिए गुरू अरजन साहिब जी ने इस शबद के द्वारा उपदेश किया है।1।

हे नानक! (कह– हे भाई!) जो मनुष्य (और सारे आसरे छोड़ के) परमात्मा का नाम जपता है, वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है (क्योंकि) वह साध-संगति में रह के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस पीता रहता है।2।103।172।

गउड़ी महला ५ ॥ धनु ओहु मसतकु धनु तेरे नेत ॥ धनु ओइ भगत जिन तुम संगि हेत ॥१॥ नाम बिना कैसे सुखु लहीऐ ॥ रसना राम नाम जसु कहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ तिन ऊपरि जाईऐ कुरबाणु ॥ नानक जिनि जपिआ निरबाणु ॥२॥१०४॥१७३॥

पद्अर्थ: धनु = भाग्यशाली। मसतकु = माथा। धनु नेत = भाग्यशाली हैं वह नेत्र। नेत = आँखें। तेरे = (जो) तेरे (दीदार में मस्त हैं)। ओइ = (शब्द ‘ओह’ का बहुवचन)। तुम संगि = तेरे साथ। हेत = हित, प्यार।1।

कैसे लहीअै = कैसे मिल सकता है? कभी नहीं मिल सकता। रसना = जीभ (से)। जसु = यश, सिफत सालाह। कहीअै = कहना चाहिए।1। रहाउ।

जाईअै = जाना चाहिए। जिनि = जिस ने । निरबाणु = वासना रहित, जिसे कोई वासना छू ना सके।2।

(नोट: शब्द ‘जिन’ बहुवचन है, जबकि ‘जिनि’ एकवचन है)।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरे बिना कभी सुख नहीं मिल सकता। (इस वास्ते सदैव) जीभ से परमात्मा का नाम जपना चाहिए, परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) भाग्यशाली है वह माथा (जो तेरे दर पर झुकता है), भाग्यशाली हैं वे आँखें (जो) तेरे (दीदार में मस्त रहती हैं)। भाग्यशाली हें वे भक्तजन जिनका तेरे नाम से प्रेम बना रहता है।1।

हे नानक! (कह– हे भाई!) जिस जिस ने वासना रहित प्रभू का नाम जपा है, उनपे से (सदा) सदके जाना चाहिए।2।104।173।

गउड़ी महला ५ ॥ तूंहै मसलति तूंहै नालि ॥ तूहै राखहि सारि समालि ॥१॥ ऐसा रामु दीन दुनी सहाई ॥ दास की पैज रखै मेरे भाई ॥१॥ रहाउ ॥ आगै आपि इहु थानु वसि जा कै ॥ आठ पहर मनु हरि कउ जापै ॥२॥ पति परवाणु सचु नीसाणु ॥ जा कउ आपि करहि फुरमानु ॥३॥ आपे दाता आपि प्रतिपालि ॥ नित नित नानक राम नामु समालि ॥४॥१०५॥१७४॥ {पन्ना 200}

पद्अर्थ: मसलति = सलाह (देने वाला)। राखहि = रखता है, रक्षा करता है। सारि = संभाल के, सार ले के। समालि = संभाल कर के।1।

दीन दुनी सहाई = दीन का साथी और दुनिया का साथी, लोक परलोक का साथी। पैज = इज्जत, लाज। भाई = हे भाई!1। रहाउ।

आगै = परलोक में। इहु थानु = ये लोक। वसि जा कै = जिसके वश में। मनु = (मेरा) मन। जापै = जपता है।2।

पति = इज्जत। परवाणु = कबूल। सचु = सदा सिथर प्रभू का नाम। नीसाणु = परवाना, जिंदगी के सफर में राहदारी। फुरमान = हुकम।3।

प्रतिपाल = पालना करता है। समालि = सम्भाल।4।

अर्थ: हे मेरे वीर! परमात्मा इस लोक में और परलोक में ऐसा साथी है कि वह अपने सेवक की इज्जत (हर जगह) रखता है।1। रहाउ।

हे प्रभू! तू (हर जगह मेरा) सलाहकार है, तू ही (हर जगह) मेरे साथ बसता है। तू ही (जीवों की) सार ले के संभाल करके रक्षा करता है।1।

(हे भाई!) जिस परमात्मा के वश में हमारा ये लोक है, वही खुद परलोक में भी (हमारा रक्षक) है। (हे भाई!) मेरा मन तो आठों पहर उस परमात्मा का नाम जपता है।2।

हे प्रभू! जिस (सेवक) के वास्ते तू खुद हुकम करता है, उसे (तेरे दरबार में) आदर-सत्कार मिलता है, वह (तेरे दर पर) कबूल होता है, उसको (जीवन यात्रा में) तेरा सदा स्थिर रहने वाला नाम, (बतौर) राहदारी मिलता है।3।

हे नानक! परमात्मा खुद ही (सब जीवों को) दातें देने वाला है, स्वयं ही (सबकी) पालना करने वाला है। तू सदा ही उस परमात्मा का नाम (अपने हृदय में) संभाल के रख।4।105।174।

नोट: पाठक ये याद रखें कि यहाँ कुल जोड़ में एक की कमी चली आ रही है। यहाँ कुल जोड़ 175 चाहिए थे।

गउड़ी महला ५ ॥ सतिगुरु पूरा भइआ क्रिपालु ॥ हिरदै वसिआ सदा गुपालु ॥१॥ रामु रवत सद ही सुखु पाइआ ॥ मइआ करी पूरन हरि राइआ ॥१॥ रहाउ ॥ कहु नानक जा के पूरे भाग ॥ हरि हरि नामु असथिरु सोहागु ॥२॥१०६॥ {पन्ना 200-201}

पद्अर्थ: क्रिपालु = कृपा+आलय, कृपा का घर, दयावान। हिरदै = दिल में।1।

रवत = सिमरते हुए। सद ही = सदा ही। मइआ = कृपा। पूरन = सर्व व्यापक। हरि राइआ = प्रभू पातशाह।1। रहाउ।

जा के = जिस (मनुष्य) के। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। सोहागु = सौभाग्य,खसम, पति।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य पर सर्व व्यापक प्रभू पातशाह ने मेहर की है, परमात्मा का नाम सिमरते हुए उसने सदा ही आत्मिक आनंद पाया है।1। रहाउ।

(हे भाई!) अभॅुल गुरू जिस मनुष्य पर दयावान होता है, सृष्टि के रक्षक परमात्मा (का नाम) सदा उसके हृदय में बसा रहता है।1।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य के (माथे पर) पूरे भाग्य जाग पड़ते हैं, वह सदा परमात्मा का नाम जपता है। (उस के सिर पर) परमात्मा सदा कायम रहने वाला पति (अपना हाथ रखता है)।2।106।

नोट: यहाँ तक गुरू अरजन देव जी के 106 शबद हैं। पिछला जोड़ 70 था। कुल जोड़ 176 बनता है, पर अब तक कुल जोड़ में एक की कमी चली आ रही थी, जो यहाँ आ के स्पष्ट हो गई है। पिछले सारे अंक तोड़ने पड़ने थे। इसकी जगह आगे वाला अंक लिखना बंद कर दिया गया है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh