श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 201 गउड़ी महला ५ ॥ धोती खोलि विछाए हेठि ॥ गरधप वांगू लाहे पेटि ॥१॥ बिनु करतूती मुकति न पाईऐ ॥ मुकति पदारथु नामु धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ पूजा तिलक करत इसनानां ॥ छुरी काढि लेवै हथि दाना ॥२॥ बेदु पड़ै मुखि मीठी बाणी ॥ जीआं कुहत न संगै पराणी ॥३॥ कहु नानक जिसु किरपा धारै ॥ हिरदा सुधु ब्रहमु बीचारै ॥४॥१०७॥ {पन्ना 201} पद्अर्थ: धोती खोलि = धोती के ऊपर का आधा हिस्सा उतार के। हेठि = नाचे, जमीन पर। गरधप = गधा। पेटि = पेट में। लाहे = डाले जाता है (खीर वगैरा)।1। करतूती = करतूत, नाम सिमरन का उद्यम। मुकति = मुक्ति, विकारों से खलासी, मोक्ष पदवी।1। रहाउ। छुरी काढि = छुरी निकाल के, निर्दयता से, (स्वर्ग आदि का) धोखा दे के। लेवै हथि = हाथ में लेता है, हासिल करता है।2। मुखि = मुंह से। मीठी बाणी = मीठे सुर से। कुहत = मारते हुए। जीआं कुहत = जीवों को मारते हुए, अपने जजमानों के साथ धोखा करते हुए। न संगै = नहीं शर्माता, नहीं हिचकिचाता।3। सुधु = पवित्र। ब्रहम् = परमात्मा।4। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए। ये ऐसा पदार्थ है जो विकारों से खलासी देता है। (हे भाई!) नाम सिमरन की कमाई किए बिना मोक्ष पदवी नहीं मिलती।1। रहाउ। (पर, हे भाई! ब्राहमण अपने जजमानों को यही बताता है कि ब्राहमण को दिया दान ही मोक्ष पदवी मिलने का रास्ता है। वह ब्राहमण श्राद्ध आदि के समय जजमान के घर जा के चौके में बैठ के) अपनी धोती का ऊपर का हिस्सा उतार के नीचे रख लेता है और गधे की तरह (दबादब खीर आदि) अपने पेट में डाले जाता है।1। (ब्राहमण) स्नान करके, तिलक लगा के पूजा करता है, और छुरी निकाल के, हाथ में दान लेता है।2। (ब्राहमण) मुंह से मीठी सुर का वेद (मंत्र) पढ़ता है, पर अपने जजमानों के साथ धोखा करते हुए रक्ती भर नहीं झिझकता।3। (पर) हे नानक! कह– (ब्राहमण के भी क्या वश?) जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है वही परमातमा के गुण अपने हृदय में बसाता है। (जिसकी बरकति से) उसका हृदय पवित्र हो जाता है (और वह किसी के साथ ठॅगी-फरेब नहीं करता)।4।107। गउड़ी महला ५ ॥ थिरु घरि बैसहु हरि जन पिआरे ॥ सतिगुरि तुमरे काज सवारे ॥१॥ रहाउ ॥ दुसट दूत परमेसरि मारे ॥ जन की पैज रखी करतारे ॥१॥ बादिसाह साह सभ वसि करि दीने ॥ अम्रित नाम महा रस पीने ॥२॥ निरभउ होइ भजहु भगवान ॥ साधसंगति मिलि कीनो दानु ॥३॥ सरणि परे प्रभ अंतरजामी ॥ नानक ओट पकरी प्रभ सुआमी ॥४॥१०८॥ {पन्ना 201} पद्अर्थ: थिरु = अडोल चिक्त, श्रद्धा से। घरि = हृदय घर में। हरि जन = हे हरी के सेवको! स्तिगुरि = सतिगुरू ने।1। रहाउ। परमेसरि = परमेश्वर ने। जन की पैज = सेवक की लाज। करतारे = करतार ने।1। वसि = वश में। पीने = पीते हैं।2। मिलि = मिल के। कीनो = किया है।3। प्रभ = हे प्रभू! अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले! ओट = आसरा।4। अर्थ: हे प्यारे भक्त जनों! अपने हृदय में ये पूरी श्रद्धा बनाओ, कि सतिगुरू ने हमारे कारज सवार दिए हैं (कि सत्गुरू शरण पड़ने वालों के कार्य सवार देता है)।1। रहाउ। (हे संत जनों! ये निश्चय धारो कि जो मनुष्य और आसरे छोड़ के परमेश्वर का आसरा ताकता है), परमेश्वर ने उसके दोखी-वैरी सब समाप्त कर दिए हैं, करतार ने अपने सेवक की इज्जत जरूर रखी है।1। (हे संत जनों परमेश्वर ने अपने सेवकों को) दुनिया के शाहों-बादशाहों से बे-मुहताज (आजाद) कर दिया है। परमेश्वर के सेवक आत्मिक जीवन देने वाला परमेश्वर का सब रसों से मीठा नाम-रस पीते रहते हैं।2। (हे प्यारे भक्त जनों! परमेश्वर ने तुम्हारे ऊपर) नाम की बख्शिश की है, तुम साध-संगति में मिल के निडर हो के भगवान का नाम सिमरते रहो।3। हे नानक! (प्रभू दर पर अरदास कर और कह–) हे अंतरजामी प्रभू! हे स्वामी प्रभू! मैं तेरी शरण पड़ा हूँ, मैंने तेरा आसरा लिया है (मुझे अपने नाम की दाति बख्श)।4।108। गउड़ी महला ५ ॥ हरि संगि राते भाहि न जलै ॥ हरि संगि राते माइआ नही छलै ॥ हरि संगि राते नही डूबै जला ॥ हरि संगि राते सुफल फला ॥१॥ सभ भै मिटहि तुमारै नाइ ॥ भेटत संगि हरि हरि गुन गाइ ॥ रहाउ ॥ हरि संगि राते मिटै सभ चिंता ॥ हरि सिउ सो रचै जिसु साध का मंता ॥ हरि संगि राते जम की नही त्रास ॥ हरि संगि राते पूरन आस ॥२॥ हरि संगि राते दूखु न लागै ॥ हरि संगि राता अनदिनु जागै ॥ हरि संगि राता सहज घरि वसै ॥ हरि संगि राते भ्रमु भउ नसै ॥३॥ हरि संगि राते मति ऊतम होइ ॥ हरि संगि राते निरमल सोइ ॥ कहु नानक तिन कउ बलि जाई ॥ जिन कउ प्रभु मेरा बिसरत नाही ॥४॥१०९॥ {पन्ना 201} पद्अर्थ: भाहि = (तृष्णा की) आग (में)। संगि = साथ। राते = रंगे जाने से। जला = संसार समुंद्र में।1। नाइ = काम के द्वारा। भेटत = मिलने से। गाइ = गाता है। भै = (‘भउ’ का बहुवचन)।1। रहाउ। साध = गुरू। मंता = उपदेश। त्रास = डर।2। न लागै = छू नहीं सकता। राता = रंगा हुआ। अनदिनु = हर रोज। जागै = (विकारों की ओर से) सुचेत रहता है। सहज घरि = आत्मिक अडोलता के घर में।3। निरमल = पवित्र, बेदाग। सोइ = शोभा। बलि जाई = मैं कर्बान जाता हूँ।4। अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे नाम में जुड़ने से (मनुष्य के सारे) डर दूर हो जाते हैं। (हे भाई!) प्रभू की संगति में रहने से (चरणों में जुड़ने से) मनुष्य परमात्मा के गुण गाता रहता है।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा के साथ रंगे रहने से (मनुष्य तृष्णा की) आग में नहीं जलता। परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने से (मनुष्य को) माया ठॅग नहीं सकती। परमात्मा की याद में मस्त रहने से मनुष्य संसार समुंदं के विकारों के पानियों में ग़र्क नहीं होता, मानस जन्म का खूबसूरत मनोरथ प्राप्त कर लेता है।1। (हे भाई!) परमात्मा की याद में जुड़े रहने से (मनुष्य की) हरेक किस्म की चिंता मिट जाती है। (पर) परमात्मा के साथ वही मनुष्य जुड़ता है जिसे गुरू का उपदेश प्राप्त होता है। परमात्मा के साथ रंगे रहने से मौत का सहम नहीं रहता, और मनुष्य की सारी आशाएं पूरी हो जाती हैं।2। (हे भाई!) परमात्मा के चरणों में जुड़े रहने से कोई दुख छू नहीं सकता। जो मनुष्य परमात्मा की याद में मस्त रहता है, वह हर वक्त (विकारों के हमलों से) सुचेत रहता है। वह मनुष्य आत्मिक अडोलता की अवस्था में टिका रहता है। परमात्मा की याद में जुड़े रहने से मनुष्य की हरेक किस्म की भटकना मिट जाती है, हरेक सहम दूर हो जाता है।3। हे नानक! कह– मैं उन लोगों से सदके जाता हूँ, जिन्हें मेरा परमात्मा कभी नहीं भूलता।4।109। गउड़ी महला ५ ॥ उदमु करत सीतल मन भए ॥ मारगि चलत सगल दुख गए ॥ नामु जपत मनि भए अनंद ॥ रसि गाए गुन परमानंद ॥१॥ खेम भइआ कुसल घरि आए ॥ भेटत साधसंगि गई बलाए ॥ रहाउ ॥ नेत्र पुनीत पेखत ही दरस ॥ धनि मसतक चरन कमल ही परस ॥ गोबिंद की टहल सफल इह कांइआ ॥ संत प्रसादि परम पदु पाइआ ॥२॥ जन की कीनी आपि सहाइ ॥ सुखु पाइआ लगि दासह पाइ ॥ आपु गइआ ता आपहि भए ॥ क्रिपा निधान की सरनी पए ॥३॥ जो चाहत सोई जब पाइआ ॥ तब ढूंढन कहा को जाइआ ॥ असथिर भए बसे सुख आसन ॥ गुर प्रसादि नानक सुख बासन ॥४॥११०॥ {पन्ना 201-202} पद्अर्थ: सीतल मन = ठंडे मन वाले, शांत चित्त। मारगि = रास्ते में। सगल = सारे। मनि = मन में। रसि = प्रेम से। गुन परमानंद = परमानंद के गुण। परमानंद = सबसे ऊँचे आनंद का मालिक प्रभू।1। खेम = सुख। कुसल घरि = सुख के घर में, सुख की अवस्था में। भेटत = मिलने से। बलाऐ = माया चुड़ैल।1। रहाउ। नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र, पराया रूप देखने का बाण से रहित। पेखत = देखते हुए। धनि = धन्य, भाग्यशाली। मसतक = माथा। परस = छूह। कांइआ = शरीर। संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।2। सहाइ = सहायता। लगि = लग के। दासह पाइ = दासों के पैरों पर। आपु = स्वैभाव (शब्द ‘आपि’ और ‘आपु’ का फर्क याद रखने योग्य है)। आपहि = खुद ही, प्रभू स्वयं ही, परमात्मा का रूप ही। ता = कब। क्रिपा निधान = क्रिपा का खजाना।3। जो चाहत = जिसे मिलना चाहता है। सोई = वही (परमात्मा)। कहा = कहाँ? को = कोई। असथिर = स्थिर, अडोल अवस्था। सुख आसन = आनंद के आसन पर। सुख बासन = सुखों में बसने वाले।4। अर्थ: (हे भाई!) साध-संगति में मिलने से (माया-) चुड़ेल (की चिपकन) देर हो जाती है। (जो लोग साध-संगति में जुड़ते हैं उन्हें) सुख ही सुख प्राप्त होता है, वे आनंद की अवस्था में टिक जाते हैं।1। रहाउ। (हे भाई! साध-संगति में जाने का) उद्यम करते हुए (मनुष्य) शांत-चित्त हो जाते हैं। (साध-संगति के) रास्ते पर चलते हुए सारे दुख दूर हो जाते हैं (छू नहीं सकते)। (हे भाई!) सबसे उच्च आनंद का मालिक प्रभू के गुण प्रेम से गाने से, प्रभू का नाम जपने से मन में आनंद ही आनंद पैदा हो जाते हैं।1। (हे भाई!) गोबिंद के दर्शन करते ही आँखें पवित्र हो जाती हैं (विकार-वासना से रहित हो जाती हैं)। (हे भाई!) भाग्यशाली हैं वह माथे जिन्हें गोबिंद के सुंदर चरणों की छोह मिलती है। परमात्मा की सेवा-भगती करने से ये शरीर सफल हो जाता है। गुरू संत की कृपा से सबसे ऊंची आत्मिक अवस्था मिल जाती है।2। (हे भाई!) परमात्मा ने खुद जिस मनुष्य की सहायता की, उसने परमात्मा के भक्तों के चरणों में लग के आत्मिक आनंद पाया। जो मनुष्य दया के खजाने परमात्मा की शरण आ पड़े, उनके अंदर (जब) स्वैभाव दूर हो गया तब वे परमात्मा का रूप हो गए।3। (हे भाई!) जब किसी मनुष्य को (गुरू की कृपा से) वह परमात्मा ही मिल पड़ता है जिसे वह मिलना चाहता है, तब वह (बाहर जंगल पहाड़ों आदि में उसे) ढूँढने नहीं जाता। हे नानक! (परमात्मा को अपने ही अंदर ढूँढ लेने वाले मनुष्य) अडोल-चित्त हो जाते हैं, वे सदा आनंद अवस्था में टिके रहते हैं, गुरू की कृपा से वे सदा सुख में बसने वाले हो जाते हैं।4।110। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |