श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 202 गउड़ी महला ५ ॥ कोटि मजन कीनो इसनान ॥ लाख अरब खरब दीनो दानु ॥ जा मनि वसिओ हरि को नामु ॥१॥ सगल पवित गुन गाइ गुपाल ॥ पाप मिटहि साधू सरनि दइआल ॥ रहाउ ॥ बहुतु उरध तप साधन साधे ॥ अनिक लाभ मनोरथ लाधे ॥ हरि हरि नाम रसन आराधे ॥२॥ सिम्रिति सासत बेद बखाने ॥ जोग गिआन सिध सुख जाने ॥ नामु जपत प्रभ सिउ मन माने ॥३॥ अगाधि बोधि हरि अगम अपारे ॥ नामु जपत नामु रिदे बीचारे ॥ नानक कउ प्रभ किरपा धारे ॥४॥१११॥ {पन्ना 202} पद्अर्थ: मजन = स्नान, डुबकी। अरब खरब = सौ लाख का एक करोड़, सौ करोड़ का एक अरब, सौ अरब का एक खरब। मनि = मन में। जा मनि = जिस (मनुष्य) के मन में।1। गाइ = गा के। मिटहि = मिट जाते हैं। साधू = गुरू। रहाउ। उरध = उर्ध, ऊँचा, ऊँचा उल्टा लटक के। रसन = जीभ (से)।2। बखाने = उचारे, पढ़ लिए। माने = पतीज गए।3। अगाधि = अथाह। अगाधि बोधि = अथाह बोध वाला, जिसके पूर्ण स्वरूप का सही बयान नहीं हो सकता।4। अर्थ: (हे भाई!) सृष्टि के पालनहार प्रभू के गुण गा के सारे मनुष्य पवित्र हो सकते हैं। दया के श्रोत गुरू की शरण पड़ने से (सारे) पाप मिट जाते हैं। रहाउ। (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन में परमात्मा का नाम आ बसता है, उसने मानों करोड़ों तीर्थों में डुबकियां लगा ली हों, करोड़ों तीर्थों के स्नान कर लिए, उसने (मानो) लाखों रुपए अरबों रुपए खरबों रुपए दान कर दिए।1। (हे भाई!) जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपता है, उसने (मानो) उल्टा लटक के अनेकों तपों की साधनाएं साध लीं। उसने (मानो, रिद्धियों-सिद्धियों के) अनकों लाभ प्राप्त कर लिए।2। (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरते सिमरते जिस मनुष्य का मन परमात्मा में लीन हो जाता है, उसने (मानो) स्मृतियों-शास्त्रों-वेदों के उच्चारण कर लिए। उसने (जैसे) योग (की पेचीदिकियों) की सूझ हासिल कर ली है। उसने (मानो) सिद्धों को मिले सुखों से सांझ पा ली।3। (हे भाई!जिस मनुष्य पर प्रभू कृपा करता है, वह मनुष्य) उस अथाह हस्ती वाले अपहुँच और बेअंत परमात्मा का नाम जपता है, उसका नाम अपने हृदय में टिकाता है। (हे नानक! तू भी अरदास कर और कह–) हे प्रभू! मुझ नानक पर कृपा कर (ता कि मैं तेरा नाम जप सकूँ)।4।111। गउड़ी मः ५ ॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ ॥ चरन कमल गुर रिदै बसाइआ ॥१॥ गुर गोबिंदु पारब्रहमु पूरा ॥ तिसहि अराधि मेरा मनु धीरा ॥ रहाउ ॥ अनदिनु जपउ गुरू गुर नाम ॥ ता ते सिधि भए सगल कांम ॥२॥ दरसन देखि सीतल मन भए ॥ जनम जनम के किलबिख गए ॥३॥ कहु नानक कहा भै भाई ॥ अपने सेवक की आपि पैज रखाई ॥४॥११२॥ {पन्ना 202} पद्अर्थ: सिमरि = सिमर के। सुखु = आत्मिक आनंद। चरन कमल गुर = गुरू के सुंदर चरण (कमल फूल जैसे)। रिदै = हृदय में।1। पूरा = अभॅुल, सारे गुणों वाला। तिसहि = उस (गोबिंद) को। धीरा = धैर्य वाला। रहाउ। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जपउ = जपूँ, मैं जपता हूँ। ता ते = उस (जपने) की बरकति से। सिधि = सिद्धि, सफलता। सिधि सगल काम = सारे कामों की सफलता।2। देखि = देख के। सीतल मन = ठण्डे मन वाले। किलविख = पाप।3। नानक = हे नानक! भाई = हे भाई! भै = डर, खतरे (‘भउ’ का बहुवचन)। पैज = इज्जत।4। अर्थ: (हे भाई!) गोबिंद पारब्रहम् (सब हस्तियों से) बड़ा है। सारे गुणों का मालिक है (उसमें कोई किसी किस्म की कमी नहीं है)। उस गोबिंद को आराध के मेरा मन हौसले वाला बन जाता है (और अनेकों किलविखों का मुकाबला करने के काबिल हो जाता है)। रहाउ। (पर, हे भाई! गोबिंद की आराधना गुरू के द्वारा ही मिलती है। जिस मनुष्य ने) गुरू के सुंदर चरण अपने हृदय में बसाए हैं, उसने गोबिंद का नाम सिमर सिमर के आत्मिक आनंद पाया है।1। (हे भाई!) मैं हर समय गुरू का नाम याद रखता हूँ (गुरू की मेहर से ही गोबिंद का सिमरन प्राप्त होता है और) उस सिमरन की बरकति से सारे कामों में सफलता हासिल होती है।2। (हे भाई! गुरू के द्वारा हर जगह परमात्मा का) दर्शन करके (दर्शन करने वाले) ठण्डे-ठार मन वाले हो जाते हैं, और उनके अनेकों (पहले) जन्मों के किए हुए पाप नाश हो जाते हैं।3। हे नानक!कह– हे भाई! (गुरू की शरण पड़ के गोबिंद का नाम सिमरने से संसार के) सारे डर-खतरे मन से उतर जाते हैं (क्योंकि) सिमरन की बरकति से ये यकीन बन जाता है कि (गोबिंद) अपने सेवक की स्वयं लाज रखता है।4।112। गउड़ी महला ५ ॥ अपने सेवक कउ आपि सहाई ॥ नित प्रतिपारै बाप जैसे माई ॥१॥ प्रभ की सरनि उबरै सभ कोइ ॥ करन करावन पूरन सचु सोइ ॥ रहाउ ॥ अब मनि बसिआ करनैहारा ॥ भै बिनसे आतम सुख सारा ॥२॥ करि किरपा अपने जन राखे ॥ जनम जनम के किलबिख लाथे ॥३॥ कहनु न जाइ प्रभ की वडिआई ॥ नानक दास सदा सरनाई ॥४॥११३॥ {पन्ना 202} पद्अर्थ: कउ = वास्ते। सहाई = मददगार। नित = सदा। प्रतिपारै = पालना करता है, संभाल करता है।1। उबरै = (डर, खतरों, किलविखों से) बच जाता है। सभ कोइ = हरेक जीव। सचु = सदा कायम रहने वाला। सोइ = वह परमात्मा। रहाउ। अब = अब। मनि = मन में। करनैहारा = पैदा करने वाला प्रभू। सारा = संभाला है।2। करि = करके। किलविख = पाप।3। कहनु न जाइ = बताई नहीं जा सकती।4। अर्थ: (हे भाई!) हरेक मनुष्य (जो) परमात्मा की शरण में (आता है, सारे विकारों, डरों, सहिमों से) बच जाता है। उसे निश्चय बन जाता है कि वह सर्व व्यापक सदा कायम रहने वाला परमात्मा सब कुछ करने की स्मर्था रखता है और जीवों से सब कुछ करवाने वाला है। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा अपने सेवक के लिए (सदा) मददगार बना रहता है, सदा (अपने सेवक की) संभाल करता है जैसे माता और पिता (अपने बच्चे की संभाल करते हैं)।1। (हे भाई!) सब कुछ करने की स्मर्था रखने वाला परमात्मा (मेरे) मन में आ बसा है, अब मेरे सारे डर खतरे नाश हो गए हैं और मैं आत्मिक आनंद पा रहा हूँ।2। (हे भाई!) परमात्मा कृपा करके अपने सेवकों की स्वयं रक्षा करता है, उनके (पहले के) अनेकों जन्मों के (किए) पापों के संस्कार (उनके मन से) उतर जाते हैं।3। परमात्मा कितनी बड़ी स्मर्था वाला है– ये बात बयान नहीं की जा सकती। हे नानक! परमात्मा के सेवक सदा परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं।4।113। रागु गउड़ी चेती महला ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राम को बलु पूरन भाई ॥ ता ते ब्रिथा न बिआपै काई ॥१॥ रहाउ ॥ जो जो चितवै दासु हरि माई ॥ सो सो करता आपि कराई ॥१॥ निंदक की प्रभि पति गवाई ॥ नानक हरि गुण निरभउ गाई ॥२॥११४॥ {पन्ना 202-203} पद्अर्थ: को = का। पूरनु = हर जगह मौजूद। भाई = हे भाई! ता ते = उस बल की बरकति से। बिरथा = पीड़ा, दुख कलेश। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।1। रहाउ। दासु हरि = हरी का दास। माई = हे माँ। करता = करतार।1। प्रभि = प्रभू ने। पति = इज्जत। नानक = हे नानक!।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की ताकत हर जगह (अपना प्रभाव डाल रही है) (इस वास्ते जिस सेवक के सिर पर परमात्मा अपना मेहर का हाथ रखता है) उस ताकत की बरकति से (उस सेवक पे) कोई दुख कलेश अपना जोर नहीं डाल सकते।1। रहाउ। हे (मेरी) माँ! परमात्मा का सेवक जो जो मांग अपने मन में चितवता है, करतार स्वयं उसकी वह मांग पूरी कर देता है।1। हे नानक! (परमात्मा का सेवक) परमात्मा के गुण गाता रहता है (और दुनिया के डरों से) निडर हो जाता है। (पर सेवक के) दोखी-निंदक की इज्जत प्रभू ने लोक-परलोक में खुद गवा दी होती है।2।114। नोट: गउड़ी गुआरेरी के शबद समाप्त हो चुके हैं, अब यहाँ से गउड़ी चेती के शबद शुरू होते हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |