श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 203 गउड़ी महला ५ ॥ भुज बल बीर ब्रहम सुख सागर गरत परत गहि लेहु अंगुरीआ ॥१॥ रहाउ ॥ स्रवनि न सुरति नैन सुंदर नही आरत दुआरि रटत पिंगुरीआ ॥१॥ दीना नाथ अनाथ करुणा मै साजन मीत पिता महतरीआ ॥ चरन कवल हिरदै गहि नानक भै सागर संत पारि उतरीआ ॥२॥२॥११५॥ {पन्ना 203} पद्अर्थ: भुज = बाँह। बल = ताकत। भुज बल = जिसकी बाँहों में ताकत है, हे बलवान बाँहों वाले! सुख सागर = हे सुखों के समुंद्र। गरत = टोआ, गड्ढा। परत = पड़ता, गिरता। गहि लेहु = पकड़ लो। अंगुरीआ = उंगली।1। रहाउ। स्रवनि = श्रवण में, कान में। सुरति = सुनने की स्मर्था। आरत = दुखीया। दुआरि = (तेरे) दर पर। रटत = पुकारता। पिंगुरीआ = पिंगुला, पैर विहीन।1। दीना नाथ = हे गरीबों के पति!। करुणा मै = (करुणा+मय) तरस रूप, तरस भरपूर। महतरीआ = माँ। चरन कवल = कमल फूलों जैसे चरन। गहि = पकड़ के।2। अर्थ: हे बली बाहों वाले शूरवीर प्रभू! हे सुखों के समुंदर पारब्रहम्! (संसार समुंद्र के विकारों के) गड्ढे में गिरते हुए की (मेरी) उंगली पकड़ ले।1। रहाउ। (हे प्रभू! मेरे) कानों में (तेरी सिफत सालाह) सुनने (की सूझ) नहीं, मेरी आँखें (इतनी) सुंदर नहीं (कि हर जगह तेरा दीदार कर सकें), मैं तेरी साध-संगति में जाने के लायक भी नहीं हूँ, मैं पिंगला हो चुका हूँ और दुखी हो के तेरे दर पर पुकार करता हूँ (मुझे विकारों के गड्ढे में से बचा ले)।1। हे नानक! (कह–) हे गरीबों के पति! हे यतीमों पर तरस करने वाले! हे सज्जन! हे मित्र प्रभू! हे मेरे पिता! हे मेरी माँ प्रभू! तेरे संत तेरे सुंदर चरण अपने हृदय में रख कर संसार समुंद्र से पार लांघते हैं, (मेहर कर, मुझे भी अपने चरणों का प्यार बख्श और मुझे भी पार लंधा ले)।2।2।115। नोट: पहिला अंक 2 शबद के बंदों की गिनती बताता है। दूसरा अंक 2 बताता है कि ‘गउड़ी चेती’ का ये दूसरा शबद है। रागु गउड़ी बैरागणि महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ दय गुसाई मीतुला तूं संगि हमारै बासु जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ तुझ बिनु घरी न जीवना ध्रिगु रहणा संसारि ॥ जीअ प्राण सुखदातिआ निमख निमख बलिहारि जी ॥१॥ हसत अल्मबनु देहु प्रभ गरतहु उधरु गोपाल ॥ मोहि निरगुन मति थोरीआ तूं सद ही दीन दइआल ॥२॥ किआ सुख तेरे समला कवन बिधी बीचार ॥ सरणि समाई दास हित ऊचे अगम अपार ॥३॥ सगल पदारथ असट सिधि नाम महा रस माहि ॥ सुप्रसंन भए केसवा से जन हरि गुण गाहि ॥४॥ मात पिता सुत बंधपो तूं मेरे प्राण अधार ॥ साधसंगि नानकु भजै बिखु तरिआ संसारु ॥५॥१॥११६॥ {पन्ना 203} पद्अर्थ: दय = हे तर करने वाले! (दय = to feel pity)। मीतुला = प्यारा मित्र। बासु = वश।1। रहाउ। संसारि = संसार में। जीअ दातिआ = हे जिंद के देने वाले! निमख = आँख झपकने जितना समय (निर्मष)। बलिहार = मैं सदके जाता हूँ।1। अलंबनु = आसरा। हसत अलंबनु = हाथ का सहारा। प्रभ = हे प्रभू! गरतहु = गड्ढे से। उधरु = निकाल ले। मोहि = मेरी। सद ही = सदा ही।2। संमला = संमलां, मैं याद करूँ। कवन बिधी = किस किस तरीके से? सरणि समाई = हे शरण आए की समाई करने वाले! दास हित = हे दासों के हितैषी!3। असटि सिधि = आठ सिद्धियां। केसवा = (केशा: प्रशस्या: सन्ति अस्य) लंबे केशों वाला प्रभू! गाहि = गाते हैं।4। बंधपो = बंधप, रिश्तेदार। अधार = आसरा। नानक भजै = नानक सिमरता है। बिखु = जहिर।5।1।116। अर्थ: हे तरस करने वाले! हे सृष्टि के पति! तू मेरा प्यारा मित्र है, सदा मेरे साथ बसता रह।1। रहाउ। हे जिंद देने वाले! हे प्राण देने वाले! हे सुख देने वाले प्रभू! मैं तुझसे निमख निमख कुर्बान जाता हूँ। तेरे बिना एक घड़ी भर भी आत्मिक जीवन नहीं हो सकता और (आत्मिक जीवन के बिना) संसार में रहना धिक्कार-योग्य है।1। हे प्रभू! मुझे अपने हाथ का सहारा दे। हे गोपाल! मुझे (विकारों के) गड्ढों में से निकाल ले। मैं गुण हीन हूँ, मेरी मति होछी है। तू सदा ही गरीबों पर दया करने वाला है।2। हे ऊँचे! हे अपहुँच! हे बेअंत प्रभू! हे शरण आए की सहायता करने वाले प्रभू! हे अपने सेवकों के हितैषी प्रभू! मैं तेरे (दिए हुए) कौन कौन से सुख याद करूँ? मैं किस किस तरीकों से (तेरे बख्शे हुए सुखों की) विचार करूँ? (मैं तेरे दिए हुए बेअंत सुख गिन नहीं सकता)।3। हे भाई! दुनिया के सारे पदार्थ (योगियों की) आठों सिद्धियां सब से श्रेष्ठ राम-नाम-रस में मौजूद है। (हे भाई!) जिनपे सुंदर लंबे बालों वाला प्रभू प्रसन्न होता है, वे लोग प्रभू के गुण गाते रहते हैं।4। (हे दय!हे गुसांई!) हे मेरे प्राणों के आसरे प्रभू! माता, पिता, पुत्र, रिश्तेदार (सब कुछ मेरा) तू ही है। (तेरा दास) नानक (तेरी) साध-संगति में (तेरी मेहर से) तेरा भजन करता है। (जो मनुष्य तेरा भजन करता है वह विकारों के) जहिर भरे संसार से (सही सलामत आत्मिक जीवन ले के) पार लांघ जाता है।5।1।116। नोट: ‘गउड़ी बैरागणि’ का ये पहला शबद है। गउड़ी बैरागणि रहोए के छंत के घरि मः ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ है कोई राम पिआरो गावै ॥ सरब कलिआण सूख सचु पावै ॥ रहाउ ॥ बनु बनु खोजत फिरत बैरागी ॥ बिरले काहू एक लिव लागी ॥ जिनि हरि पाइआ से वडभागी ॥१॥ ब्रहमादिक सनकादिक चाहै ॥ जोगी जती सिध हरि आहै ॥ जिसहि परापति सो हरि गुण गाहै ॥२॥ ता की सरणि जिन बिसरत नाही ॥ वडभागी हरि संत मिलाही ॥ जनम मरण तिह मूले नाही ॥३॥ करि किरपा मिलु प्रीतम पिआरे ॥ बिनउ सुनहु प्रभ ऊच अपारे ॥ नानकु मांगतु नामु अधारे ॥४॥१॥११७॥ {पन्ना 203} पद्अर्थ: रहोआ = एक किस्म की धरणा का पंजाबी गीत जो लंबी तान ले के गाया जाता है। इसे विशेष तौर पर औरतें व्याह के समय गाती है। लंबी तान के इलावा टेक वाली पंक्ति भी बार-बार गाई जाती है। घरि = घर मे। रहोऐ के छंत के घरि = (इस शबद को उस ‘घर’ में गाना है) जिस घर में लंबी तान वाला बिआह का गीत गाया जाता है। सरब = सारे। कलिआण = सुख। सचु = सदा स्थिर रहने वाला प्रभू!। रहाउ। बनु बनु = जंगल जंगल। बैरागी = विरक्त। ऐक लिव = एक प्रभू की लगन। जिनि = जिस ने (शब्द ‘जिनि’ एकवचन है। इसके साथ बरता गया ‘से’ बहुवचन है। सो, इसका अर्थ करना है = जिस ने जिस ने, जिस जिस ने)।1। ब्रहमादिक = ब्रहमा आदि, ब्रहमा व अन्या देवते। सनकादिक = सनक आदि, सनक व उसके अन्य भाई सनंदन, सनातन, सनत कुमार। आहै = तमन्ना रखता है। गाहै = गाहता है, डुबकी लगाता है।2। जिन = जिन्हें (‘जिनि’ एकवचन, ‘जिन’ बहुवचन)। ता की = उनकी। मिलाही = मिलते हैं। तिह = उन्हें। मूले = बिल्कुल।3। प्रीतम = हे प्रीतम! बिनउ = विनती (विनय)। मांगतु = मांगता है।4। अर्थ: (हे भाई!) कोई विरला भाग्यशाली मनुष्य प्यारे के गुण गाता है, वह सारे सुख प्राप्त कर लेता है, सच्चे आनंद लेता है, सदा स्थिर परमात्मा को मिल पड़ता है। रहाउ। (हे भाई! परमात्मा को मिलने के लिए जो) कोई मनुष्य गृहस्थ से उपराम हो के जंगल-जंगल ढूँढता फिरता है (तो इस तरह परमात्मा नहीं मिलता)। किसी विरले मनुष्य की एक परमात्मा के साथ लगन लगती है। जिस जिस मनुष्य ने प्रभू को ढूँढ लिया है, वे सभी बड़े भाग्यशाली हैं।1। (हे भाई!) ब्रहमा व अन्य बड़े-बड़े देवतागण, सनक व उसके भाई सनंदन, सनातन, सनत कुमार - इनमें से हरेक प्रभू मिलाप चाहता है। जोगी-जती-सिध - हरेक परमात्मा को मिलने की चाहत रखता है। (पर जिसको धुर से) ये दाति मिली है, वही प्रभू के गुण गाता है।2। (हे भाई!) उनकी शरण पड़ें, जिन्हें परमात्मा कभी नहीं भूलता। परमात्मा के संतों को कोई बड़े भाग्यशाली ही मिल सकते हैं। उन संतों को जनम नरण के चक्कर नहीं व्यापते।3। हे प्यारे प्रीतम प्रभू! (मेरे पर) कृपा कर तथा (मुझे) मिल। हे सबसे ऊँचे और बेअंत प्रभू! (मेरी ये) विनती सुन। (तेरा दास) नानक (तुझसे तेरा) नाम (ही जिंदगी का) आसरा मांगता है।4।1।117। नोट: ‘गउड़ी बैरागणि’ का ये पहला शबद है। अंक1 यही दर्शाता है। इससे आगे ‘गउड़ी पूरबी’ के शबद आरम्भ होते हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |