श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 204 रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कवन गुन प्रानपति मिलउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥ रूप हीन बुधि बल हीनी मोहि परदेसनि दूर ते आई ॥१॥ नाहिन दरबु न जोबन माती मोहि अनाथ की करहु समाई ॥२॥ खोजत खोजत भई बैरागनि प्रभ दरसन कउ हउ फिरत तिसाई ॥३॥ दीन दइआल क्रिपाल प्रभ नानक साधसंगि मेरी जलनि बुझाई ॥४॥१॥११८॥ {पन्ना 204} पद्अर्थ: प्रानपति = जीवात्मा का मालिक प्रभू। मिलउ = मैं मिलूँ। माई = हे माँ!।1। रहाउ। हीन = खाली। बुधि हीनी = अक्ल से खाली। मोहि = मैं। दूर ते = दूर से, अनेकों जूनियों के सफर को पार करके।1। नाहिन = नहीं। दरबु = धन। जोबन = जवानी। माती = मस्त। समाई = लीनता। करहु समाई = लीन करो, अपने चरणों में जोड़ लो।2। बैरागनि = वैरागमयी। कउ = को, वास्ते। तिसाई = तिहाई, प्यासी।3। जलनि = जलन, विछुड़ने की जलन। साध संगि = साध-संगति ने। संगि = संग ने।4। अर्थ: हे मेरी माँ!मैं कौन से गुणों के बल पर अपनी जीवात्मा के मालिक प्रभू को मिल सकूँ? (मेरे में तो कोई भी गुण नहीं)।1। रहाउ। (हे मेरी माँ!) मैं आत्मिक रूप से खाली हूँ, बुद्धि हीन हूँ, (मेरे अंदर आत्मिक) शक्ति भी नहीं है (फिर) मैं परदेसन हूँ (मैंने प्रभू चरणों को कभी भी अपनी घर नहीं बनाया) अनेको जूनियों की यात्रा पार कर के (इस मानस जन्म में) आई हूँ।1। (हे मेरे प्राणपति!) मेरे पास तेरा नाम-धन नहीं है, मेरे अंदर आत्मिक गुणों का जोबन भी नहीं जिसका मुझे हुलारा आ सके (और मैं गर्व कर सकूँ)। मुझ अनाथ को अपने चरणों में जोड़ ले। (हे मेरी माँ!) अपने प्राणपति प्रभू के दर्शनों के लिए मैं प्यासी फिर रही हूँ, उसे ढूँढती-ढूँढती मैं कमली हुई पड़ी हूँ। हे नानक! (कह–) हे दीनों पर दया करने वाले! हे कृपा के घर! हे प्रभू! (तेरी मेहर से) साध-संगति ने मेरी ये विछोड़े की जलन बुझा दी है।4।1।118। गउड़ी महला ५ ॥ प्रभ मिलबे कउ प्रीति मनि लागी ॥ पाइ लगउ मोहि करउ बेनती कोऊ संतु मिलै बडभागी ॥१॥ रहाउ ॥ मनु अरपउ धनु राखउ आगै मन की मति मोहि सगल तिआगी ॥ जो प्रभ की हरि कथा सुनावै अनदिनु फिरउ तिसु पिछै विरागी ॥१॥ पूरब करम अंकुर जब प्रगटे भेटिओ पुरखु रसिक बैरागी ॥ मिटिओ अंधेरु मिलत हरि नानक जनम जनम की सोई जागी ॥२॥२॥११९॥ {पन्ना 204} पद्अर्थ: मिलबे कउ = मिलने के वास्ते। मनि = मन में। पाइ = पैरों में। लगउ = मैं लगूँ। करउ = मैं करूँ।1। रहाउ। अरपउ = मैं हवाले कर दूँ। मति = अक्ल, चतुराई। मोहि = मैं। अनदिनु = हर रोज। विरागी = बउरी, प्यार में पागल हुई।1। पूरब करम अंकुर = पहिले जन्म में किए हुए कर्मों के संस्कारों के अंगूर। प्रगटे = प्रगट हो गए। रसिक = (सब जीवों में व्यापक हो के) रस का आनंद लेने वाला। बैरागी = विरक्त, निर्लिप। अंधेरु = अंधेरा। मिलत = मिलने से। सोई = सोई हुई।2। अर्थ: (हे बहिन!) परमात्मा को मिलने के लिए मेरे मन में प्रीति पैदा हो गई है। (परमात्मा के साथ मिला सकने वाला अगर) बड़े भाग्यों वाला (गुरू-) संत मुझे मिल जाए तो मैं उसके पैर लगूँ। मैं उसके समक्ष बिनती करूँ (कि मुझे परमात्मा से मिला दे)।1। रहाउ। (हे बहिन!) जो (बड़े भाग्य वाला संत मुझे) परमात्मा के सिफत सालाह की बातें मुझे सुनाता रहे, मैं हर वक्त उसके पीछे-पीछे प्रेम में कमली हुई फिरती रहूँ। मैं अपना मन उसके हवाले कर दूँ, मैं अपना धन उसके आगे रख दूँ। (हे बहिन!) मैंने अपने मन की सारी चतुराई छोड़ दी है।1। हे नानक! (कह–) पहले जन्मों में किए भले कर्मों के संस्कारों के अंगूर जिस जीव स्त्री के प्रकट हो गए, उसको वह सर्व-व्यापक प्रभू मिल पड़ा है। जो सभी जीवों में बैठा सभी रस भोगने वाला है ओर जो रसों से निर्लिप भी है। परमात्मा को मिलते ही उस जीव स्त्री के अंदर से मोह का अंधकार दूर हो जाता है। वह अनेकों जन्मों से माया के मोह में सोई हुई जाग पड़ती है।2।2।119। गउड़ी महला ५ ॥ निकसु रे पंखी सिमरि हरि पांख ॥ मिलि साधू सरणि गहु पूरन राम रतनु हीअरे संगि राखु ॥१॥ रहाउ ॥ भ्रम की कूई त्रिसना रस पंकज अति तीख्यण मोह की फास ॥ काटनहार जगत गुर गोबिद चरन कमल ता के करहु निवास ॥१॥ करि किरपा गोबिंद प्रभ प्रीतम दीना नाथ सुनहु अरदासि ॥ करु गहि लेहु नानक के सुआमी जीउ पिंडु सभु तुमरी रासि ॥२॥३॥१२०॥ {पन्ना 204} पद्अर्थ: निकसु = (बाहर) निकल। हे = हे! पंखी = पक्षी। पांख = पंख। साधू = गुरूं। मिलि = मिल के। गहु = पकड़। हीअरे संगि = हृदय के साथ।1। रहाउ। भ्रम = माया की खातिर भटकना। कूई = कूप, कूआँ। पंकज = कीचड़। तीख्ण = तीक्ष्ण, तीखी, तेज। फास = फांसी। ता के चरन कमल = उसके सुंदर चरणों में।1। करि किरपा = कृपा कर। करु = हाथ। गहि लेहु = पकड़ लो। जीउ = जीवात्मा, जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, सरमाया।2। (नोट: ‘करि’ क्रिया है, जबकि ‘करु’ संज्ञा है)। अर्थ: हे जीव-पक्षी! (माया के मोह के घोंसले से बाहर) निकल। परमात्मा का सिमरन कर। (प्रभू का सिमरन) पंख हैं (इन पंखों की मदद से ही तू मोह के घोसले से उड़ के बाहर जा सकेगा)। (हे भाई!) गुरू को मिल के पूरन प्रभू का आसरा ले, परमात्मा नाम-रत्न अपने हृदय में (संभाल के) रख।1। रहाउ। (हे भाई! माया की खातिर) भटकना का कूआँ है, माया की तृष्णा और विकारों के चस्के (उस कूएं में) कीचड़ हैं, (जीवों के गले में पड़ी हुई) मोह की फाही बड़ी पक्की (तीखी) है। इस फांसी के काटने के काबिल जगत का गुरू गोबिंद ही है। (हे भाई!) उस गोबिंद के चरन-कमलों में निवास किए रह।1। हे गोबिंद! हे प्रीतम प्रभू! हे गरीबों के मालिक! हे नानक के स्वामी! मेहर कर, मेरी बिनती सुन, मेरा हाथ पकड़ ले (और मुझे इस कूएं में से निकाल ले) मेरी ये जीवात्मा तेरी दी हुई राशि है, मेरा ये शरीर तेरी बख्शी हुई पूँजी है (इस राशि-पूँजी को मोह के हाथों उजड़ने से तू स्वयं ही बचा ले)।2।3।120। गउड़ी महला ५ ॥ हरि पेखन कउ सिमरत मनु मेरा ॥ आस पिआसी चितवउ दिनु रैनी है कोई संतु मिलावै नेरा ॥१॥ रहाउ ॥ सेवा करउ दास दासन की अनिक भांति तिसु करउ निहोरा ॥ तुला धारि तोले सुख सगले बिनु हरि दरस सभो ही थोरा ॥१॥ संत प्रसादि गाए गुन सागर जनम जनम को जात बहोरा ॥ आनद सूख भेटत हरि नानक जनमु क्रितारथु सफलु सवेरा ॥२॥४॥१२१॥{पन्ना 204} पद्अर्थ: पेखन कउ = देखने के लिए। आस पिआसी = (दर्शन की) आस से व्याकुल। चितवउ = मैं याद करती हूँ। रैनी = रात। नेरा = नजदीक।1। रहाउ। करउ = मैं करूँ। निहोरा = मिन्नतें। तुला = तराजू। धारि = रख के। सगले = सारे। सभो ही = सुखों का ये सारा इकट्ठ। थोरा = कम, हलका।1। संत प्रसादि = गुरू संत की कृपा से। सागर = समुंद्र। जनम जनम को जात = अनेकों जन्मों का भटकता फिरता। बहोरा = मोड़ लाए। भेटत हरि = हरी को मिलने से। क्रितारथु = कृत+अर्थ, जिसकी जरूरत सफल हो गई। सवेरा = समय सिर।2। अर्थ: (हे बहिन!) प्रभू पति का दर्शन करने के लिए मेरा मन उसका सिमरन कर रहा है। उसके दर्शन की आस से व्याकुल हुई मैं दिन रात उसका नाम याद करती रहती हूँ। (हे बहिन! मुझे) कोई ऐसा संत (मिल जाए, जो मुझे उस प्रभू-पति से) नजदीक ही मिला दे।1। रहाउ। (हे बहिन! अगर वह गुरू संत मिल जाए तो) मैं उसके दासों की सेवा करूँ, मैं अनकों तरीकों से उसके आगे मिन्नतें करूँ। (हे बहिन!) तराजू पे रख के मैंने (दुनिया के) सारे सुख तोले हैं, प्रभू-पति के दर्शनों के बिना ये सारे ही सुख (तेरे दर्शन के सुख से) हल्के हैं।1। हे नानक! जो मनुष्य गुरू की कृपा से गुणों के समुंद्र परमात्मा के गुण गाता है (गुरू परमेश्वर उसे) अनेकों जन्मों के भटकते को (जनम-जनम के चक्करों में से) वापस ले आता है। हे नानक! परमात्मा को मिलने से बेअंत सुख आनंद प्राप्त हो जाते हैं, मानस जनम का मनोरथ पूरा हो जाता है। जनम समय रहते (इसी जन्म में) सफल हो जाता है।2।4।121। नोट: ये ऊपर के 4 शबद ‘गउड़ी पूरबी’ के हैं। पर इन्हें किसी खास ‘घर’ में गाने की हिदायत नहीं दी गई। आगे भी ‘गउड़ी पूरबी’ के ही शबद हैं। पर वह अलग संग्रह में रखे गए हैं। उनके वास्ते ‘घर’ १, २ आदि नियत किया गया है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |