श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ परदेसु झागि सउदे कउ आइआ ॥ वसतु अनूप सुणी लाभाइआ ॥ गुण रासि बंन्हि पलै आनी ॥ देखि रतनु इहु मनु लपटानी ॥१॥ साह वापारी दुआरै आए ॥ वखरु काढहु सउदा कराए ॥१॥ रहाउ ॥ साहि पठाइआ साहै पासि ॥ अमोल रतन अमोला रासि ॥ विसटु सुभाई पाइआ मीत ॥ सउदा मिलिआ निहचल चीत ॥२॥ भउ नही तसकर पउण न पानी ॥ सहजि विहाझी सहजि लै जानी ॥ सत कै खटिऐ दुखु नही पाइआ ॥ सही सलामति घरि लै आइआ ॥३॥ मिलिआ लाहा भए अनंद ॥ धंनु साह पूरे बखसिंद ॥ इहु सउदा गुरमुखि किनै विरलै पाइआ ॥ सहली खेप नानकु लै आइआ ॥४॥६॥ {पन्ना 372}

पद्अर्थ: परदेसु = (चौरासी लाख जूनियों वाला) पराया देश। झागि = मुश्किलों से गुजर के। कउ = वास्ते। अनूप = जिस जैसी और कोई ना हो, अति सुंदर। लाभाइआ = लाहेवंदी, लाभ वाला। बंनि् = बांध के। पलै = पल्ले में। आनी = ले आई। देखि = देख के। लपटानी = लिपट गई, रीझ गई।1।

साह = हे शाह! हे गुरू! दुआरै = द्वारे पर, दरवाजे पे। कराऐ = करा के।1। रहाउ।

साहि = शाह ने, परमात्मा ने। पठाइआ = भेजा। साहै पासि = शाह के पास, गुरू के पास। अमोल = जिसके बदले बराबर की कोई वस्तु ना हो। विसटु = वकील, विचोला। सुभाई = प्रेम करने वाला। निहचल = अडोल।2।

तसकर = चोर। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सत कै खटिअै = इमानदारी से कमाने पर। घरि = हृदय घर में।3।

लाहा = लाभ। धंनु = धन्यता योग्य, सराहनीय। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। सहली = सफली। खेप = सौदा।4।

अर्थ: हे शाह! हे सतिगुरू! तेरे दर पे (नाम का वणज करने वाले) जीव-व्यापारी आए हैं (तू अपने खजाने में से नाम का) सौदा निकाल के इन्हें सौदा करने की जाच सिखा।1। रहाउ।

हे शाह! (चौरासी लाख जूनियों वाला) पराया देश बड़ी मुश्किलों से पार करके मैं (तेरे दर पे नाम का) सौदा करने आया हूँ। मैंने सुना है कि नाम-वस्तु बड़ी अनुपम है और लाभदायक है। हे गुरू! मैंने गुणों की सरमाया पल्ले बाँध के लाया हूँ, प्रभू का नाम-रत्नदेख के मेरा ये मन (इसे खरीदने के लिए) रीझ गया है।1।

(हे भाई!) परमात्मा-शाह ने मुझे गुरू के पास भेजा (गुरू के दर पर मुझे वह) रत्न मिल गया है वह राशि प्राप्त हो गई है, दुनिया में जिसके बराबर की कीमत का कोई पदार्थ नहीं है। (परमात्मा की मेहर से मुझे) प्यार भरे हृदय वाला विचोला मित्र मिल गया है, उससे परमात्मा के नाम का सौदा मिला है और मेरा मन दुनिया के पदार्थों की ओर डोलने से हट गया है।2।

(हे भाई! इस रत्न को इस सरमाए को) चोरों से खतरा नहीं, हवा से डर नहीं, पानी से भय नहीं (ना चोर चुरा सकते हैं ना तुफान उड़ा सकते हैं ना ही पानी डुबा सकता है)। आत्मिक अडोलता की बरकति से ये रत्न मैंने (गुरू से) खरीदा है, आत्मिक अडोलता में टिका रहके ये रत्न मैं अपने साथ ले जाऊँगा। ईमानदारी से कमाने के कारण इस रत्न को हासिल करने में मुझे कोई दुख नहीं सहना पड़ा, और ये नाम-सौदा मैं सही सलामत संभाल के अपने हृदय-घर में ले आया हूँ।3।

हे पूरी बख्शिशें करने वाले शाह प्रभू! मैं तुझे ही सलाहता हॅू (तेरी मेहर से मुझे तेरे नाम का) लाभ मिला है और मेरे अंदर आनंद पैदा हो गया है।

हे भाई! किसी विरले भाग्यवान ने ही गुरू की शरण पड़ कर (प्रभू के नाम का) सौदा प्राप्त किया है (गुरू की शरण पड़ के ही) नानक भी ये लाभदायक सौदा कमा सका है।4।6।

आसा महला ५ ॥ गुनु अवगनु मेरो कछु न बीचारो ॥ नह देखिओ रूप रंग सींगारो ॥ चज अचार किछु बिधि नही जानी ॥ बाह पकरि प्रिअ सेजै आनी ॥१॥ सुनिबो सखी कंति हमारो कीअलो खसमाना ॥ करु मसतकि धारि राखिओ करि अपुना किआ जानै इहु लोकु अजाना ॥१॥ रहाउ ॥ सुहागु हमारो अब हुणि सोहिओ ॥ कंतु मिलिओ मेरो सभु दुखु जोहिओ ॥ आंगनि मेरै सोभा चंद ॥ निसि बासुर प्रिअ संगि अनंद ॥२॥ बसत्र हमारे रंगि चलूल ॥ सगल आभरण सोभा कंठि फूल ॥ प्रिअ पेखी द्रिसटि पाए सगल निधान ॥ दुसट दूत की चूकी कानि ॥३॥ सद खुसीआ सदा रंग माणे ॥ नउ निधि नामु ग्रिह महि त्रिपताने ॥ कहु नानक जउ पिरहि सीगारी ॥ थिरु सोहागनि संगि भतारी ॥४॥७॥ {पन्ना 372}

पद्अर्थ: बीचारो = विचारा, विचार किया। चज = सुचॅज। अचार = आचार, अच्छा आचरण। बिधि = ढंग, तरीका, जाच। जानी = सीखी, जानकारी हासिल की। पकरि = पकड़ के। प्रिअ = प्यारे ने। आनी = ले के आए।1।

बो सखी = हे सखी! कंति = कंत ने। कीअलो = किया। खसमाना = पति वाला फर्ज, संभाल। करु = हाथ (एक वचन)। मसतकि = माथे पर। धारि = रख के। अजाना = अंजान, मूर्ख।1। रहाउ।

सुहागु = अच्छे भाग्य। सोहिओ = शोभा दे रहा है, चमका है। जोहिओ = ध्यान से देखा है (जैसे कोई हकीम किसी रोगी का दुख ध्यान से देखता है)। आंगनि = (हृदय रूपी) आंगन में। निसि = रात। बासुर = दिन। संगि = साथ, संगत में।2।

रंगि चलूल = गाढ़े रंग में। सगल = सारे। आभरण = आभूषण, गहने। कंठि = गले में। पेखी = देखा। द्रिसिअ = दृष्टि, निगाह, नजर। निधान = खजाने। देत = वैरी। कानि = काणि, धौंस, दबाव।3।

सद = सदा। नउनिधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। ग्रिह महि = (हृदय-) घर में। त्रिपताने = संतोष आ गया। जउ = जब। पिरहि = पिर ने, पति ने। सीगारी = सजा दी, सुंदर बना दी। संगि = साथ। थिरु = स्थिर, अडोल चित्त।4।

अर्थ: हे (मेरी) सहेलिए! सुन मेरे पति-प्रभू ने (मेरी) संभाल की है, (मेरे) माथे पर (अपना) हाथ रख के उसने मुझे अपना समझ के रक्षा की है। पर, ये मूर्ख जगत इस (भेद) को क्या समझे?।1। रहाउ।

(हे सहेली! मेरे पति ने) मेरा कोई गुण नहीं विचारा मेरा कोई अवगुण नहीं ताका। उसने मेरा रूप नहीं देखा,रंग नहीं देखा, मैंने कोई सुचॅज नहीं था सीखा हुआ, मैं कोई उच्च आचरण का ढंग नहीं थी जानती। फिर भी, (हे सहेलियो!) मेरी बाँह पकड़ के प्यारे (प्रभू-पति) मुझे अपनी सेज पर ले आए।1।

(हे सहेलियो!) अब मेरा बढ़िया सितारा चमक उठा है, मेरा प्रभू-पति मुझे मिल गया है, उसने मेरा सारा रोग ध्यान से देख लिया है। मेरे (हृदय के) आंगन में शोभा का चाँद चढ़ आया है। मैं रात-दिन प्यारे (प्रभू-पति) के साथ आनंद ले रही हूँ।2।

(हे सहेली!) प्यारे (प्रभू-पति) ने मुझे (प्यार भरी) निगाह से देखा है (अब, जैसे) मैंने सारे ही खजाने प्राप्त कर लिए हैं, मेरे (सालू आदि) कपड़े, गाढ़े रंग में रंगे गए हैं, सारे गहने (मेरे शरीर पर फब रहे हैं) फूलों के हार मेरे गले में शोभायमान हैं। अब, हे सहेलिए! (कामादिक) बुरे वैरियों की धौंस (मेरे पर) नहीं चलती।3।

(हे सहेली! जगत के सारे) नौ-खजानों (जैसा) परमात्मा का नाम मेरे हृदय-घर में आ के बसा है, मेरी सारी तृष्णा समाप्त हो चुकी है, मुझे अब सदा खुशियां ही खुशियां हैं, मैं अब सदा आत्मिक आनंद ले रही हूँ।

हे नानक! (कह–) जब (किसी जीव-स्त्री को) प्रभू-पति ने सुंदर जीवन वाली बना दिया, वह प्रभू-पति के चरणों में जुड़ के अच्छे भाग्यों वाली बन गई, वह सदा के लिए अडोल चित्त हो गई।4।7।

आसा महला ५ ॥ दानु देइ करि पूजा करना ॥ लैत देत उन्ह मूकरि परना ॥ जितु दरि तुम्ह है ब्राहमण जाणा ॥ तितु दरि तूंही है पछुताणा ॥१॥ ऐसे ब्राहमण डूबे भाई ॥ निरापराध चितवहि बुरिआई ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि लोभु फिरहि हलकाए ॥ निंदा करहि सिरि भारु उठाए ॥ माइआ मूठा चेतै नाही ॥ भरमे भूला बहुती राही ॥२॥ बाहरि भेख करहि घनेरे ॥ अंतरि बिखिआ उतरी घेरे ॥ अवर उपदेसै आपि न बूझै ॥ ऐसा ब्राहमणु कही न सीझै ॥३॥ मूरख बामण प्रभू समालि ॥ देखत सुनत तेरै है नालि ॥ कहु नानक जे होवी भागु ॥ मानु छोडि गुर चरणी लागु ॥४॥८॥ {पन्ना 372}

पद्अर्थ: देइ करि = दे के। लैत देत = लेते देते। उन् = उन (ब्राहमणों) ने। मूकरि परना = मुकर जाना, जजमानों के दिए दान और जजमानों का कभी एहसान ना मानना। जितु दरि = जिस (प्रभू-) दर पे। ब्राहमण = हे ब्राहमण! तितु दरि = उस दर पे।1।

डूबे = (माया के मोह में) डूबे हुए। भाई = हे भाई! निरापराध = निर अपराध, निर्दोषों की। चितवहि बुरिआई = नुकसान करने की सोचें सोचते रहते हैं।1। रहाउ।

अंतरि = अंदर, मन में। हलकाऐ = हलके हुए। सिरि = सिर पर। उठाऐ = उठा के। मूठा = ठॅगा हुआ, आत्मिक जीवन का सरमाया लुटा चुका है। भरमे = भटकना में।2।

करहि = करते हैं। घनेरे = बहुत। बिखिआ = माया। घेरे = घेर के। उतरी = डेरा लगाए बैठी है। अवर = औरों को। न सीझै = कामयाब नहीं होता। कही = कहीं भी।3।

बामण = हे ब्राहमण! होवी = हो। छोडि = छोड़ के।4।

अर्थ: हे भाई! ऐसे ब्राहमणों को (माया के मोह में) डूबे हुए जानो जो निर्दोष लोगों को भी नुकसान पहुँचाने की सोचें सोचते रहते हैं (ऊँची जाति का होना, अथवा वेद-शास्त्र पढ़े होना भी उनके आत्मिक जीवन को गर्क होने से नहीं बचा सकता, अगर वे दूसरों का बुरा देखते रहते हैं)।1। रहाउ।

(हे भाई! देखो ऐसे ब्राहमणों का हाल! जजमान तो) उन्हें दान दे के उनकी पूजा-मान्यता करते हैं, पर वे ब्राहमण लेते-देते भी (सब कुछ हासिल करते हुए भी) सदा मुकरे रहते हैं (कभी अपने जजमानों का धन्यवाद तक नहीं करते। बल्कि दान ले के भी यही जाहिर करते हैं कि हम जजमानों का परलोक सवार रहे हैं)। पर, हे ब्राहमण! (ये याद रख) जिस प्रभू-दर पर (आखिर) तूने पहुँचना है उस दर पर तू ही (अपनी इन करतूतों के कारण) पछताएगा।1।

हे भाई! वैसे तो ये ब्राहमण अपने आप को वेद आदि धर्म-पुस्तकों का ज्ञाता जाहिर करते हैं, पर इनके मन में लोभ (प्रबल हिलोरे ले रहा है, ये लोभ के कारण) हलकाए हुए फिरते हैं। अपने आप को विद्वान जाहिर करते हुए भी ये (दूसरों की) निंदा करते फिरते हैं, अपने सिर पर निंदा का भार उठाए फिरते हैं।

(हे भाई!) माया (के मोह) के हाथों अपने आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी लुटा बैठा ये ब्राहमण परमात्मा को याद नहीं करता (इस तरफ) ध्यान नहीं देता। माया की भटकना के कारण गलत रास्ते पर पड़ा हुआ ब्राहमण कई दिशाओं से दुखी हुआ फिरता है।2।

(हे भाई!) ऐसे ब्राहमणों के अपने अंदर तो माया घेर के डेरा डाले बैठी है पर बाहर (लोगों को पतियाने के लिए, अपने आप को लोगों का धार्मिक आगू जाहिर करने के वास्ते) कई (धार्मिक) भेष करते हैं।

(हे भाई! जो ब्राहमण) औरों को तो (धर्म का) उपदेश करता है, पर स्वयं (उस धर्म को) नहीं समझता, ऐसा ब्राहमण (लोक-परलोक) कहीं भी कामयाब नहीं होता।3।

हे नानक! (ऐसे ब्राहमण को कह–) हे मूर्ख ब्राहमण! परमात्मा को (अपने हृदय में) याद किया कर, वह परमात्मा (तेरे सारे काम) देखता (तेरी सारी बातें) सुनता (सदैव) तेरे साथ रहता है। अगर तेरे भाग्य जागें तो (अपनी उच्च जाति और विद्ववता का) गुमान त्याग के गुरू की शरण पड़।4।8।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh