श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ हरि सेवा महि परम निधानु ॥ हरि सेवा मुखि अम्रित नामु ॥१॥ हरि मेरा साथी संगि सखाई ॥ दुखि सुखि सिमरी तह मउजूदु जमु बपुरा मो कउ कहा डराई ॥१॥ रहाउ ॥ हरि मेरी ओट मै हरि का ताणु ॥ हरि मेरा सखा मन माहि दीबाणु ॥२॥ हरि मेरी पूंजी मेरा हरि वेसाहु ॥ गुरमुखि धनु खटी हरि मेरा साहु ॥३॥ गुर किरपा ते इह मति आवै ॥ जन नानकु हरि कै अंकि समावै ॥४॥१६॥ {पन्ना 375}

पद्अर्थ: परम निधानु = सब से ऊँचा (आत्मिक) खजाना (शब्द ‘निधान’ एक वचन है)। मुखि = मुंह से। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।1।

संगि = साथ। सखाई = मित्र। दुखि = दुख में, दुख के समय। सुखि = सुख में, सुख के समय। सिमरी = सिमरीं, (जब) मैं सिमरता हूँ। तह = वहाँ। बपुरा = विचारा, निमाणा।1। रहाउ।

ताणु = बल, जोर। मै = मुझे। दीबाणु = आसरा।2।

वेसाहु = ऐतबार, साख। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। खटी = कमाई, मैं कमाता हूँ।3।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा मेरा साथी है मित्र है। दुख के समय सुख के वक्त (जब भी) मैं उसको याद करता हूँ, वह वहाँ हाजिर होता है। सो, विचारा जम (यम) मुझे कहाँ डरा सकता है? ।1। रहाउ।

(हे भाई!) परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम मुंह से उचारना- ये परमात्मा की सेवा है, और, परमात्मा की सेवा में सब से ऊँचा (आत्मिक जीवन का) खजाना (छुपा हुआ है)।1।

(हे भाई!) परमात्मा ही मेरी ओट है, मुझे परमात्मा का ही सहारा है, परमात्मा मेरा मित्र है, मुझे अपने मन में परमात्मा का ही आसरा है।2।

परमात्मा (का नाम ही) मेरी राशि-पूँजी है, परमात्मा (का नाम ही) मेरे वास्ते (आत्मिक जीवन का व्यापार करने के लिए) साख है (ऐतबार का वसीला है)। गुरू की शरण पड़ के मैंनाम-धन कमा रहा हूँ, परमात्मा ही मेरा शाह है (जो मुझे नाम-धन का सरमाया देता है)।3।

दास नानक (कहता है कि जिस मनुष्य को) गुरू की कृपा से इस व्यापार की समझ आ जाती है वह सदा परमात्मा की गोद में लीन रहता है।4।16।

आसा महला ५ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु त इहु मनु लाई ॥ सतिगुरु सेवि सभै फल पाई ॥१॥ मन किउ बैरागु करहिगा सतिगुरु मेरा पूरा ॥ मनसा का दाता सभ सुख निधानु अम्रित सरि सद ही भरपूरा ॥१॥ रहाउ ॥ चरण कमल रिद अंतरि धारे ॥ प्रगटी जोति मिले राम पिआरे ॥२॥ पंच सखी मिलि मंगलु गाइआ ॥ अनहद बाणी नादु वजाइआ ॥३॥ गुरु नानकु तुठा मिलिआ हरि राइ ॥ सुखि रैणि विहाणी सहजि सुभाइ ॥४॥१७॥ {पन्ना 375}

पद्अर्थ: क्रिपालु = (कृपा+आलय) दयावान। लाई = मैं लगाऊँ। सेवि = सेवा करके। पाई = मैं पाऊँ।1।

मन = हे मन! किउ बैरागु करहिगा = क्यूँ घबराता है? मनसा = मन का फुरना, इच्छा। दाता = देनेवाला। सुख निधानु = सुखों का खजाना। अंम्रित सरि = अम्रितके सरोवर गुरू में। भरपूरा = नको नाक भरा हुआ।1। रहाउ।

रिद = हृदय।2।

पंच सखी = पाँच सहेलियां, पाँच ज्ञानेंद्रियां। मंगलु = सिफत सालाह के गीत। अनहद = एक रस, लगातार। बाणी = सिफत सालाह की बाणी (का)। नादु = बाजा।3।

तुठा = प्रसन्न हुआ। हरि राइ = प्रभू पातशाह। सुखि = सुख में। रैणि = रात। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में।4।

अर्थ: हे मेरे मन! तू क्यूँ घबराता है? (यकीन रख, तेरे सिर पर वह) प्यारा सतिगुरू (रखवाला) है जो मन की जरूरतें पूरी करने वाला है जो सारे सुखों का खजाना है और जिस अमृत के सरोवर-गुरू में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल नाको-नाक भरा हुआ है।1। रहाउ।

(हे भाई!) यदि परमात्मा दयावान हो तो ही मैं ये मन (गुरू के चरणों में) जोड़ सकता हूँ, तब ही गुरू की (बताई) सेवा करके मन-इच्छित फल प्राप्त कर सकता हूँ।1।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने अपने हृदय में (गुरू के) सुंदर चरण टिका लिए हैं (उसके अंदर) परमात्माकी ज्योति जग पड़ी, उसे प्यारा प्रभू मिल गया।2।

उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों ने मिल के परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी का बाजा एक-रस बजाना शुरू कर दिया।3।

हे नानक! जिस मनुष्य पे गुरू प्रसन्न हो गया उसे प्रभू पातशाह मिल गया, उसकी (जिंदगी की) रात सुख में आत्मिक अडोलता में बीतने लगी।4।17।

आसा महला ५ ॥ करि किरपा हरि परगटी आइआ ॥ मिलि सतिगुर धनु पूरा पाइआ ॥१॥ ऐसा हरि धनु संचीऐ भाई ॥ भाहि न जालै जलि नही डूबै संगु छोडि करि कतहु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ तोटि न आवै निखुटि न जाइ ॥ खाइ खरचि मनु रहिआ अघाइ ॥२॥ सो सचु साहु जिसु घरि हरि धनु संचाणा ॥ इसु धन ते सभु जगु वरसाणा ॥३॥ तिनि हरि धनु पाइआ जिसु पुरब लिखे का लहणा ॥ जन नानक अंति वार नामु गहणा ॥४॥१८॥ {पन्ना 375}

पद्अर्थ: करि = कर के। मिलि = मिल के। धनु पूरा = कभी ना कम होने वाला नाम घन।1।

संचीअै = एकत्र करना चाहिए। भाई = हे भाई! भाहि = आग। जालै = जलाए। जलि = पानी में। संगु = साथ। छोडि करि = छोड़ के। कतहु = किसी और जगह।1। रहाउ।

तोटि = घाटा। खाइ = खा के, खुद इस्तेमाल करके, खुद जप के। खरचि = खर्च के, बाँट के। रहिआ अघाइ = तृप्त रहता है।2।

सचु = सदा कायम रहने वाला। साहु = साहूकार। घटि = हृदय घर में। संचाणा = जमा हो गया। ते = से। वरसाणा = लाभ उठाता है।3।

तिनि = उस (मनुष्य) ने। पुरब लिखे का = पूर्बले जन्मों में किए भले कर्मों के संस्कारों के अनुसार। लहणा = प्राप्ति। अंति वार = आखिरी समय।4।

अर्थ: हे वीर! ऐसा परमात्मा का नाम-धन एकत्र करना चाहिए जिसे आग जला नहीं सकती, जो पानी में डूबता नहीं और जो साथ छोड़ के किसी भी और जगह नहीं जाता।1। रहाउ।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने सतिगुरू को मिल के कभी ना कम होने वाला नाम-धन हासिल कर लिया, परमात्मा कृपा करके उसके अंदर स्वयं आ के प्रत्यक्ष होता है।1।

(हे भाई! परमात्मा का नाम ऐसा धन है जिस में) कभी घाटा नहीं पड़ता जो कभी नहीं खत्म होता। ये धन खुद बरत के औरों को बाँट के (मनुष्य का) मन (दुनिया की धन-लालसा की ओर से) संतुष्ट (तृप्त) रहता है।2।

(हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय-घर में परमात्मा का नाम-धन जमा हो जाता है वही मनुष्य सदा के लिए शाहूकार बन जाता है। उसके इस धन से सारा जगत लाभ उठाता है।3।

(पर, हे भाई!) उस मनुष्य ने ये हरि-धन हासिल किया है, जिसके भाग्यों में पूर्बले किए भले कर्मों के संस्कारों के अनुसार इसकी प्राप्ति लिखी होती है। हे दास नानक! (कह–) परमात्मा का नाम-धन (मनुष्य की जिंद के वास्ते) आखिरी वक्त का गहना है।4।18।

आसा महला ५ ॥ जैसे किरसाणु बोवै किरसानी ॥ काची पाकी बाढि परानी ॥१॥ जो जनमै सो जानहु मूआ ॥ गोविंद भगतु असथिरु है थीआ ॥१॥ रहाउ ॥ दिन ते सरपर पउसी राति ॥ रैणि गई फिरि होइ परभाति ॥२॥ माइआ मोहि सोइ रहे अभागे ॥ गुर प्रसादि को विरला जागे ॥३॥ कहु नानक गुण गाईअहि नीत ॥ मुख ऊजल होइ निरमल चीत ॥४॥१९॥ {पन्ना 375}

पद्अर्थ: किरसाणु = किसान। किरसानी = खेती, पैली। काची = कच्ची। पाकी = पक्की। बाढि = काट लेता है। परानी = हे प्राणी!।1।

जानहु = यकीन जानो। असथिरु = (मौत के सहम से) अडोल चित्त। थीआ = हो गया है।1। रहाउ।

ते = से। सरपर = जरूर। पउसी = पड़ेगी। रैणि = रात। परभाति = सवेर।2।

मोहि = मोह में। अभागे = बद नसीब लोग। को = कोई।3।

गाइअहि = गाए जाने चाहिए। नीत = सदा। चीत = चित्त, मन। निरमल = पवित्र।4।

अर्थ: हे प्राणी! (जैसे) कोई किसान खेती बीजता है (और जब जी चाहे) उसे काट लेता है (चाहे वह) कच्ची (चाहे हो) पक्की (इसी प्रकार मनुष्य पर मौत किसी भी वक्त आ सकती है)।1।

(हे भाई!) यकीन जानो कि जो जीव पैदा होता है वह मरता भी (जरूर) है। परमात्मा का भगत (इस अटॅल नियम को जानता हुआ मौत के सहम से) अडोल-चित्त हो जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) दिन से अवश्य रात पड़ जाएगी, रात (भी) खत्म हो जाती है फिर दुबारा सवेर हो जाती है (इस तरह जगत में जनम और मरन का सिलसिला चला रहता है)।2।

(ये जानते हुए भी कि मौत जरूर आनी है) बद-नसीब लोग मायाके मोह में (फस के जीवन मनोरथ से) गाफिल हुए रहते हैं। कोई विरला मनुष्य ही गुरू की कृपा से (मोह की नींद) से जागता है।

हे नानक! कह– (हे भाई!) सदा परमात्मा के गुण गाए जाने चाहिए (इस उद्यम की बरकति से, एक तो, लोक-परलोक में) मुख उजला हो जाता है, दूसरा (मन) भी पवित्र हो जाता है।4।19।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh