श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ नउ निधि तेरै सगल निधान ॥ इछा पूरकु रखै निदान ॥१॥ तूं मेरो पिआरो ता कैसी भूखा ॥ तूं मनि वसिआ लगै न दूखा ॥१॥ रहाउ ॥ जो तूं करहि सोई परवाणु ॥ साचे साहिब तेरा सचु फुरमाणु ॥२॥ जा तुधु भावै ता हरि गुण गाउ ॥ तेरै घरि सदा सदा है निआउ ॥३॥ साचे साहिब अलख अभेव ॥ नानक लाइआ लागा सेव ॥४॥२०॥ {पन्ना 376}

पद्अर्थ: तेरै = तेरे घर में (हे प्रभू!)। सगल = सारे। निधि = खजाना। निधान = खजाने। इछा पूरक = इच्छा पूरी करने वाला। रखै = रक्षा करता है। निदान = अंत को (जब और सारे आसरे छोड़ के जीव उसकी शरण पड़ता है)।1।

भूखा = भूख, तृष्णा। मनि = मन में।1। रहाउ।

परवाणु = कबूल। साचे साहिब = हे सदा स्थिर रहने वाले मालिक! सचु = सदा कायम रहने वाला। फुरमाणु = हुकम।2।

तुधु = तुझे। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। घरि = घर में। निआउ = न्याय।3।

अलख = जिसका सही रूप बयान ना किया जा सके। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।4।

अर्थ: (हे प्रभू!) जब तू मेरे साथ प्यार करने वाला है (और मुझे सब कुछ देने वाला है) तो मुझे कोई तृष्णा नहीं रह सकती। अगर तू मेरे मन में टिका रहे तो कोई भी दुख मुझे छू नहीं सकता।1। रहाउ।

(हे प्रभू!) तेरे घर में (जगत की) नौ ही निधियां मौजूद हैं सारे खजाने मौजूद हैं। तू ऐसा इच्छा-पूरक है (तू हरेक जीव की इच्छा पूरी करने की ऐसी ताकत रखता है) जो अंत में रक्षा करता है (जब मनुष्य और सारे मिथे हुए आसरे छोड़ बैठता है)।1।

हे प्रभू! जो कुछ तू करता है (जीवों को) वही (सिर माथे पर) कबूल होता है। हे सदा कायम रहने वाले मालिक! तेरा हुकम भी अटॅल है।2।

हे प्रभू! जब तुझे मंजूर होता है तभी मैं तेरे सिफत सालाह के गीत गा सकता हूँ। तेरे घर में सदा ही न्याय है, सदा ही इन्साफ़ है।3।

हे नानक! (कह–) हे सदा कायम रहने वाले मालिक! हे अलख और अभेव! तेरा प्रेरित किया हुआ ही जीव तेरी सेवा-भगती में लग सकता है।4।20।

आसा महला ५ ॥ निकटि जीअ कै सद ही संगा ॥ कुदरति वरतै रूप अरु रंगा ॥१॥ कर्है न झुरै ना मनु रोवनहारा ॥ अविनासी अविगतु अगोचरु सदा सलामति खसमु हमारा ॥१॥ रहाउ ॥ तेरे दासरे कउ किस की काणि ॥ जिस की मीरा राखै आणि ॥२॥ जो लउडा प्रभि कीआ अजाति ॥ तिसु लउडे कउ किस की ताति ॥३॥ वेमुहताजा वेपरवाहु ॥ नानक दास कहहु गुर वाहु ॥४॥२१॥ {पन्ना 376}

पद्अर्थ: निकटि = (निअड़ि) नजदीक। जीअ कै निकटि = सभ जीवों के नजदीक। सद = सदा। कुदरति = कला, ताकत।1।

कर्है = कढ़ै, कढ़ता है, कुढ़ता, खिझता। रोवनहारा = गिला करने वाला। अविगतु = अव्यक्त, अदृष्ट। अगोचर = (अ+गो+चरु) जिस तक ज्ञानेंद्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सलामति = कायम।1। रहाउ।

दासरा = सेवक, गरीब सा सेवक। काणि = मुथाजी। मीरा = पातिशाह। आणि = इज्जत।2।

लउडा = दास, सेवक। प्रभि = प्रभू ने। अजाति = ऊँची जाति आदि के अहंकार से रहित। ताति = ईरखा।3।

वेमुहताजा = बे मुथाज। गुर = सब से बड़ा। वाहु = धन्य धन्य।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है के अविनाशी, अदृश्य और अपहुँच परमात्मा हमारे सिर पर सदा कायम रहने वाला पति कायम है उसका मन कभी कुढ़ता नहीं, कभी खिझता नहीं कभी गिले-शिकवे नहीं करता।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा सब जीवों के नजदीक बसता है सदा सभी के अंग-संग रहता है, उसी की ही कला सब रूपों में सब रंगों में काम कर रही है।1।

हे प्रभू! तेरे छोटे से सेवक को भी किसी की मुथाजी नहीं रहती (हे भाई!) जिस सेवक की इज्जत प्रभू-पातिशाह स्वयं रखे (वह किसी की मुथाजी करे भी क्यूँ?)।2।

(हे भाई!) जिस सेवक को परमात्मा ने ऊँची जाति आदि के अहंकार से रहित कर दिया, उसे कभी किसी की ईरखा का डर नहीं रहता।3।

हे दास नानक! (कह– हे भाई!) उस सबसे बड़े परमात्मा को ही धन्य-धन्य कहते रहो जो बे-परवाह है जिसे किसी की मुथाजी नहीं।4।21।

आसा महला ५ ॥ हरि रसु छोडि होछै रसि माता ॥ घर महि वसतु बाहरि उठि जाता ॥१॥ सुनी न जाई सचु अम्रित काथा ॥ रारि करत झूठी लगि गाथा ॥१॥ रहाउ ॥ वजहु साहिब का सेव बिरानी ॥ ऐसे गुनह अछादिओ प्रानी ॥२॥ तिसु सिउ लूक जो सद ही संगी ॥ कामि न आवै सो फिरि फिरि मंगी ॥३॥ कहु नानक प्रभ दीन दइआला ॥ जिउ भावै तिउ करि प्रतिपाला ॥४॥२२॥ {पन्ना 376}

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। होछै रसि = उस रस में जो जल्दी खत्म हो जाता है। होछा = जल्दी समाप्त हो जाने वाला। माता = मस्त। वसतु = चीज। घर = हृदय। उठि = उठ के।1।

सुनी न जाई = सुनी नहीं जा सकती, सुननी पसंद नहीं करता। सचु = सदा स्थिर प्रभू का नाम। अंम्रित काथा = प्रभू की आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बातें। रारि = तकरार, झगड़ा। झूठी गाथा लगि = झूठी बातों में लग के।1। रहाउ।

वजहु = वजीफ़ा, रुज़ीना, तनख़्वाह। बिगानी = बेगानी, किसी और की। अछादिओ = आच्छादित, ढका हुआ।2।

लूक = लुकाव, परदा, छुपा के। संगी = साथी। कामि = काम में।3।

प्रभ = हे प्रभू! प्रतिपाला = रक्षा, हिफ़ाज़त।4।

अर्थ: (हे भाई! जीव ऐसे विकारों के नीचे दबा रहता है कि ये) सदा स्थिर परमात्मा का नाम सुनना पसंद ही नहीं करता, आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह की बातें सुननीं पसन्द नहीं करता, पर झूठी (किसी काम ना आने वाली) कथा कहानियों में लग के (औरों से) झगड़ा-बखेड़ा खड़े करता रहता है।1। रहाउ।

(हे भाई! विकारों के बोझ तले दबा हुआ मनुष्य) परमात्मा का नाम-रस छोड़ के (दुनियां के पदार्थों के) रस में मस्त रहता है जो खत्म भी जल्दी हो जाता है, (सुख देने वाली) नाम-वस्तु (इसके) हृदय-गृह में मौजूद है (पर सुख की खातिर दुनिया के पदार्थों की खातिर) बाहर उठ-उठ दौड़ता है।1।

(हे भाई!) मनुष्य विकारों के नीचे ऐसे दबा रहता है कि खाता तो है मालिक प्रभू का दिया हुआ है, पर सेवा करता है बेगानी (मालिक प्रभू को याद करने की जगह सदा माया की सोचें सोचता है)।2।

जो परमात्मा सदा ही (जीव के साथ) साथी है उससे पर्दा करता है, जो चीज (आखिर किसी) काम नहीं आनी, वही बार-बार मांगता रहता है।3।

हे नानक! कह– हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! जैसे भी हो सके (विकारों और माया के मोह से दबे जीवों की) रक्षा कर।4।22।

आसा महला ५ ॥ जीअ प्रान धनु हरि को नामु ॥ ईहा ऊहां उन संगि कामु ॥१॥ बिनु हरि नाम अवरु सभु थोरा ॥ त्रिपति अघावै हरि दरसनि मनु मोरा ॥१॥ रहाउ ॥ भगति भंडार गुरबाणी लाल ॥ गावत सुनत कमावत निहाल ॥२॥ चरण कमल सिउ लागो मानु ॥ सतिगुरि तूठै कीनो दानु ॥३॥ नानक कउ गुरि दीखिआ दीन्ह ॥ प्रभ अबिनासी घटि घटि चीन्ह ॥४॥२३॥ {पन्ना 376}

पद्अर्थ: जीअ दान = जिंद का धन। प्रान धनु = प्राणों के लिए धन। को = का। ईहा = इस लोक में। ऊहां = परलोक में। उन संगि = उन (जिंद और प्राणों) के साथ। कामु = काम।1।

थोरा = थोड़ा, घाटे का। त्रिपति अघावै = तृप्त हो जाता है। दरसनि = दर्शनों से। मोरा = मेरा।1। रहाउ।

भंडार = खजाने। निहाल = प्रसन्न।2।

सिउ = साथ। मानु = मन। सतिगुरि तूठै = प्रसन्न हुए गुरू ने।3।

कउ = को। गुरि = गुरू ने। दीखिआ = शिक्षा। घटि घटि = हरेक घट में। चीन् = देख लिया।4।

अर्थ: परमात्मा के नाम के बिना और सारा (धन पदार्थ) घाटे का सौदा ही है। (हे भाई!) मेरा मन परमात्मा के दर्शनों की बरकति से (दुनिया के धन पदार्थों की ओर से) संतुष्ट हो गया है (तृप्त हो गया है)।1।

(हे भाई!) जिंद के वास्ते प्राणों के वास्ते परमात्मा का नाम (ही असल) धन है, (ये धन) इस लोक में भी और परलोक में भी प्राणों के साथ काम (देता है)।1।

(हे भाई!) परमात्मा की भगती सतिगुरू की बाणी (मानो) लाल (-रत्नों) के खजाने है। (गुरबाणी) गाते-सुनते और कमाते हुए मन सदा खिला रहता है।2।

(हे भाई!) दयावान हुए सतिगुरू ने जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम-धन की दाति दी, उसका मन परमात्मा के सुंदर चरणों के साथ जुड़ गया।3।

हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू ने शिक्षा दी, उसने अविनाशी परमात्मा को हरेक हृदय में (बसता) देख लिया।4।23।

आसा महला ५ ॥ अनद बिनोद भरेपुरि धारिआ ॥ अपुना कारजु आपि सवारिआ ॥१॥ पूर समग्री पूरे ठाकुर की ॥ भरिपुरि धारि रही सोभ जा की ॥१॥ रहाउ ॥ नामु निधानु जा की निरमल सोइ ॥ आपे करता अवरु न कोइ ॥२॥ जीअ जंत सभि ता कै हाथि ॥ रवि रहिआ प्रभु सभ कै साथि ॥३॥ पूरा गुरु पूरी बणत बणाई ॥ नानक भगत मिली वडिआई ॥४॥२४॥ {पन्ना 376}

पद्अर्थ: बिनोद = करिश्में, तमाशे। भरेपुरि = भरपूर प्रभू ने, सर्व व्यापक परमात्मा ने। धारिआ = धारे हैं, रचे हैं। कारजु = किया हुआ जगत, रचा हुआ संसार।1।

पूर समग्री = सारे जगत के पदार्थ। भरपुरि = भरपूर, हर जगह। धारि रही = बिखर रही है। सोभ = शोभा। जा की = जिस (ठाकुर) की।1। रहाउ।

निधानु = खजाना। सोइ = शोभा, वडिआई। निरमल = पवित्र करने वाली। आपे = स्वयं ही।1।

जीअ = (शब्द ‘जीउ’ का बहुवचन) जीव-जंतु। सभि = सारे। कै हाथि = के हाथ में। रवि रहिआ = मौजूद है, बस रहा है। साथि = साथ।3।

गुर = सबसे बड़ा। पूरी = जिसमें कोई कमी नहीं। भगत = भक्तों को।4।

अर्थ: जिस परमात्मा की शोभा-वडिआई (सारे संसार में) हर जगह बिखर रही है, ये सारे जगत पदार्थ उस अभुल परमात्मा के ही बनाए हुए हैं।1।

जगत के सारे करिश्मे उस सर्व-व्यापक परमात्मा के ही रचे हुए हैं, अपने रचे हुए संसार को उसने खुद ही (इन करिश्में-तमाशों से) सुंदर बनाया है।1।

जिस (परमात्मा) की (की हुई) सिफत सालाह (सारे जीवों को) पवित्र जीवन वाला बना देती है, जिसका नाम (सारे जीवों के वास्ते) खजाना है वह स्वयं ही सबको पैदा करने वाला है, उसके बराबर का और कोई नहीं।2।

(हे भाई! जगत के) सारे जीव-जंतु उस परमात्मा के ही हाथ में हैं, वह परमात्मा सब जगह बस रहा है, हरेक जीव के अंग-संग बसता है।3।

हे नानक! परमात्मा सबसे बड़ा है उसमें कोई कमी नहीं है उसकी बनाई हुई रचना भी कमी-रहित है, परमात्मा की भक्ति करने वालों को (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।4।24।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh