श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ दुपदे ॥ भई परापति मानुख देहुरीआ ॥ गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ ॥ अवरि काज तेरै कितै न काम ॥ मिलु साधसंगति भजु केवल नाम ॥१॥ सरंजामि लागु भवजल तरन कै ॥ जनमु ब्रिथा जात रंगि माइआ कै ॥१॥ रहाउ ॥ जपु तपु संजमु धरमु न कमाइआ ॥ सेवा साध न जानिआ हरि राइआ ॥ कहु नानक हम नीच करमा ॥ सरणि परे की राखहु सरमा ॥२॥२९॥ {पन्ना 378}

पद्अर्थ: देहुरीआ = सुंदर देह। मानुख देहुरीआ = मानस जनम की सुंदर देह। बरीआ = वारी। अवरि = (शब्द ‘अवर’ से बहुवचन) और और।1।

सरंजामि = सरंजाम में, आहर में, अंजाम को सर करने की कोशिश में। अंजाम को फतह करने की। लागु = लग। भवजल = संसार समुंदर। तरन कै सरंजामि = तैरने की आहर में। ब्रिथा जात = व्यर्थ जा रहा है। रंगि = रंग में, प्यार में, मोह में।1। रहाउ।

संजमु = (इन्द्रियों को विकारों से रोकने का) यत्न। साध = संत जन। हरि राइआ = हे प्रभू पातशाह! नानक = हे नानक! नीच करंमा = नीच कर्म वाले। सरमा = शर्म, लाज।2।

अर्थ: (हे भाई!) संसार समुंद्र में से (सही सलामत आत्मिक जीवन लेकर) पार लांघने के आहर में (भी) लग। माया के मोह में (फस) के तेरा मनुष्य जनम व्यर्थ जा रहा है।1। रहाउ।

हे भाई! तुझे मनुष्य जनम के सोहणे शरीर की प्राप्ति हुई है, यही है समय परमात्मा को मिलने का। तेरे और और काम (परमात्मा को मिलने के रास्ते में) तेरे किसी काम नहीं आएंगे। (इस वास्ते) साध-संगति में (भी) बैठा कर (और वहाँ) सिर्फ परमात्मा के नाम का भजन किया कर।1।

हे नानक! कह– हे प्रभू पातशाह! मैंने कोई जप नहीं किया, मैंने कोई तप नहीं किया, मैंने कोई संजम नहीं साधा; मैंने ऐसा कोई धर्म भी नहीं किया (मुझे किसी जप तप संजम आदि का सहारा-गुमान नहीं है)। हे प्रभू पातशाह! मैंने तो तेरे संत जनों की सेवा करने की जाच नहीं सीखीं। मैं बड़ा नीच कर्मों वाला हूँ (पर मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ)। शरण पड़े की लाज रखना।2।29।

नोट: नंबर 29 से दो बंदों वाले शबद शुरू हुए हैं जो नंबर 34 तक गिनती में 6 हैं।

आसा महला ५ ॥ तुझ बिनु अवरु नाही मै दूजा तूं मेरे मन माही ॥ तूं साजनु संगी प्रभु मेरा काहे जीअ डराही ॥१॥ तुमरी ओट तुमारी आसा ॥ बैठत ऊठत सोवत जागत विसरु नाही तूं सास गिरासा ॥१॥ रहाउ ॥ राखु राखु सरणि प्रभ अपनी अगनि सागर विकराला ॥ नानक के सुखदाते सतिगुर हम तुमरे बाल गुपाला ॥२॥३०॥ {पन्ना 378}

पद्अर्थ: अवरु = और। माही = में। संगी = साथी। जीअ = हे जिंदे! काहे डराही = क्यूँ डरती है?1।

ओट = आसरा। सास = श्वास। गिरासा = ग्रास।1। रहाउ।

प्रभ = हे प्रभू! विकराला = डरावना। सागर = समुंद्र। बाल = बच्चे। गुपाला = हे गोपाल!।2।

अर्थ: हे गोपाल! मुझे तेरा ही सहारा है, मुझे तेरी मदद की उम्मीद रहती है। (हे प्रभू! मेहर कर) बैठते-उठते-सोते-जागते, हरेक श्वास से, हरेक ग्रास के साथ मुझे तू कभी ना भूले।1। रहाउ।

हे मेरी जिंदे! तू क्यों डरती है? (हर वक्त ऐसी अरदास करा कर-) हे प्रभू! तेरे बिना मेरा और कोई सहारा नहीं, तू सदा मेरे मन में बसता रह। तू ही मेरा सज्जन है, तू ही मेरा साथी है तू ही मेरा मालिक है।1।

हे प्रभू! ये आग का समुंद्र (संसार बड़ा) डरावना है (इससे बचने के लिए) मुझे अपनी शरण में सदा टिकाए रख। हे गुपाल! हे सतिगुरू! हे नानक के सुखदाते प्रभू! मैं तेरा (अंजान) बच्चा हूँ।2।30।

आसा महला ५ ॥ हरि जन लीने प्रभू छडाइ ॥ प्रीतम सिउ मेरो मनु मानिआ तापु मुआ बिखु खाइ ॥१॥ रहाउ ॥ पाला ताऊ कछू न बिआपै राम नाम गुन गाइ ॥ डाकी को चिति कछू न लागै चरन कमल सरनाइ ॥१॥ संत प्रसादि भए किरपाला होए आपि सहाइ ॥ गुन निधान निति गावै नानकु सहसा दुखु मिटाइ ॥२॥३१॥ {पन्ना 378}

पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भगत। छडाइ लीने = बचा लिए हैं। सिउ = साथ। तापु = (माया के मोह का) ताप। बिखु = जहर। बिखु खाइ = जहर खा के।1। रहाउ।

ताऊ = ताउ, ताप ।

(नोट: इस शबद में माया के प्रभाव को मलेरिए के बुधार (ताप) के साथ उपमा दी गई है। जैसे मलेरिेए में पहले कंपनी छिड़ती है और भारे कपडों की जरूरत पड़ती है। फिर फूक के ताप चढ़ जाता है)।

पाला ताऊ कछू न = ना कांपना ना ताप (ना माया की लालच ना ही कोई सहम)। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। डाकी को कछू = माया डायन का कुछ भी (प्रभाव)। चिति = चिक्त पर।1।

संत = गुरू। प्रसादि = कृपा से। सहाइ = सहाई। निधान = खजाने। सहसा = सहम।2।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा अपने भक्तों को (माया-डायन के पँजे से) स्वयं बचा लेता है। (गुरू की कृपा से) मेरा मन भी प्रीतम परमात्मा से गिझा गया है, मेरा भी (माया का) ताप (ऐसे) खत्म हो गया है (जैसे कोई प्राणी) जहर खा के मर जाता है।1। रहाउ।

(हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरणों का आसरा लेने से (मनुष्य के) चिक्त पर (माया-) डायन को कोई जोर नहीं चलता। परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गा-गा के ना माया की लालच जोर डाल सकती है, ना ही माया का सहम दबाव डालता है।1।

(हे भाई!) गुरू की कृपा से (परमात्मा मेरे पर) दयावान हो गया है (माया डायन से बचने के लिए मेरा) मेरा खुद सहाई बना हुआ है। अब (गुरू की कृपा से) नानक (माया का) सहम और दुख दूर कर करके गुणों के खजाने परमात्मा के गुण सदा गाता रहता है।2।31।

आसा महला ५ ॥ अउखधु खाइओ हरि को नाउ ॥ सुख पाए दुख बिनसिआ थाउ ॥१॥ तापु गइआ बचनि गुर पूरे ॥ अनदु भइआ सभि मिटे विसूरे ॥१॥ रहाउ ॥ जीअ जंत सगल सुखु पाइआ ॥ पारब्रहमु नानक मनि धिआइआ ॥२॥३२॥ {पन्ना 378}

पद्अर्थ: अउखधु = दवा। को = का। दुख थाउ = दुखों की जगह, दुखों का सोमा (माया का मोह)।1।

बचनि = बचन के द्वारा, उपदेश से। अनद = आनंद। सभि = सारे। विसूरे = चिंता, फिक्र।1। रहाउ।

जीअ = (शब्द ‘जीउ’ का बहुवचन)। सगल = सारे। मनि = मन में।2।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम की दवाई खाई (उसके अंदर माया का मोह) दुखों का सोमा सूख गया और उसने आत्मिक आनंद पा लिए।1।

(हे भाई! पूरे गुरू के उपदेश की बरकति से नाम-दवाई खा के माया-मोह का) ताप उतर जाता है, आत्मिक आनंद पैदा होता है, सारे चिंता-फिक्र मिट जाते हैं।1। रहाउ।

हे नानक! (गुरू के उपदेश द्वारा) जिस जिस मनुष्य ने परमात्मा अपने मन में सिमरा, उन सभी ने आतिमक आनंद प्राप्त किया।2।32।

आसा महला ५ ॥ बांछत नाही सु बेला आई ॥ बिनु हुकमै किउ बुझै बुझाई ॥१॥ ठंढी ताती मिटी खाई ॥ ओहु न बाला बूढा भाई ॥१॥ रहाउ ॥ नानक दास साध सरणाई ॥ गुर प्रसादि भउ पारि पराई ॥२॥३३॥ {पन्ना 378}

पद्अर्थ: बांछत नाही = पसंद नहीं करता, चाहता नहीं। सु बेला = वह वेला, मौत की वेला। किउ बूझै = कैसे समझें? नहीं समझ सकता। बुझाई = समझाने से।1।

ठंढी खाई = पानी खा जाता है, पानी में बह जाता है। ताती खाई = आग जला देती है। मिटी खाई = मिट्टी खा जाती है। ओहु = वह जीवात्मा। बाला = बालक। भाई = हे भाई!।1। रहाउ।

साध = गुरू। गुर प्रसादि = गुरू की कृपा से। भउ = डर। पारि पराई = पार लांघ जाता है।2।

अर्थ: हे भाई! जीवात्मा (परमात्मा की अंश है जो) ना कभी बालक है ना कभी बुढा है (वह कभी नहीं मरता। शरीर ही कभी बालक है कभी जवान है, कभी बुढा है और फिर मर जाता है। मरे शरीर को) जल प्रवाह किया जाता है, आग जला देती है, या (दबाने से) मिट्टी खा जाती है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जिसे कोई भी पसंद नहीं करता, मौत का वह समय जरूर आ जाता है (मनुष्य फिर भी नहीं समझता कि मौत जरूर आनी है) जब परमात्मा का हुकम ना हो जीव को कितना ही समझाओ ये नहीं समझता।1।

हे दास नानक! गुरू की शरण पड़ते ही, गुरू की कृपा से ही मनुष्य (मौत के) डर-सहम से पार लांघ सकता है।2।33।

आसा महला ५ ॥ सदा सदा आतम परगासु ॥ साधसंगति हरि चरण निवासु ॥१॥ राम नाम निति जपि मन मेरे ॥ सीतल सांति सदा सुख पावहि किलविख जाहि सभे मन तेरे ॥१॥ रहाउ ॥ कहु नानक जा के पूरन करम ॥ सतिगुर भेटे पूरन पारब्रहम ॥२॥३४॥ दूजे घर के चउतीस ॥ {पन्ना 378}

पद्अर्थ: आतम परगासु = आत्मिक जीवन का प्रकाश, ये रौशनी कि आत्मिक जीवन कैसे जीते हैं।1।

निति = सदा। मन = हे मन! किलविख = पाप।1। रहाउ।

करम = भाग्य। भेटे = मिलता है।2।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का नाम जपा कर। हे मन! (नाम की बरकति से) तेरे सारे पाप दूर हो जाएंगे, तेरा स्वै ठंडा-ठार हो जाएगा, तेरे अंदर शांति पैदा हो जाएगी, तू सदा आत्मिक आनंद पाता रहेगा।1। रहाउ।

(हे भाई!) साध-संगति में रहके जिस मनुष्य का मन परमात्मा के चरणों में टिका रहता है उसे सदा कायम रहने वाला आत्मिक जीवन का प्रकाश मिल जाता है।1।

(पर) हे नानक! कह, जिस मनुष्य के पूरे भाग्य जागते हैं वह ही सतिगुरू को मिलता है और सब गुणों से भरपूर परमात्मा को मिलता है।2।34।

नोट: दूसरे घर के चौतीस। आरंभ में शीर्षक आया था– घरु २ महला ५। घर दूसरे के संगह में 34 शबद हैं।

आसा महला ५ ॥ जा का हरि सुआमी प्रभु बेली ॥ पीड़ गई फिरि नही दुहेली ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा चरन संगि मेली ॥ सूख सहज आनंद सुहेली ॥१॥ साधसंगि गुण गाइ अतोली ॥ हरि सिमरत नानक भई अमोली ॥२॥३५॥ {पन्ना 378-379}

पद्अर्थ: जा का = जिस (मनुष्य) का। बेली = मददगार, सहाई। सुआमी = स्वामी, मालिक। दुहेली = दुखी, दुख भरी।1। रहाउ।

संगि = साथ। सहज = आत्मिक अडोलता। सुहेली = सुखी, सुख भरी।1।

साध संगि = साध-संगति में। गाइ = गा के। अतोली = जो तोली ना जा सके, जिसके बराबर की और कोई चीज ना मिल सके। अमोली = जिसका मूल्य ना पड़़ सके।2।

अर्थ: (हे भाई!) सब जीवों का मालिक हरी प्रभू जिस मनुष्य का मददगार बन जाता है, उसका हरेक किस्म का दुख-दर्द दूर हो जाता है उसको पुनः कभी कोई दुख नहीं घेर सकते।1। रहाउ।

(हे भाई!) जिस जीव को परमात्मा कृपा करके अपने चरणों में जोड़ लेता है उसके अंदर सुख आनंद आत्मिक अडोलता आ बसते हैं उसका जीवन सुखी हो जाता है।1।

हे नानक! साध-संगति में परमात्मा के गुण गा के परमात्मा का सिमरन करके (मनुष्य का जीवन इतना ऊँचा हो जाता है कि उसके) बराबर का कोई नहीं मिल सकता, उसकी कीमत का कोई नहीं मिल सकता।2।35।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh