श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 379 आसा महला ५ ॥ काम क्रोध माइआ मद मतसर ए खेलत सभि जूऐ हारे ॥ सतु संतोखु दइआ धरमु सचु इह अपुनै ग्रिह भीतरि वारे ॥१॥ जनम मरन चूके सभि भारे ॥ मिलत संगि भइओ मनु निरमलु गुरि पूरै लै खिन महि तारे ॥१॥ रहाउ ॥ सभ की रेनु होइ रहै मनूआ सगले दीसहि मीत पिआरे ॥ सभ मधे रविआ मेरा ठाकुरु दानु देत सभि जीअ सम्हारे ॥२॥ एको एकु आपि इकु एकै एकै है सगला पासारे ॥ जपि जपि होए सगल साध जन एकु नामु धिआइ बहुतु उधारे ॥३॥ गहिर ग्मभीर बिअंत गुसाई अंतु नही किछु पारावारे ॥ तुम्हरी क्रिपा ते गुन गावै नानक धिआइ धिआइ प्रभ कउ नमसकारे ॥४॥३६॥ {पन्ना 379} पद्अर्थ: मद = अहंकार। मतसर = ईरखा। ऐ = ये सारे (बहुवचन)। सभि = सारे। जूअै = जूए में। भीतरि = अंदर। वारे = ले आऐ।1। चूके = खत्म हो गए। भारे = जिम्मेवारियां। गुरि = गुरू ने। खिन महि = बड़ी ही जल्दी।1। रहाउ। रेनु = चरण धूड़। मनूआ = मन। दीसहि = दिखाई देते हैं। मधे = में। समारे = संभाल करता है।2। ऐकै पासारे = एक प्रभू का ही पसारा। साध जन = भले मनुष्य। उधारे = (विकारों से) बचा लिए।3। गहिर = गहरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। गुसाई = सृष्टि का मालिक। पारावारे = पार अवार, परला छोर और उरला किनारा। ते = से, साथ। कउ = को।4। अर्थ: (हे भाई!) साध-संगति में मिल बैठ के मन पवित्र हो जाता है (साध-संगति में बैठने वाले को) पूरे गुरू ने एक छिन में (विकारों के समुंद्र से) पार लंघा लिया, उसके जनम मरन के चक्कर समाप्त हो गए उसकी (अपने आप अपने सिर पर ली हुई) जिम्मेवारियां खत्म हो गई।1। रहाउ। (हे भाई! जो मनुष्य गुरू की संगति में बैठता है वह) काम-क्रोध-माया का मोह-अहंकार-ईष्या- इन सारे विकारों को (मानो) जूए की बाजी में खेल के हार देता है और सत-संतोष-दया-धर्म-सच- इन गुणों को अपने हृदय घर में ले आता है।1। (हे भाई! जो मनुष्य संगति में बैठता है उसका) मन सभी के चरणों की धूड़ बन जाता है उसे (सृष्टि के) सारे जीव प्यारे मित्र दिखते हैं (उसे प्रत्यक्ष दिखता है कि) प्यारा पालनहार प्रभू सब जीवों में मौजूद है और सब जीवों को दातें दे दे के सबकी संभाल कर रहा है।2। (हे भाई! जो मनुष्य साध-संगति में आते हैं) परमात्मा का नाम सिमर-सिमर के वह सारे मनुष्य गुरमुख बन जाते हैं, एक परमात्मा के नाम का ध्यान धर के वह और अनेकों को विकारों से बचा लेते हैं (उन्हें निश्चय बन जाता है कि सारे संसार में) परमात्मा स्वयं ही स्वयं बस रहा है, ये सारा जगत उस एक परमात्मा का ही पसारा है।3। हे नानक! (कह–) हे गहरे प्रभू! हे बड़े जिगरे वाले प्रभू! हे बेअंत गोसाई! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, तेरी हस्ती का उरला और परला छोर नहीं मिल सकता। जो भी कोई जीव तेरे गुण गाता है, जो भी कोई तेरा नाम सिमर सिमर के तेरे आगे सिर निवाता है वह ये सब कुछ तेरी मिहर से करता है।4।36। आसा महला ५ ॥ तू बिअंतु अविगतु अगोचरु इहु सभु तेरा आकारु ॥ किआ हम जंत करह चतुराई जां सभु किछु तुझै मझारि ॥१॥ मेरे सतिगुर अपने बालिक राखहु लीला धारि ॥ देहु सुमति सदा गुण गावा मेरे ठाकुर अगम अपार ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे जननि जठर महि प्रानी ओहु रहता नाम अधारि ॥ अनदु करै सासि सासि सम्हारै ना पोहै अगनारि ॥२॥ पर धन पर दारा पर निंदा इन सिउ प्रीति निवारि ॥ चरन कमल सेवी रिद अंतरि गुर पूरे कै आधारि ॥३॥ ग्रिहु मंदर महला जो दीसहि ना कोई संगारि ॥ जब लगु जीवहि कली काल महि जन नानक नामु सम्हारि ॥४॥३७॥ {पन्ना 379} पद्अर्थ: अविगत = अवयक्त, अदृष्ट। अगोचरु = (अ+गो+चरु) जो ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है। आकारु = दिखाई देता संसार। करह = हम करें। तुझै मझारि = तेरे (हुकम के) अंदर।1। लीला = खेल। धारे = धारण करके, धार के। अगम = अगम्य, अपहुँच।1। रहाउ। जननि = माँ। जठर = पेट। अधारि = आसरे। सासि सासि = हरेक सांस से। अगनारि = आग।2। दारा = स्त्री। निवारि = दूर कर। कमल = कमल फूल। सेवी = सेवीं, मैं सेवा करूँ। रिद = हृदय। आधारि = आसरे से।3। संगारि = संग जाने वाला, हमराही। जीवहि = तू जीता है। कली महि = जगत में । (नोट: साधारण हालत में ‘कलिजुग’ बरता है क्योंकि जिस जुग में सतिगुरू जी आए उसका नाम ‘कलिजुग’ प्रसिद्ध है। यहाँ ‘कली काल’ से भाव है ‘संसार जगत’)। समारि = संभाल, हृदय में परो रख।4। अर्थ: हे मेरे सतिगुरू! हे मेरे अपहुँच और बेअंत ठाकुर! अपने बच्चों को अपना बेअंत करिश्मा बरता के (विकारों से) बचाए रख। मुझे सुचॅजी मति दे कि मैं तेरे गुण गाता रहूँ।1। रहाउ। (हे ठाकुर!) तू बेअंत है, तू अदृष्ट है, तू ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, ये दिखाई देता जगत सारा तेरा ही रचा हुआ है। हम तेरे पैदा किए हुए जीवतेरे सामने अपनी लयाकत का क्या दिखावा कर सकते हैं? जो कुछ हो रहा है सब तेरे हुकम के अंदर हो रहा है।1। (हे ठाकुर! ये तेरी ही लीला है जैसे) जीव माँ के पेट में रहता हुआ तेरे नाम के आसरे जीता है (माँ के पेट में) वह हरेक सांस के साथ (तेरा नाम) याद करता है और आत्मिक आनंद लेता है उसे माँ के पेट की आग का सेका नहीं लगता।2। (हे ठाकुर! जैसे तू माँ के पेट में रक्षा करता है वैसे ही अब भी) पराया धन, पराई स्त्री, पराई निंदा- इन विकारों से मेरी प्रीति दूर कर। (मेहर कर) पूरे गुरू का आसरा ले के मैं तेरे सुंदर चरणों का ध्यान अपने हृदय में टिकाए रखूँ।3। हे दास नानक! (कह– हे भाई!) घर, मंदिर, महल, माढ़ियां जो भी तुझे दिख रहे हैं इन में से कोई भी (अंत समय) तेरे साथ नहीं जाएगा। (इस वास्ते) जब तक तू जगत में जी रहा है परमात्मा का नाम अपने हृदय में परोए रख (यही असली साथी है)।4।37। नोट: इन तीन शब्दों के आरम्भ में नहीं बताया गया कि इनको किस ‘घर’ में गाना है। पहले 34 शबद ‘घर 2’ के थे। आगे ‘घर 3’ शुरू हो रहा है। आसा घरु ३ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ राज मिलक जोबन ग्रिह सोभा रूपवंतु जुोआनी ॥ बहुतु दरबु हसती अरु घोड़े लाल लाख बै आनी ॥ आगै दरगहि कामि न आवै छोडि चलै अभिमानी ॥१॥ काहे एक बिना चितु लाईऐ ॥ ऊठत बैठत सोवत जागत सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ महा बचित्र सुंदर आखाड़े रण महि जिते पवाड़े ॥ हउ मारउ हउ बंधउ छोडउ मुख ते एव बबाड़े ॥ आइआ हुकमु पारब्रहम का छोडि चलिआ एक दिहाड़े ॥२॥ करम धरम जुगति बहु करता करणैहारु न जानै ॥ उपदेसु करै आपि न कमावै ततु सबदु न पछानै ॥ नांगा आइआ नांगो जासी जिउ हसती खाकु छानै ॥३॥ संत सजन सुनहु सभि मीता झूठा एहु पसारा ॥ मेरी मेरी करि करि डूबे खपि खपि मुए गवारा ॥ गुर मिलि नानक नामु धिआइआ साचि नामि निसतारा ॥४॥१॥३८॥ {पन्ना 379-380} पद्अर्थ: मिलक = जीवन, जमीन। ग्रिह = घर। रूपवंतु = रूप वाला। जुोआनी = (असल शब्द ‘जुआनी है, यहां ‘जोआनी’ पढ़ना है)। दरबु = धन, द्रव्य। हसती = हाथी। बै = मूल्य खरीद के। आनी = ले आए। कामि = काम में।1। काहे = क्यूँ?।1। रहाउ। बचित्र = आश्चर्य। आखाड़े = कुश्ती वगैरा के अभ्यास का मैदान। जिते = जीत लिए। पवाड़े = झगड़े। हउ = मैं। बंधउ = मैं बांधता हूँ। ऐव = इस तरह। ते = से। बबाड़े = बकता है, वाही तबाही बोलता है।2। जुगति बहु = अनेकों तरीकों से। जासी = चला जाएगा। खाकु = मिट्टी।3। सभि = सारे। झूठा = नासवंत। पसारा = खिलारा। खपि खपि = ख्वार हो हो के। मिलि = मिल के। साचि नामि = सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ने से।4। अर्थ: (हे भाई!) एक परमात्मा के बिना किसी और में प्रीति नहीं जोड़नी चाहिए। उठते बैठते सोते जागते सदा ही परमात्मा में सुरति जोड़े रखनी चाहिए।1। रहाउ। (हे भाई!) हकूमत, जमीन की मल्कियत, जोबन, घर, इज्जत, सुंदरता, जवानी, बहुत सारा धन, हाथी और घोड़े (अगर ये सब कुछ किसी मनुष्य के पास हो), अगर लाखों रूपए खर्च के (कीमती) लाल मूल्य ले के आए (और इन पदार्थां का गुमान करता रहे), पर आगे परमात्मा की दरगाह में (इनमें से कोई भी चीज) काम नहीं आती। (इन पदार्थों का) गुमान करने वाला मनुष्य (इन सभी को यहीं) छोड़ के (यहां से) दूर चल पड़ता है।1। अगर कोई मनुष्य बड़े आश्चर्यजनक रूप से सुंदर अखाड़े (भाव, कुश्तियां आदि) जीतता है अगर वह रणभूमि में जा के (बड़े-बड़े) झगड़े-लड़ाईयां जीत लेता है और अपने मुंह से ऐसे अवा-तबा भी (बड़कें मारता है) बोलता है कि मैं (अपने वैरियों को) मार सकता हूँ (उनको) बाँध सकता हूँ (और अगर जी चाहे तो उन्हें कैद से) छोड़ भी सकता हूँ (तो भी क्या हुआ?) आखिर एक दिन परमात्मा का हुकम आता है (मौत आ जाती है, और) ये सब कुछ छोड़ के यहां से चला जाता है।2। अगर कोई मनुष्य (औरों को दिखाने के लिए) अनेकों किस्मों के (निहित) धार्मिक कर्म करता हो, पर सृजनहार प्रभू से सांझ ना डाले। यदि औरों को तो (धर्म का) उपदेश करता फिरे पर अपना धार्मिक जीवन ना बनाए, और परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी की सार ना समझे, तो वह खाली हाथ जगत में आता है और यहां से खाली हाथ ही चला जाता है (उसके ये दिखावे के धार्मिक काम व्यर्थ ही जाते हैं) जैसे हाथी (स्नान करके फिर अपने ऊपर) मिट्टी डाल लेता है।3। हे संत जनो! हे सज्जनो! हे मित्रो! सारे सुन लो, ये सारा जगत पसारा नाशवंत है। जो लोग नित्य ये कहते रहे कि ये मेरी धन-दौलत है ये मेरी जायदाद है वह (माया-मोह के समुंद्र में) डूबे रहे और दुखी हो हो के आत्मिक मौत मरते रहे। हे नानक! जिस मनुष्य ने सतिगुरू को मिल केपरमात्मा का नाम सिमरा, सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में जुड़ के (इस संसार समुंद्र से) उसका पार-उतारा हो गया।4।1।38। नोट: ‘घरु ३’ का ये पहला शबद है अब तक कुल 38 शबद महला ५ के आ चुके हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |