श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु आसा घरु ५ महला ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भ्रम महि सोई सगल जगत धंध अंध ॥ कोऊ जागै हरि जनु ॥१॥ महा मोहनी मगन प्रिअ प्रीति प्रान ॥ कोऊ तिआगै विरला ॥२॥ चरन कमल आनूप हरि संत मंत ॥ कोऊ लागै साधू ॥३॥ नानक साधू संगि जागे गिआन रंगि ॥ वडभागे किरपा ॥४॥१॥३९॥ {पन्ना 380}

पद्अर्थ: भ्रम = भटकना। सोई = सोई हुई। सगल = सारी (दुनिया)। अंध = अंधी। कोऊ = कोई विरला।1।

मोहनी = मन को मोह लेने वाली माया। मगन = मस्त। प्रिअ = प्यारी। प्रान = प्राण, जिंद।2।

आनूप = सुंदर। मंत = उपदेश। साधू = गुरमुख मनुष्य।3।

संगि = संगति में। साधू = गुरू। रंगि = रंग में।4।

अर्थ: (हे भाई!) जगत के धंधों में अंधी होई हुई सारी दुनिया माया की भटकना में सोई पड़ी है। कोई दुर्लभ परमात्मा का भगत (इस मोह की नींद में से) जाग रहा है।1।

(हे भाई!) मन को मोह लेने वाली बली माया में दुनिया मस्त पड़ी है, (माया के साथ ये) प्रीति प्राणों से भी प्यारी लग रही है। कोई दुर्लभ मनुष्य ही (माया की इस प्रीति को) छोड़ता है।2।

(हे भाई!) परमात्मा के सोहाने सुंदर चरणों में, संत जनों के उपदेश में, कोई विरला गुरमुख मनुष्य ही चिक्त जोड़ता है।3।

हे नानक! कोई भाग्यशाली मनुष्य जिस पर प्रभू की कृपा हो जाए, गुरू की संगति में आ के (गुरू के बख्शे) ज्ञान के रंग में (रंग के, माया के मोह की नींद में से) जागता रहता है।4।1।39।

नोट: ‘घरु ५’ का यह पहला शबद है। महला ५ के कुल शबद ३९ आ चुके हैं।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ६ महला ५ ॥ जो तुधु भावै सो परवाना सूखु सहजु मनि सोई ॥ करण कारण समरथ अपारा अवरु नाही रे कोई ॥१॥ तेरे जन रसकि रसकि गुण गावहि ॥ मसलति मता सिआणप जन की जो तूं करहि करावहि ॥१॥ रहाउ ॥ अम्रितु नामु तुमारा पिआरे साधसंगि रसु पाइआ ॥ त्रिपति अघाइ सेई जन पूरे सुख निधानु हरि गाइआ ॥२॥ जा कउ टेक तुम्हारी सुआमी ता कउ नाही चिंता ॥ जा कउ दइआ तुमारी होई से साह भले भगवंता ॥३॥ भरम मोह ध्रोह सभि निकसे जब का दरसनु पाइआ ॥ वरतणि नामु नानक सचु कीना हरि नामे रंगि समाइआ ॥४॥१॥४०॥ {पन्ना 380}

पद्अर्थ: परवाना = कबूल। सहजु = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। सोई = वही (परमात्मा की रजा मानना ही)। रे = हे भाई!।1।

रसकि = रस ले के, स्वाद से। गावहि = गाते हैं। मसलति = सलाह मश्वरा। मता = फैसला।1। रहाउ।

अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला। त्रिपति = तृप्ति, संतोष। अघाइ = पेट भर के। निधानु = खजाना।2।

कउ = को। टेक = आसरा। भगवंता = भाग्यशाली।3।

भरम = भटकन। ध्रोह = ठॅगी। सभि = सारे। निकसे = निकल गए। सचु = सदा कायम रहने वाला। नामे = नाम में ही। रंगि = प्रेम से।4।

अर्थ: (हे प्रभू!) तेरे दास बारंबार स्वाद से तेरे गुण गाते रहते हैं। जो कुछ तू खुद करता है जो कुछ जीवों से कराता है (उसको सिर माथे पे मानना ही) तेरे दासों के वास्ते समझदारी है (आत्मिक जीवन की अगुवाई के लिए) सलाह मश्वरा और फैसला हैं1। रहाउ।

हे प्रभू! जो कुछ तुझे अच्छा लगता है वह तेरे सेवकों को (सिर माथे पर) परवान होता है, तेरी रजा ही उनके मन में आनंद और आत्मिक अडोलता पैदा करती है। हे प्रभू! तुझे ही तेरे दास सब कुछ करने और जीवों से कराने की ताकत रखने वाला मानते हैं, तू ही उनकी निगाह में बेअंत है।

हे भाई! परमात्मा के दासों को परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं दिखाई देता।1।

हे प्यारे प्रभू! तेरे दासों के वास्ते तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, साध-संगति में बैठ के वह (तेरे नाम का) रस लेते हैं। (हे भाई!) जिन्होंने सुखों के खजाने हरी की सिफत सालाह की, वह मनुष्य गुणों से भरपूर हो गए वही मनुष्य (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो गए।2।

हे प्रभू! हे सवामी! जिन मनुष्यों को तेरा आसरा है उन्हें कोई चिंता छू नहीं सकती। हे स्वामी! जिन पर तेरी मेहर हुई, वह (नाम-धन से) शाहूकार बन गए और भाग्यशाली हो गए।3।

हे नानक! (कह–) जब ही कोई मनुष्य परमात्मा के दर्शन करता है (उसके अंदर से) भटकना, मोह, ठॅगीयां आदि सारे विकार निकल जाते हैं। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम को अपना रोज काव्यवहार बना लेता है, वह प्रभू के प्रेम रंग में (रंग के) परमात्मा के नाम में ही लीन रहता है।4।1।40।

नोट: ‘घरु ६’ के नए संग्रह का ये पहला शबद है।

आसा महला ५ ॥ जनम जनम की मलु धोवै पराई आपणा कीता पावै ॥ ईहा सुखु नही दरगह ढोई जम पुरि जाइ पचावै ॥१॥ निंदकि अहिला जनमु गवाइआ ॥ पहुचि न साकै काहू बातै आगै ठउर न पाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ किरतु पइआ निंदक बपुरे का किआ ओहु करै बिचारा ॥ तहा बिगूता जह कोइ न राखै ओहु किसु पहि करे पुकारा ॥२॥ निंदक की गति कतहूं नाही खसमै एवै भाणा ॥ जो जो निंद करे संतन की तिउ संतन सुखु माना ॥३॥ संता टेक तुमारी सुआमी तूं संतन का सहाई ॥ कहु नानक संत हरि राखे निंदक दीए रुड़ाई ॥४॥२॥४१॥ {पन्ना 380-381}

पद्अर्थ: मलु = पापों की मैल। पराई = औरों की। ईहा = इस लोक में। ढोई = आसरा, ठिकाना। जमपुरि = जम के नगर में। जाइ = जा के। पचावै = ख्वार होता है, दुखी होता है।1।

निंदकि = निंदक ने। अहिला = कीमती। काहू बातै = किसी भी बात में। आगै = परलोक में।1। रहाउ।

किरतु = पिछले जन्मों में किए मंद कर्मों के संसकारों का समूह। पइआ = पेश किया, सामने आ गया। बपुरा = बिचारा, बद नसीब, दुर्भाग्य। तहा = उस जगह, उस निघरी आत्मिक अवस्था में। बिगूता = ख्वार होता है, दुखी होता है। पाहि = पास।2।

गति = उच्च आत्मिक अवस्था। कत हूं = कहीं भी। ऐवैं = ऐसे ही।3।

सहाई = मददगार।4।

अर्थ: (हे भाई!) संत की निंदा करने वाले मनुष्य ने (निंदा के कारण अपना) कीमती मानस जनम गवा लिया। (संत की निंदा करके वह ये आशा करता है कि उन्हें दुनिया की नजरों में गिरा के मैं उनकी जगह आदर-सत्कार हासिल कर लूंगा, पर वह निंदक) किसी भी रूप में (संत जनों) की बराबरी नहीं कर सकता, (निेदा के कारण) आगे परलोक में भी उसे आदर की जगह नहीं मिलती।1। रहाउ।

(निंदक) दूसरों के अनेकों जन्मों के किए विकारों की मैल धोता है (और वह मैल, वह अपने मन के अंदर संस्कारों के रूप में इकट्ठी कर लेता है, इस तरह वह) अपने किए कर्मों का बुरा फल स्वयं ही भोगता है। (निंदा के कारण उसको) इस लोक में सुख नहीं मिलता, परमात्मा की हजूरी में भी उसे आदर की जगह नहीं मिलती, वह नर्क में पहुँच के दुखी होता रहता है।1।

पर निंदक के भी बस की बात नहीं (वह निंदा जैसे बुरे कर्म से हट नहीं सकता, क्योंकि) पिछले जन्मों के किए कर्मों के संस्कार उस दुर्भाग्यपूर्ण निंदक के पल्ले पड़ जाते हैं (उसके अंदर जाग पड़ते हैं और उसे निंदा की तरफ प्रेरित करते हैं)। निंदक ऐसी खराब हुई (निघरी हुई) आत्मिक दशा में ख्वार होता रहता है कि वहाँ (भाव, उस गिरी हुई निघरी दशा में से निकालने के लिए) कोई उसकी मदद नहीं कर सकता। सहायता के लिए वह किसी के पास पुकार करने के काबिल भी नहीं रहता।2।

पति-प्रभू की रजा ऐसे ही है कि (संत-जनों की) निंदा करने वाले मनुष्य को कहीं भी उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती (क्योंकि वह ऊँची आत्मिक अवस्था वालों की तो सदा निंदा करता है। दूसरी तरफ़) ज्यों-ज्यों कोई मनुष्य संत-जनों की निंदा करता है (कमियां बयान करजा है) त्यों-त्यों संत-जन इस में सुख प्रतीत करते हैं (उनको अपने आत्मिक जीवन की पड़ताल करने का मौका मिलता रहता है)।3।

हे मालिक प्रभू! तेरे संत-जनों को (जीवन की अगुवाई के लिए) सदा तेरा ही आसरा रहता है, तू (संतों का जीवन ऊँचा करने में) मददगार भी बनता है।

हे नानक! कह– (उस निंदा की बरकति से) संतों को तो परमात्मा (बुरे कर्मों से) बचाए रखता है पर निंदा करने वालों को (उनके निंदा की बाढ़ में) बहा देता है (उनके आत्मिक जीवन को निंदा की बाढ़ में बहा के समाप्त कर देता है)।4।2।41।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh