श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ बाहरु धोइ अंतरु मनु मैला दुइ ठउर अपुने खोए ॥ ईहा कामि क्रोधि मोहि विआपिआ आगै मुसि मुसि रोए ॥१॥ गोविंद भजन की मति है होरा ॥ वरमी मारी सापु न मरई नामु न सुनई डोरा ॥१॥ रहाउ ॥ माइआ की किरति छोडि गवाई भगती सार न जानै ॥ बेद सासत्र कउ तरकनि लागा ततु जोगु न पछानै ॥२॥ उघरि गइआ जैसा खोटा ढबूआ नदरि सराफा आइआ ॥ अंतरजामी सभु किछु जानै उस ते कहा छपाइआ ॥३॥ कूड़ि कपटि बंचि निमुनीआदा बिनसि गइआ ततकाले ॥ सति सति सति नानकि कहिआ अपनै हिरदै देखु समाले ॥४॥३॥४२॥ {पन्ना 381}

पद्अर्थ: बाहरु = बाहरी ओर, शरीर, देह। अंतरु = अंदरूनी। खोऐ = गवा लिए। ईहा = इस लोक में। कामि = काम में। विआपिआ = फसा रहा। आगै = परलोक में। मुसि मुसि = सिसक सिसक के।1।

मति = अक्ल। होरा = और किस्म की। वरमी = बिल। डोरा = बहरा।1। रहाउ।

किरति = मेहनत। सार = बद्र, सूझ। कउ = को। तरकन लागा = बहसने लग पड़ा। ततु = अस्लियत। जोगु = मिलाप।2।

ढबूआ = चांदी का रूपया। ते = से, की ओर से।3।

कूड़ि = झूठ में, माया के मोह में। कपटि = ठॅगी में। बंचि = ठगे जा के। निंमुनीआदा = बे मुनियादा, जिसकी पक्की नींव नहीं है। ततकाले = उसी क्षण, तुरंत। सति = सच। नानकि = नानक ने। समाले = संभाल के।4।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का भजन करने वाली अक्ल और किस्म की होती है (उसमें दिखावा नहीं होता)। अगर मनुष्य परमात्मा का नाम नहीं सुनता, यदि नाम की ओर से बहरा रहता है (तो बाहरी धार्मिक कर्म ऐसे ही हैं जैसे सांप को मारने की जगह सांप के बिल को ही कूटे जाने), पर अगर बिल को ही मारते जाएं तो इस तरह साँप नहीं मरता (बाहरी कर्मों से मन वश में नहीं आता)।1। रहाउ।

जो मनुष्य (तीर्थ आदि पर सिर्फ) शरीर धो के अंदरूनी मन (विकारों से) मैला ही रखता है वह लोक-परलोक अपने दोनों स्थान गवा लेता है। इस लोक में रहते हुए काम वासना में, क्रोध में, मोह में फसा रहता है, आगे परलोक में जा के सिसक-सिसक के रोता है।1।

(जिस मनुष्य ने त्याग के भुलेखे में आजीविका की खातिर) माया कमाने का उद्यम छोड़ दिया वह भक्ति की कद्र भी नहीं जानता। जो मनुष्य वेद-शास्त्र आदि धर्म-पुस्तकों को सिर्फ बहसों में ही उपयोग करना आरम्भ कर देता है वह (आत्मिक जीवन की) अस्लियत नहीं समझता, वह परमात्मा का मिलाप नहीं समझता।2।

जैसे जब कोई खोटा रुपया सर्राफा की नजर पड़ता है तो उसका खोट प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है; (वैसे ही जो मनुष्य अंदर से विकारी है, पर बाहर से धार्मिक भेखी) वह परमातमा से (अपने अंदर का खोट) छुपा नहीं सकता, हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा उसकी हरेक करतूत को जानता है।3।

मनुष्य की इस जगत में चार-रोजा जिंदगी है पर ये माया के मोह में ठॅगी-फरेब में आत्मिक जीवन लुटा के बड़ी जल्दी आत्मिक मौत मर जाता है।

हे भाई! नानक ने ये बात यकीनन सच कही है कि परमात्मा के नाम को अपने हृदय में बसता देख (यही आत्मिक जीवन है, यही जीवन उद्देश्य है)।4।3।42।

आसा महला ५ ॥ उदमु करत होवै मनु निरमलु नाचै आपु निवारे ॥ पंच जना ले वसगति राखै मन महि एकंकारे ॥१॥ तेरा जनु निरति करे गुन गावै ॥ रबाबु पखावज ताल घुंघरू अनहद सबदु वजावै ॥१॥ रहाउ ॥ प्रथमे मनु परबोधै अपना पाछै अवर रीझावै ॥ राम नाम जपु हिरदै जापै मुख ते सगल सुनावै ॥२॥ कर संगि साधू चरन पखारै संत धूरि तनि लावै ॥ मनु तनु अरपि धरे गुर आगै सति पदारथु पावै ॥३॥ जो जो सुनै पेखै लाइ सरधा ता का जनम मरन दुखु भागै ॥ ऐसी निरति नरक निवारै नानक गुरमुखि जागै ॥४॥४॥४३॥ {पन्ना 381}

पद्अर्थ: निरमलु = निर्मल, साफ, पवित्र। आपु = स्वै भाव, अहंकार। पंच जना = कामादिक पाँचों को। वसगति = काबू में।1।

निरति = नाच, भगती का नृत्य। पखावज = तबला। ताल = छैणे। अनहद = एक रस, बिना साज बजाए पैदा होने वाला राग।1। रहाउ।

परबोधै = जगाता है, समझाता है। अवर = औरों को। रीझावै = खुश करता है। ते = से।2।

कर संगि = हाथों से। साधू चरन = गुरमुखों के पैर। पखारै = पखाले, धोता है। तनि = शरीर पर। अरपि = हवाले करके। सति = सदा कायम रहने वाला।3।

पेखै = देखता है। सरधा = यकीन। ता का = उसका। निवारै = दूर करती है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य।4।

अर्थ: हे प्रभू! (देवी देवताओं के भक्त अपने ईष्ट की भक्ति करने के समय उसके आगे नृत्य करते हैं, पर) तेरा भक्त तेरी सिफत सालाह के गीत गाता है (ये, मानो) वह नाच करता है। हे प्रभू! तेरा भगत तेरी सिफत सालाह का शबद रूप बाजा (अपने अंदर) लगातार बजाता रहता है (शबद को हर वक्त अपने हृदय में बसाए रखता है) यही है उसके वास्ते रबाब तबला छैणे और घुंघरू (आदि साजों का बजना)।1। रहाउ।

(हे भाई! परमात्मा का भक्त ज्यों-ज्यों सिफत सालाह का) उद्यम करता है उसका मन पवित्र होता जाता है, वह अपने अंदर से स्वै भाव दूर करता है (ये मानो, वह परमात्मा की हजूरी में) नाच करता है। (परमात्मा का सेवक) अपने मन में परमात्मा को बसाए रखता है (इस तरह) वह कामादिक पाँचों को काबू में रखता है।1।

(परमात्मा की सिफत सालाह की बरकति से परमात्मा का भक्त) पहले अपने मन को (मोह की नींद में से) जगाता है, फिर औरों के अंदर (सिफत सालाह की) रीझ पैदा करता है। पहले वह अपने हृदय में परमात्मा के नाम का जाप करता है और फिर मुंह से वह जाप औरों को भी सुनाता है।2।

(परमात्मा का सेवक) अपने हाथों से गुरमुखों के पैर धोता है संत जनों के चरणों की धूड़ अपने शरीर पर लगाता है, अपना मन गुरू के हवाले करता है अपना शरीर (हरेक ज्ञानेन्द्रिय) गुरू को सौंप देता है और गुरू से सदा कायम रहने वाला हरि नाम प्राप्त करता है।3।

हे नानक! (परमात्मा की सिफत सालाह एक ऐसा नाच है कि) जो जो मनुष्य इसको सिदक धारण करके सुनता देखता है उसके जनम-मरण के चक्करों का दुख दूर हो जाता है। ऐसा नाच गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य को नर्कों से बचा लेता है (इस नाच की बरकति से) वह (मोह की नींद से) जाग जाता है।4।4।43।

आसा महला ५ ॥ अधम चंडाली भई ब्रहमणी सूदी ते स्रेसटाई रे ॥ पाताली आकासी सखनी लहबर बूझी खाई रे ॥१॥ घर की बिलाई अवर सिखाई मूसा देखि डराई रे ॥ अज कै वसि गुरि कीनो केहरि कूकर तिनहि लगाई रे ॥१॥ रहाउ ॥ बाझु थूनीआ छपरा थाम्हिआ नीघरिआ घरु पाइआ रे ॥ बिनु जड़ीए लै जड़िओ जड़ावा थेवा अचरजु लाइआ रे ॥२॥ दादी दादि न पहुचनहारा चूपी निरनउ पाइआ रे ॥ मालि दुलीचै बैठी ले मिरतकु नैन दिखालनु धाइआ रे ॥३॥ सोई अजाणु कहै मै जाना जानणहारु न छाना रे ॥ कहु नानक गुरि अमिउ पीआइआ रसकि रसकि बिगसाना रे ॥४॥५॥४४॥ {पन्ना 381}

पद्अर्थ: अधम = नीच। चंडाली = चंडालन। सूदी = शूद्रनी। ते = से। स्रेसटाई = श्रेष्ट, उत्तम। रे = हे भाई! सखनी = खाली, असंतुष्ट, वंचित। लहबर = (अरबी ‘लहब’ = आग की लाट)। बूझी = बुझ गई। खाई = खाई गई, खत्म हो गई।1।

बिलाई = बिल्ली। घर की बिलाई = मन की संतोष हीन बिरती। अवर सिखाई = और तरह से सिखाई गई। मूसा = चूहा। अज = बकरी, विनम्रता। गुरि = गुरू ने। केहरि = शेर, अहंकार। कूकर = कुत्ता, तमो गुण वाली इन्द्रियां। तिनहि = तृण, घास।1। रहउ।

थूनीआ = थमियां। नीघरिआ = नि घरा, भटकता फिरता। जड़ीआ = सोनारा। जड़ावा = जड़ाऊ गहना। थेवा = नग।2।

दादी = फरियादी, गिले करने वाला। दादि = इन्साफ। चूपी = शांत रहने वाला। निरनउ = इन्साफ, निर्णय। मालि = मल के। दुलीचै = दहलीज पर। मिरतकु = आम तौर पे मुर्दा। नैन दिखालनु = औरों को आँखें दिखाना, घूरना। धाइआ = दूर हो गया।3।

अजाणु = मूर्ख। जाना = जानता हूँ। जानणहारु = जिसने जान लिया है वह। छाना = छुपा हुआ। गुरि = गुरू ने। रसकि = स्वाद लगा के। बिगसाना = खिला रहता है।4।

अर्थ: (जिस मनुष्य को गुरू ने नाम-अमृत पिला दिया उसकी पहले वाली) संतोष-हीन बिरती बिल्ली अब और ही किस्म की शिक्षा लेती है वह दुनिया के पदार्थ (चूहा) देख के लालच करने से शर्माती है। गुरू ने उसके अहंकार-शेर को निम्रता-बकरी के अधीन कर दिया है, उसकी तमोगुणी इन्द्रियों (कुत्तों) को सतो गुणों की तरफ (घास खाने पर) लगा दिया।1। रहाउ।

हे भाई! नाम अमृत की बरकति से अति नीच चण्डालण बिरती (मानो) ब्राहमणी हो गई और शूद्रनी से ऊँचे कुल वाली हो गई। जो बिरती पहले पाताल से लेकर आकाश तक सारी दुनिया के पदार्थ ले के भी भूखी ही रहती थी उसकी तृष्णा की आग की लाट बुझ गई।1।

(हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू ने नाम-अमृत पिला दिया उसके मन का) छप्पर (छत) दुनियावी पदार्थों की आशाओं की थंमियों के बिना ही थमा गया उसके भटकते मन ने (प्रभू चरणों में) ठिकाना ढूँढ लिया। कारीगर सुनारों कीसहायता के बिना ही (उसके मन का) जड़ाऊ गहना तैयार हो गया और उस मन-गहने में परमात्मा के नाम का सुंदर नग जड़ दिया गया।2।

(हे भाई! परमात्मा के चरणों से विछुड़ के नित्य) शिकवे-शिकायतें करने वाला (अपनी मन-इच्छित) इन्साफ़ कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता था (पर अब जबसे नाम-अमृत मिल गया तो) शांत-चित्त हुए को न्याय मिलने लग पड़ा। (ये विश्वास हो गया कि परमात्मा जो कुछ करता है ठीक करता है)। (नाम-अमृत की बरकति से मनुष्य का पहले वाला) औरों को घूरने वाला स्वभाव खत्म हो गया, दुलीचे मल के बैठने वाली (अहंकार भरी बिरती) उसे अब आत्मि्क मौत मरी हुई दिखाई देने लग पड़ी।3।

हे भाई! जो मनुष्य (निरा ज़बानी ज़बानी) कहता है कि मैंने (आत्मिक जीवन के भेद को) समझ लिया है वह अभी मूर्ख है, जिसने (सचमुच आत्मिक जीवन को नाम-रस को) समझ लिया है वह कभी छुपा नहीं रहता है। हे नानक! कह– जिसको गुरू ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पिला दिया है वह इस नाम-जल का स्वाद ले ले के सदा खिला रहता है।4।5।44।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh