श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ आगै ही ते सभु किछु हूआ अवरु कि जाणै गिआना ॥ भूल चूक अपना बारिकु बखसिआ पारब्रहम भगवाना ॥१॥ सतिगुरु मेरा सदा दइआला मोहि दीन कउ राखि लीआ ॥ काटिआ रोगु महा सुखु पाइआ हरि अम्रितु मुखि नामु दीआ ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक पाप मेरे परहरिआ बंधन काटे मुकत भए ॥ अंध कूप महा घोर ते बाह पकरि गुरि काढि लीए ॥२॥ निरभउ भए सगल भउ मिटिआ राखे राखनहारे ॥ ऐसी दाति तेरी प्रभ मेरे कारज सगल सवारे ॥३॥ गुण निधान साहिब मनि मेला ॥ सरणि पइआ नानक सुोहेला ॥४॥९॥४८॥ {पन्ना 383}

पद्अर्थ: आगै हीते = धुर दरगाह से ही। कि = कौन सा? भूल चूक = गलतियां।1।

मोहि = मुझे। कउ = को। दीन = कंगाल। मुखि = मुंह में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल।1। रहाउ।

परहरिआ = दूर कर दिए। मुकत = स्वतंत्र, मुक्त। कूप = कूँआं। ते = से, में से। अंध घोर = घोर अंधकार। पकरि = पकड़ के। गुरि = गुरू ने।2।

राखनहारे = बचाने की स्मर्था रखने वाले प्रभू ने। सगल = सारे।3।

मुनि = मन में। मेला = मिलाप। सुोहेला = आसान ।

(नोट: अक्षर ‘स’ पर दो मात्राएं है ‘ु’ और ‘ो’ की। असल शब्द है ‘सुहेला’, पर यहां इसे ‘सोहेला’ पढ़ना है)।

अर्थ: (हे भाई!) मेरा सतिगुरू सदा ही दयावान रहता है उसने मुझे (आत्मिक जीवन के सरमाए से) कंगाल को (आत्मिक मौत लाने वाले रोग से) बचा लिया। (सतिगुरू ने) मेरे मुंह में परमात्मा का आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल डाला (मेरा विकारों का) रोग काटा गया, मुझे बड़ा आत्मिक आनंद प्राप्त हुआ।1। रहाउ।

जो बख्शिश मेरे ऊपर हुई है धुर से ही हुई है– इसके बिना जीव और क्या ज्ञान समझ सकता है? मेरी अनेकों भूलें-चूकें देख के भी पारब्रहम भगवान ने मुझे अपने बालक को बख्श लिया है।1।

(हे भाई!) गुरू ने मेरे अनेकों पाप दूर कर दिए हैं, मेरे (माया के मोह के) बंधन काट दिए हैं, मैं (मोह के बंधनों से) स्वतंत्र हो गया हूँ। गुरू ने मेरी बाँह पकड़ के मुझे (माया के मोह के) घोर अंधकार में से निकाल लिया है।2।

(हे भाई! विकारों से) बचा सकने की ताकत रखने वाले परमात्मा ने (मुझे विकारों से) बचा लिया है, अब (माया के हमलों से) बे-फिक्र हूँ। (इस ओर से) मेरा हरेक किस्म का डर-खतरा समाप्त हो गया है। हे मेरे प्रभू! तेरी ऐसी बख्शिश मेरे ऊपर हुई है कि मेरे (आत्मिक जीवन के) सारे ही कारज सफल हो गए हैं।3।

हे नानक! (कह– हे भाई!) गुणों के खजाने मालिक-प्रभू का मेरे मन में मिलाप हो गया है (जब का गुरू की कृपा से) मैं (उसकी) शरण पड़ा हूँ मैं निष्चिंत हो गया हूँ।4।9।48।

आसा महला ५ ॥ तूं विसरहि तां सभु को लागू चीति आवहि तां सेवा ॥ अवरु न कोऊ दूजा सूझै साचे अलख अभेवा ॥१॥ चीति आवै तां सदा दइआला लोगन किआ वेचारे ॥ बुरा भला कहु किस नो कहीऐ सगले जीअ तुम्हारे ॥१॥ रहाउ ॥ तेरी टेक तेरा आधारा हाथ देइ तूं राखहि ॥ जिसु जन ऊपरि तेरी किरपा तिस कउ बिपु न कोऊ भाखै ॥२॥ ओहो सुखु ओहा वडिआई जो प्रभ जी मनि भाणी ॥ तूं दाना तूं सद मिहरवाना नामु मिलै रंगु माणी ॥३॥ तुधु आगै अरदासि हमारी जीउ पिंडु सभु तेरा ॥ कहु नानक सभ तेरी वडिआई कोई नाउ न जाणै मेरा ॥४॥१०॥४९॥ {पन्ना 383}

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। लागू = वैरी। चीति = चित्त में। आवहि = अगर तू आ बसे। सेवा = आदर। अवरु = और। साचे = हे सदा कायम रहने वाले! अलख = हे अलख! (जिसका सही रूप बयान नहीं किया जा सके)। अभेव = जिसका भेद ना पाया जा सके।1।

आवै चीति = यदि परमात्मा चित्त में आ बसे। वेचारे = निमाणे। कहु = बता। जीअ = (शब्द ‘जीअ’ का बहुवचन)।1। रहाउ।

आधारा = आसरा। देइ = दे के। कउ = को। बिपु = विप्रेय, बुरा वचन। भाखै = बोलता, कहता।2।

ओहो = वह ही। ओहा = वह ही (स्त्री लिंग शब्द ‘ओहो’ का)। मनि = मन मे। भाणी = पसंद आती। दाना = जानने वाला। माणी = मैं माणू, मैं भोगूं। सद = सदा।3।

जिउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। नानक = हे नानक!।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में परमात्मा की याद टिकी रहती है उस पर परमात्मा सदा दयावान रहता है, दुनिया के बिचारे लोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

हे प्रभू! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं। फिर बता, किसको ठीक कहा जा सकता है और किसे बुरा कहा जा सकता है? (भाव, परमातमा की याद मन में बसाने वाले मनुष्य को सब जीव परमात्मा के पैदा किए हुए दिखते हैं, वह किसी को बुरा नहीं समझता)।1। रहाउ।

हे प्रभू! यदि तू मेरे मन में से बिसर जाए तो हरेक जीव मुझे वैरी प्रतीत होता है। पर अगर तू मेरे चित्त में आ बसे तो हर कोई मेरा आदर-सत्कार करता है। हे सदा कायम रहने वाले! हे अलख! हे अभेव प्रभू! मुझे (जगत में) तेरे बराबर का और कोई नहीं दिखता।1।

हे प्रभू! मुझे तेरी ही ओट है, तेरा ही आसरा है, तू अपना हाथ दे के स्वयं (हमारी) रक्षा करता है। जिस मनुष्य पे तेरी (मेहर की) नजर हो उसे कोई मनुष्य बुरे वचन नहीं कहता।2।

हे प्रभू जी!जो बात तुझे अपने मन में अच्छी लगती है वही मेरे वास्ते सुख है, वही मेरे वास्ते आदर-सत्कार है। तू सबके दिल की जानने वाला है, तू सदा सब जीवों पे दयावान रहता है। मैं तभी आनंद ले सकता हूँ जब मुझे तेरा नाम मिला रहे।3।

हे प्रभू! तेरे आगे मेरी अरदास है– मेरे ये प्राण ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है। हे नानक! कह– (अगर कोई मेरा आदर-सत्कार करता है तो) ये तेरी ही बख्शी हुई वडिआई है। (यदि मैं तुझे भुला बैठूँ तो) कोई जीव मेरा नाम पता करने की भी परवाह ना करे।4।10।49।

आसा महला ५ ॥ करि किरपा प्रभ अंतरजामी साधसंगि हरि पाईऐ ॥ खोलि किवार दिखाले दरसनु पुनरपि जनमि न आईऐ ॥१॥ मिलउ परीतम सुआमी अपुने सगले दूख हरउ रे ॥ पारब्रहमु जिन्हि रिदै अराधिआ ता कै संगि तरउ रे ॥१॥ रहाउ ॥ महा उदिआन पावक सागर भए हरख सोग महि बसना ॥ सतिगुरु भेटि भइआ मनु निरमलु जपि अम्रितु हरि रसना ॥२॥ तनु धनु थापि कीओ सभु अपना कोमल बंधन बांधिआ ॥ गुर परसादि भए जन मुकते हरि हरि नामु अराधिआ ॥३॥ राखि लीए प्रभि राखनहारै जो प्रभ अपुने भाणे ॥ जीउ पिंडु सभु तुम्हरा दाते नानक सद कुरबाणे ॥४॥११॥५०॥ {पन्ना 383}

पद्अर्थ: प्रभ अंतरजामी = हे सबके दिलों की जानने वाले प्रभू! साध-संगति = साध-संगति में। किवार = किवाड़, दरवाजे। पुनरपि = पुनः अपि, फिर भी, बार बार। जनमि = जनम में।1।

मिलउ = मैं मिलूँ। हरउ = मैं दूर करूँ। हे = हे भाई! जिनि् = जिस मनुष्य ने। रिदै = हृदय में। ता कै संगि = उसकी संगति में।1। रहाउ।

महा = बड़ा। उदिआन = जंगल। पावक = आग। सागर = समुंद्र। हरख = हर्ष, खुशी। सोग = गमी। भेटि = भेटे, मिलता है। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम। रसना = जीभ (से)।2।

थापि = मिथ के। कोमल = नर्म, मीठे। परसादि = कृपा से। मुकते = स्वतंत्र, आजाद।3।

प्रभि = प्रभू ने। प्रभ भाणै = प्रभू को अच्छे लगे। जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। दाते = हे दातार! सद = सदा।4।

अर्थ: हे भाई! (यदि मेरे ऊपर प्रभू की कृपा हो जाए तो) मैं अपने प्यारे पति-प्रभू को मिल जाऊँ और अपने सारे दुख दूर कर लूँ। हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा प्रभू को अपने हृदय में सिमरा है, मैं भी उसकी संगति में रहके संसार-समुंद्र से पार लांघ जाऊँ।1। रहाउ।

हे सबके दिल की जानने वाले प्रभू! मेहर कर (और मुझे गुरू की संगति मिला)। (हे भाई!) गुरू की संगति में रहने से परमात्मा मिल जाता है, हमारे (माया के मोह के बंद पड़े) किवाड़ खोल के अपने दर्शन करवाता है, और दुबारा (हम) जन्मों के चक्करों में नहीं पड़ते।1।

(हे भाई! प्रभू से विछुड़ के ये जगत मनुष्य के वास्ते) एक बड़ा जंगल बन जाता है (जिसमें मनुष्य भटकता फिरता है) आग का समुंद्र बन जाता है (जिसमें मनुष्य जलता रहता है) कभी खुशी में बसता है, कभी ग़मीं में। जिस मनुष्य को गुरू मिल जाता है, आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम जीभ से जप के उस मनुष्य का मन पवित्र हो जाता है।2।

(हे भाई!) इस शरीर को अपना समझ के, इस धन को अपना मान के जीव (माया के मोह के) मीठे-मीठे बंधनों से बंधे रहते हैं, पर जिन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम की आराधना की वे गुरू की कृपा से (इन कोमल बंधनों से) आजाद हो जाते हैं।3।

(हे भाई!) जो मनुष्य, प्यारे प्रभू को अच्छे लगने लग पड़ते हैं, उन्हें (माया के कोमल बंधनों से) बचाने की शक्ति वाले प्रभू ने बचा लिया।

हे नानक! (कह–) हे दातार! ये प्राण और ये शरीर सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है (मेहर कर, मैं इन्हें अपना ही ना समझता रहूँ)। हे दातार! मैं तुझ पे कुर्बान जाता हूँ।4।11।50।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh