श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 384 आसा महला ५ ॥ मोह मलन नीद ते छुटकी कउनु अनुग्रहु भइओ री ॥ महा मोहनी तुधु न विआपै तेरा आलसु कहा गइओ री ॥१॥ रहाउ ॥ कामु क्रोधु अहंकारु गाखरो संजमि कउन छुटिओ री ॥ सुरि नर देव असुर त्रै गुनीआ सगलो भवनु लुटिओ री ॥१॥ दावा अगनि बहुतु त्रिण जाले कोई हरिआ बूटु रहिओ री ॥ ऐसो समरथु वरनि न साकउ ता की उपमा जात न कहिओ री ॥२॥ काजर कोठ महि भई न कारी निरमल बरनु बनिओ री ॥ महा मंत्रु गुर हिरदै बसिओ अचरज नामु सुनिओ री ॥३॥ करि किरपा प्रभ नदरि अवलोकन अपुनै चरणि लगाई ॥ प्रेम भगति नानक सुखु पाइआ साधू संगि समाई ॥४॥१२॥५१॥ {पन्ना 384} पद्अर्थ: मलन = (मन को) मैला करने वाली। ते = से। छुटकी = खलासी पाई। अनुग्रहु = कृपा। री = हे सखी! मोहनी = मन को मोहने वाली (माया)। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। कहा गइओ = कहां चला गया?।1। गाखरो = मुश्किल, तकलीफ़ देने वाला। संजमि कउन = किस युक्ति से? सुर नर = भले मनुष्य। देव = देवते। असुर = दैंत। त्रै गुनीआ = त्रिगुणी जीव। भवनु = संसार।1। दावा अगनि = जंगल की आग। त्रिण = घास, वनस्पति। बूट = पौधा। अैसो समरथ = ऐसा बली जो इस आग से बचा रहा। वरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकती। उपमा = वडिआई।2। काजर कोठ = काजल की कोठड़ी। कारी = काली। बरनु = वर्ण, रंग। निरमल = सफेद। मंत्र गुर = गुरू का मंत्र।3। प्रभि = प्रभू ने। नदरि = मेहर की निगाह (से)। अवलोकन = देखना (क्रिया)। चरणि = चरणों में। साधू संगि = गुरू की संगति में। समाई = मैं समा गई।4। अर्थ: हे सहेली! तू मन को मैला करने वाली मोह की नींद से बच गई है, तेरे ऊपर कौन सी कृपा हुई है? (जीवों के मन को) मोह लेने वाली बली माया भी तेरे पर जोर नहीं डाल सकती, तेरा आलस भी सदा के लिए समाप्त हो गया है।1। रहाउ। हे बहन! ये काम, क्रोध, ये अहंकार (ये हरेक, जीवों को) बहुत मुश्किलें देने वाले हैं, (तेरे अंदर से) किस युक्ति से इनका नाश हुआ? हे बहन! भले मनुष्य, देवते, दैत्य, सारे त्रिगुणी जीव- सारा जगत ही इन्होंने लूट लिया है (सारे जगत का आत्मिक जीवन का सरमाया इन्होंने लूट लिया है)।1। हे सहेली! जब जंगल को आग लगती है तो बहुत सारा घास-बूटा जल जाता है, कोई विरला हरा पौधा ही बचता है (इसी तरह जगत-जंगल को तृष्णा की आग जला रही है, कोई विरला आत्मिक तौर पे बली मनुष्य ही बच सकता है, जो इस तृष्णा-अग्नि की जलन से बचा है) ऐसे बली मनुष्य की आत्मिक अवस्था मैं बयान नहीं कर सकती, मैं बता नहीं सकती कि उस जैसा और कौन हो सकता है।2। (नोट: उपरोक्त प्रश्न का उत्तर–) हे बहन! मेरे हृदय में सतिगुरू का (शबद रूपी) बड़ा बली मंत्र बस रहा है, मैं आश्चर्य (ताकत वाले) प्रभू का नाम सुनती रहती हूँ, (इस वास्ते इस) काजल भरी कोठड़ी (संसार में रहते हुए भी) मैं विकारों की (कालिख़ से) काली नहीं हुई, मेरा साफ-सुथरा रंग ही टिका रहा है।3। हे नानक! (कह–) हे बहिन! प्रभू ने कृपा करके अपनी (मेहर की) निगाह से मुझे देखा, मुझे अपने चरणों में जोड़े रखा, मुझे उसका प्रेम प्राप्त हुआ, मुझे उसकी भक्ति (की दाति) मिली, मैं (तृष्णा-अग्नि में जल रहे संसार में भी) आत्मिक आनंद पा रही हूँ, मैं साध-संगति में लीन रहती हूँ।4।12।51। नोट: ‘घरु ६’ के 12 शबद यहीं सम्पन्न होते हैं। महला ५ के कुल शब्दों का जोड़ 51 है। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा घरु ७ महला ५ ॥ लालु चोलना तै तनि सोहिआ ॥ सुरिजन भानी तां मनु मोहिआ ॥१॥ कवन बनी री तेरी लाली ॥ कवन रंगि तूं भई गुलाली ॥१॥ रहाउ ॥ तुम ही सुंदरि तुमहि सुहागु ॥ तुम घरि लालनु तुम घरि भागु ॥२॥ तूं सतवंती तूं परधानि ॥ तूं प्रीतम भानी तुही सुर गिआनि ॥३॥ प्रीतम भानी तां रंगि गुलाल ॥ कहु नानक सुभ द्रिसटि निहाल ॥४॥ सुनि री सखी इह हमरी घाल ॥ प्रभ आपि सीगारि सवारनहार ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥५२॥ {पन्ना 384} नोट: यहां से आगे ‘घरु ७’ में गाए जाने वाले शबदों का संग्रह आरम्भ होता है। पद्अर्थ: तै तनि = तेरे शरीर पर। सोहिआ = शोभा दे रहा है, सुंदर लग रहा है। सुरिजन भानी = सज्जन हरी को प्यारी लगी। तां = तभी। मोहिआ = मोह लिया है।1। कवन = कैसे? री = हे सहेली! लाली = मुँह की लाली। रंगि = रंग से। गुलाली = गाढ़े रंग वाली।1। रहाउ। सुंदरि = (स्त्री लिंग) सुंदरी। तुमहि सुहागु = तेरा ही सुहाग। तुम घरि = तेरे हृदय घर में। लालनु = प्रीतम प्रभू।2। सतसंगी = ऊँचे आचरण वाली। परधानि = जानी मानी। प्रीतम भानी = प्रीतम प्रभू को भाने लगी। सुर गिआनि = श्रेष्ठ ज्ञान वाली।3। रंगि गुलाल = गाढ़े रंग में। निहाल = देखा, ताका।4। घाल = मेहनत। प्रभ आपि = प्रभू ने खुद ही। सीगारि = श्रृंगार के, सजा के। रहाउ दूजा। नोट: ‘रहाउ दूजा’ में पहले ‘रहाउ’ में किए गए प्रश्न का उत्तर है। अर्थ: हे बहिन! (बता,) तेरे चेहरे पे लाली कैसे आ गई है? किस रंग की बरकति से तू सुंदर गाढ़े गुलाल रंग वाली बन गई है?।1। रहाउ। (हे बहिन!) तेरे शरीर पे लाल रंग का चोला सुंदर लग रहा है (तेरे मुंह की लाली सुंदर झलक मार रही है। शायद) तू सज्जन हरी को प्यारी लग रही है, तभी तो तूने मेरा मन (भी) मोह लिया है।1। हे बहिन! तू बड़ी खूबसूरति दिख रही है। तेरे सुहाग-भाग्य उघड़ के सामने आ गए हैं (ऐसा प्रतीत होता है कि) तेरे हृदय घर में प्रीतम प्रभू आ बसा है, तेरे हृदय घर मेंकिस्मत जाग पड़ी है।2। हे बहिन! तू स्वच्छ आचरण वाली हो गई है तू अब हर जगह आदर-मान पा रही है। (अगर) तू प्रीतम प्रभू को अच्छी लग रही है (तो) तू श्रेष्ठ ज्ञान वाली बन गई है।3। हे नानक! कह– (हे बहिन! मैं) प्रीतम प्रभू को अच्छी लग गई हूँ, तभी तो मैं गाढ़े प्रेम रंग में रंगी गई हूँ। वह प्रीतम प्रभू मुझे अच्छी (प्यार भरी) निगाह से देखता है।4। (पर) हे सहेली! तू पूछती है (मैंने कौन सी मेहनत की, बस!) यही है मेहनत जो मैंने की कि उस सुंदरता की दाति देने वाले प्रभू ने खुद ही मुझे (अपने प्यार की दाति दे के) सुंदरी बना लिया है।1। रहाउ दूसरा।1।52। नोट: आखिरी अंक १ बताता है कि ‘घरु’ ८ का ये पहला शबद है। अब तक महला ५ के कुल 52 शबद आ चुके हैं। आसा महला ५ ॥ दूखु घनो जब होते दूरि ॥ अब मसलति मोहि मिली हदूरि ॥१॥ चुका निहोरा सखी सहेरी ॥ भरमु गइआ गुरि पिर संगि मेरी ॥१॥ रहाउ ॥ निकटि आनि प्रिअ सेज धरी ॥ काणि कढन ते छूटि परी ॥२॥ मंदरि मेरै सबदि उजारा ॥ अनद बिनोदी खसमु हमारा ॥३॥ मसतकि भागु मै पिरु घरि आइआ ॥ थिरु सोहागु नानक जन पाइआ ॥४॥२॥५३॥ {पन्ना 384} पद्अर्थ: घनो = बहुत। दूरि = (परमात्मा की हजूरी से) दूर। मसलति = सलाह, शिक्षा, गुरू की शिक्षा। मोहि = मुझे। हदूरि = हजूरी, परमात्मा की हजूरी।1। चुका = समाप्त हो गया। निहोरा = उलाहमा, गिला शिकवा। सखी सहेरी = हे सखी! हे सहेली! गुरि = गुरू ने। मेरी = मेली, मिला दी।1। रहाउ। निकटि = नजदीक। आनि = ला के। प्रिअ सेज = प्यारे की सेज पे। धरी = बैठा दी। काणि = मुथाजी। ते = से। छूटि परी = बच गई हूँ।2। मंदरि = हृदय मंदिर में। सबदि = गुरू के शबद द्वारा। उजारा = आत्मिक जीवन का प्रकाश। अनद बिनोदी = सारे आनंदों का खेल तमाशों का मालिक।3। मसतकि = माथे पर। घरि = हृदय घर में। थिरु = सदा कायम रहने वाला।4। अर्थ: हे सखी! हे सहेली! मुझे गुरू ने पति-प्रभू के साथ मिला दिया है, अब मेरी भटकना दूर हो गई है (प्रभू चरणों से पहले विछोड़े के कारण पैदा हुए दुख कलेशों का) उलाहमा देना खत्म हो गया है।1। रहाउ। हे सखी! हे सहेली! जब मैं प्रभू-चरणों से दूर रहती थी मुझे बहुत दुख (होता था) अब (गुरू की) शिक्षा की बरकति से मुझे (प्रभू की) हजूरी प्राप्त हो गई है (मैं प्रभू-चरणों में टिकी रहती हूँ, इस वास्ते कोई दुख-कलेश मुझे छू नहीं सकता)।1। हे सखी! (गुरू ने) मुझे प्रभू-चरणों के नजदीक ला के प्यारे प्रभू-पति की सेज पर बैठा दिया है (प्रभू-चरणों में जोड़ दिया है)। अब (हरेक की) मुथाजी करने से मैं बच गई हूँ।2। (हे सखी! हे सहेली!) गुरू के शबद की बरकति से मेरे हृदय मंदिर में (सही आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, सारे आनंदों और खेल-तमाशों का मालिक मेरा पति-प्रभू (मुझे मिल गया है)।3। हे दास नानक! (कह– हे सखी!) मेरे माथे (के) भाग जाग पड़े हैं (क्योंकि) मेरा पति-प्रभू मेरे (हृदय-) घर में आ गया है, मैंने अब वह सुहाग ढूँढ लिया है।4।2।53। आसा महला ५ ॥ साचि नामि मेरा मनु लागा ॥ लोगन सिउ मेरा ठाठा बागा ॥१॥ बाहरि सूतु सगल सिउ मउला ॥ अलिपतु रहउ जैसे जल महि कउला ॥१॥ रहाउ ॥ मुख की बात सगल सिउ करता ॥ जीअ संगि प्रभु अपुना धरता ॥२॥ दीसि आवत है बहुतु भीहाला ॥ सगल चरन की इहु मनु राला ॥३॥ नानक जनि गुरु पूरा पाइआ ॥ अंतरि बाहरि एकु दिखाइआ ॥४॥३॥५४॥ {पन्ना 384} पद्अर्थ: साचि = स्थिर रहने वाले में। नामि = नाम में। सिउ = साथ। ठाठा बागा = ठॅठ, वॅग, ठाह ठीया, काम चलाने जितना उद्यम, उतना ही वरतन व्यवहार जितने की बहुत जरूरत पड़े।1। बाहरि = दुनिया में, दुनिया से बरतने के समय। सूतु मउला = सूत्र मिला हुआ है, प्यार बना हुआ है, प्यार का संबंध है। अलिपतु = निर्लिप। रहउ = मैं रहता हूँ। कउला = कमल फूल।1। रहाउ। मुख की बात = मुंह की बात। जीअ संगि = हृदय में, प्राणों में।2। भीहाला = डरावना, रूखा, बे मेहरा, कोरा। राला = चरण धूड़, ख़ाक।3। जनि = जन ने, दास ने। अंतरि = अंदर बसता। बाहरि = सारे जगत में बसता। अर्थ: (हे भाई!) दुनिया से बरतने-व्यवहार के समय मैं सबसे प्यार वाला संबंध रखता हूँ, (पर दुनिया के साथ बरतता हुआ भी दुनिया से ऐसे) निर्लिप रहता हूँ जैसे पानी में (रहते हुए भी) कमल का फूल (पानी से निर्लिप रहता है)।1। रहाउ। (हे भाई!) मेरा मन सदा कायम रहने वाले परमात्मा के नाम में (सदा) जुड़ा रहता है, दुनिया के लोगों से मेरा उतना ही वरतन-व्यवहार है जितने की अति जरूरी जरूरत पड़ती है।1। (हे भाई!) मैं सब लोगों से (जरूरत के मुताबिक) मुंह से बातें करता हूँ (पर, कहीं भी मोह में अपने मन को फसने नहीं देता) अपने हृदय में मैं सिर्फ परमात्मा को ही टिकाए रखता हूँ।2। (हे भाई! मेरे इस तरह के आत्मिक जीवन के अभ्यास के कारण लोगों को मेरा मन) बड़ा रूखा और कोरा दिखता है; पर (दरअसल मेरा) ये मन सबके चरणों की धूल बना रहता है।3। हे नानक! जिस (भी) मनुष्य ने पूरा गुरू पा लिया है (गुरू ने उसको) उसके अंदर और बाहर सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखा दिया है (इस वास्ते वह दुनिया से प्यार करने वाला सलूक भी रखता है और निर्मोही रहके सुरति अंदर रहके सुरति को अंदर बसते प्रभू में भी जोड़े रखता है)।4।3।54। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |