श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 398 आसा महला ५ ॥ पूरि रहिआ स्रब ठाइ हमारा खसमु सोइ ॥ एकु साहिबु सिरि छतु दूजा नाहि कोइ ॥१॥ जिउ भावै तिउ राखु राखणहारिआ ॥ तुझ बिनु अवरु न कोइ नदरि निहारिआ ॥१॥ रहाउ ॥ प्रतिपाले प्रभु आपि घटि घटि सारीऐ ॥ जिसु मनि वुठा आपि तिसु न विसारीऐ ॥२॥ जो किछु करे सु आपि आपण भाणिआ ॥ भगता का सहाई जुगि जुगि जाणिआ ॥३॥ जपि जपि हरि का नामु कदे न झूरीऐ ॥ नानक दरस पिआस लोचा पूरीऐ ॥४॥७॥१०९॥ {पन्ना 398} पद्अर्थ: पूरि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। स्रब ठाइ = सब जगह में। सोइ = वह (परमात्मा)। सिरि = सिर पे। छत्रु = छत्र।1। राखणहारिआ = हे रक्षा करने की समर्था रखने वाले! नदरि = निगाह। निहालिआ = देखा।1। रहाउ। प्रतिपाले = पालना करता है। घटि घटि = हरेक शरीर में। सारीअै = सारे, सार लेता है। मनि = मन में। वुठा = आ बसा। विसारीअै = बिसारता है, भुलाता।2। आपण भाणा = अपनी रजा अनुसार। सहाई = मददगार। जुगि जुगि = हरेक युग में।3। जपि = जप के। न झूरीअै = चिंता फिक्र नहीं करते। लोचा = चाहत। पूरीअै = पूरी कर।4। अर्थ: हे सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ प्रभू! जैसे तुझे ठीक लगे, उसी तरह मेरी रक्षा कर। मैंने तेरे बिना अभी तक कोई अपनी आँखो से नहीं देखा जो तेरे जैसा हो।1। रहाउ। (हे भाई!) हमारा वह खसम-सांई हरेक जगह व्यापक है, (सब जीवों का वह) एक ही मालिक है (सारी सृष्टि की बादशाहियत का) छत्र (उसके) सिर पर है, उसके बराबर और कोई नहीं।1। (हे भाई!) हरेक शरीर में बैठा प्रभू हरेक की सार लेता है, हरेक की पालना करता है। जिस मनुष्य के मन में वह प्रभू स्वयं बसता है, उसे कभी फिर भुलाता नहीं।2। (हे भाई! जगत में) जो कुछ कर रहा है परमात्मा स्वयं ही अपनी रजा अनुसार कर रहा है, (जगत में) ये बात प्रसिद्ध है कि हरेक युग में परमात्मा अपने भक्तों की सहायता करता आ रहा है।3। (हे भाई!) परमात्मा का नाम जप-जप के फिर कभी किसी किस्म की कोई चिंता नहीं करनी पड़ती। (हे प्रभू! तेरे दास) नानक को तेरे दर्शन की प्यास है (नानक की ये) चाहत पूरी कर।4।7।109। आसा महला ५ ॥ किआ सोवहि नामु विसारि गाफल गहिलिआ ॥ कितीं इतु दरीआइ वंञन्हि वहदिआ ॥१॥ बोहिथड़ा हरि चरण मन चड़ि लंघीऐ ॥ आठ पहर गुण गाइ साधू संगीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ भोगहि भोग अनेक विणु नावै सुंञिआ ॥ हरि की भगति बिना मरि मरि रुंनिआ ॥२॥ कपड़ भोग सुगंध तनि मरदन मालणा ॥ बिनु सिमरन तनु छारु सरपर चालणा ॥३॥ महा बिखमु संसारु विरलै पेखिआ ॥ छूटनु हरि की सरणि लेखु नानक लेखिआ ॥४॥८॥११०॥ {पन्ना 398} पद्अर्थ: किआ सोवहि = तू क्यों सो रहा है? विसारि = भुला के। गाफल = हे गाफल! गहिलिआ = हे गहिले! हे बेपरवाह! कितीं = कितने ही, अनेकों जीव। इतु = इस में। दरीआइ = (संसार) दरिया में। वंञनि् = जा रहे हैं। वहदिया = बहते हुए।1। बोहिथड़ा = सोहना जहाज। मन = हे मन! चढ़ि = चढ़ के। साधू संगीअै = गुरू की संगति में।1। रहाउ। भोगहि = (जीव) भोगते हैं। सुंञिआ = सूने, आत्मिक जीवन से खाली। मरि मरि = आत्मिक मौत सहेड़ के। रुंनिआ = दुखी होते हैं।2। तनि = शरीर पर। मरदन = वटना आदि। मालणा = मलते हैं। छारु = राख, मिट्टी। सरपर = जरूर।3। बिखमु = बिखड़ा, मुश्किल। विरले = किसी विरले मनुष्य ने। छूटनु = (इस विषम संसार से) निजात।4। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के चरण एक सुंदर सा जहाज हैं; (इस जहाज में) चढ़ के (संसार समुंद्र से पार) लांघ जाते हैं (इस वास्ते, हे मन!) गुरू की संगति में रहके आठों पहर प्रमात्मा के गुण गाता रहा कर।1। रहाउ। हे गाफ़ल मन! हे बेपरवाह मन! परमात्मा का नाम भुला के क्यूँ (माया के मोह की नींद में) सो रहा है? (देख, नाम बिसार के) अनेकों ही जीव इस (संसार-) नदी में बहते जा रहे हैं।1। (हे मन! मोह की नींद में सोए हुए जीव दुनिया के) अनेकों भोग भोगते रहते हैं, पर परमात्मा के नाम के बिना आत्मिक जीवन से खाली ही रह जाते हैं। परमात्मा की भक्ति के बिना (ऐसे जीव) सदा आत्मिक मौत पा पा के दुखी होते रहते हैं।2। (हे मन!) देख, जीव (सुंदर-सुंदर) कपड़े पहनते हैं, स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं, शरीर पर सुगंधि वाले वटने आदि मलते हैं, पर परमात्मा के नाम-सिमरन के बिना उनका ये शरीर राख (के समान ही रहता) है, इस शरीर ने तो आखिर जरुर नाश हो जाना है।3। हे नानक! (कह–) किसी विरले (भाग्यशाली) ने देखा है कि यह संसार- (समंद्र) बड़ा भयानक है, परमात्मा की शरण पड़ने पर ही इस में से बचाव होता है। (वही बचता है जिसके माथे पर प्रभू-नाम के सिमरन का) लेख लिखा हुआ है।4।8।110। आसा महला ५ ॥ कोइ न किस ही संगि काहे गरबीऐ ॥ एकु नामु आधारु भउजलु तरबीऐ ॥१॥ मै गरीब सचु टेक तूं मेरे सतिगुर पूरे ॥ देखि तुम्हारा दरसनो मेरा मनु धीरे ॥१॥ रहाउ ॥ राजु मालु जंजालु काजि न कितै गनुो ॥ हरि कीरतनु आधारु निहचलु एहु धनुो ॥२॥ जेते माइआ रंग तेत पछाविआ ॥ सुख का नामु निधानु गुरमुखि गाविआ ॥३॥ सचा गुणी निधानु तूं प्रभ गहिर ग्मभीरे ॥ आस भरोसा खसम का नानक के जीअरे ॥४॥९॥१११॥ {पन्ना 398} पद्अर्थ: किस ही संगि = किसी के भी साथ। गरबीअै = गर्व करें। आधारु = आसरा। भउजलु = संसार समुंद्र। तरबीअै = तैर सकते हैं।1। सचु = सदा कायम रहने वाला। टेक = आसरा। सतिगुर = हे सतिगुरू! देखि = देख के। धीरे = धैर्य पकड़ता है।1। रहाउ। जंजालु = मोह में फंसाने वाला। काजि कितै = किसी भी काम। गनुो = (असल शब्द ‘गनु’ है, यहां पढ़ना है ‘गनो’) गिनो, पैमायश। आधारु = आसरा। धनुो = (असल शब्द है ‘धनु’, यहां पढ़ना है ‘धनो’)।2। रंग-तमाशे। तेते = वह सारे। पछाविआ = परछावें (की तरह ढल जाने वाले)। सुख निधानु = सुखों का खजाना।3। गहिर = गहिरा। गंभीर = बड़े जिगरे वाला। जीअ रे = हे जिंदे!4। अर्थ: हे मेरे पूरे सतिगुरू (प्रभू)! तू सदा कायम रहने वाला है मुझ गरीब का तू ही सहारा है। तेरे दर्शन करके मेरा मन (इस संसार-समुंद्र से पार लांघ सकने के लिए) धैर्य पकड़ता है।1। रहाउ। (हे मेरी जिंदे!) कोई मनुष्य सदा किसी के साथ नहीं निभता (इस वास्ते संबंधी आदि का) का कोई गुमान नहीं करना चाहिए। सिर्फ परमात्मा का नाम ही (असल) आसरा है (नाम के आसरे ही) संसार-समुंद्र से पार लांघ सकते हैं।1। (हे जिंदे!) दुनिया की पातशाही और धन-पदार्थ मन को मोहे रखते हैं, (इस राज-माल को आखिर) किसी काम आता ना समझ। परमात्मा की सिफत सालाह ही जिंद का असल आसरा है, यही सदा कायम रहने वाला धन है।2। (हे जिंदे!) माया के जितने भी रंग-तमाशे हैं, वे सारे परछाई की तरह ढल जाने वाले हैं, परमात्मा का नाम ही सारे सुखों का खजाना है, ये नाम गुरू की शरण पड़ के ही सराहा जा सकता है।3। हे प्रभू! तू गहरा है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे नानक की जिंदे! इस पति-प्रभू की ही (अंत तक निभने वाले साथ की) आस रख, पति-प्रभू का ही भरोसा रख।4।9।111। आसा महला ५ ॥ जिसु सिमरत दुखु जाइ सहज सुखु पाईऐ ॥ रैणि दिनसु कर जोड़ि हरि हरि धिआईऐ ॥१॥ नानक का प्रभु सोइ जिस का सभु कोइ ॥ सरब रहिआ भरपूरि सचा सचु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ अंतरि बाहरि संगि सहाई गिआन जोगु ॥ तिसहि अराधि मना बिनासै सगल रोगु ॥२॥ राखनहारु अपारु राखै अगनि माहि ॥ सीतलु हरि हरि नामु सिमरत तपति जाइ ॥३॥ सूख सहज आनंद घणा नानक जन धूरा ॥ कारज सगले सिधि भए भेटिआ गुरु पूरा ॥४॥१०॥११२॥ {पन्ना 398} पद्अर्थ: सहज सुखु = आत्मिक अडोलता का आनंद। रैणि = रात। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के।1। जिस का: शब्द ‘जिस’ की मात्रा ‘ु’ संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। सभु कोइ = हरेक जीव। सचा = सदा कायम रहने वाला।1। रहाउ। संगि = साथ। सहाई = सहायता करने वाला। गिआनि जोगु = जाननेयोग्य। आराधि = सिमर। मना = हे मन! सगल = सारा।2। राखनहारु = रक्षा करने की समर्था वाला। माहि = में। सीतलु = ठंड देने वाला।3। घणा = बहुत। जन धूरा = प्रभू के सेवकों की चरण धूड़। सिधि = सफलता।4। अर्थ: (हे भाई!) नानक का पति-प्रभू वह है जिसका पैदा किया हुआ हरेक जीव है। वह प्रभू सब जीवों में व्यापक है, वह सदा कायम रहने वाला है, सिर्फ वही सदा कायम रहने वाला है।1। रहाउ। (हे भाई!) जिस परमात्मा का सिमरन करने से हरेक दुख दूर हो जाता है और आत्मिक अडोलता का आनंद मिलता है उसके आगे दोनों हाथ जोड़ के सदा उसका ध्यान धरना चाहिए।1। हे मेरे मन! उस परमात्मा की आरधना किया कर जो सबके अंदर बस रहा है, जो सारे संसार में बस रहा है, जो सबके साथ रहता है, जो सबकी सहायता करता है, जिससे गहरी जान-पहिचान डालनी बहुत जरूरी है (हे मन! उसका सिमरन करने से) हरेक रोग का नाश हो जाता है।2। हे भाई! सबकी रक्षा करने की समर्था वाला बेअंत परमात्मा (माँ के पेट की) आग में (हरेक जीव की) रक्षा करता है, उस परमात्मा का नाम (मन में) ठंड डालने वाला है, उसका नाम सिमरने से (मन में से तृष्णा की) तपश बुझ जाती है।3। हे नानक! (कह–) जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है, जो मनुष्य संत-जनों के चरणों की धूड़ में टिका रहता है उसे आत्मिक अडोलता के बहुत सुख-आनंद प्राप्त हुए रहते हैं।, उसे सारे काम-काजों में सफलता मिलती है।4।10।1112। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |