श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ गोबिंदु गुणी निधानु गुरमुखि जाणीऐ ॥ होइ क्रिपालु दइआलु हरि रंगु माणीऐ ॥१॥ आवहु संत मिलाह हरि कथा कहाणीआ ॥ अनदिनु सिमरह नामु तजि लाज लोकाणीआ ॥१॥ रहाउ ॥ जपि जपि जीवा नामु होवै अनदु घणा ॥ मिथिआ मोहु संसारु झूठा विणसणा ॥२॥ चरण कमल संगि नेहु किनै विरलै लाइआ ॥ धंनु सुहावा मुखु जिनि हरि धिआइआ ॥३॥ जनम मरण दुख काल सिमरत मिटि जावई ॥ नानक कै सुखु सोइ जो प्रभ भावई ॥४॥११॥११३॥ {पन्ना 399}

पद्अर्थ: गुणी निधानु = गुणों का खजाना। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। जाणीअै = जाना जाता है, गहरी सांझ पड़ती है। हरि रंगु = हरी के प्रेम।1।

मिलाह = हम मिलें। अनदिनु = हर रोज। सिमरह = हम सिमरें। तजि = त्याग के। लोक = जगत। लोकाई = जगत की।1। रहाउ।

जीवा = जीऊँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है, मेरी जिंदगी को सहारा मिलता है। घणा = बहुत। मिथिआ = झूठ, व्यर्थ। झूठा = सदा कायम रहने वाला।2।

संगि = साथ। नेहु = प्यार। किनै विरलै = किसी विरले मनुष्य ने। सुहावा = सोहना। जिनि = जिस ने।3।

काल = मौत, आत्मिक मौत। जावई = जाता है। भावई = भाता है।4।

अर्थ: हे संत जनो! आओ, हम इकट्ठे बैठें और परमात्मा की सिफत सालाह की बातें करें, लोक-लाज छोड़ के हर वक्त उसका नाम सिमरते रहें।1। रहाउ।

(हे संत जनो!) परमात्मा सारे गुणों का खजाना है, गुरू की शरण पड़ के ही उसके साथ गहरी सांझ डाली जा सकती है, अगर वह प्रभू दयावान हो प्रसन्न हो जाए तो उसका प्रेम (-आनंद) पाया जा सकता है।1।

(हे संत जनो!) मैं तो ज्यों-ज्यों (परमातमा का) नाम जपता हूँ मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है मेरे अंदर बड़ा आनंद पैदा होता है (उस वक्त मुझे प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि) संसार (का मोह) व्यर्थ मोह है, संसार सदा कायम रहने वाला नहीं, संसार तो नाश हो जाने वाला है (इसके मोह में से सुख-आनंद कैसे मिले?)।2।

(पर, हे संत जनों!) किसी विरले (भाग्यशाली) मनुष्य ने परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों से प्यार डाला है जिस ने (जिसने ये प्यार डाला है) परमात्मा का नाम सिमरा है उसका मुखड़ा भाग्यशाली है, उसका मुंह सुहाना लगता है।3।

(हे संत जनो!) परमात्मा का नाम सिमरने से जनम-मरण (के चक्करों) का दुख मिट जाता है। (हे संत जनो!) जो कुछ प्रभू को अच्छा लगता है (वही ठीक है। ये निश्चय जो सिमरन की बरकति से पैदा होता है) नानक के हृदय में आनंद (पैदा किए रखता है)।4।11।113।

आसा महला ५ ॥ आवहु मीत इकत्र होइ रस कस सभि भुंचह ॥ अम्रित नामु हरि हरि जपह मिलि पापा मुंचह ॥१॥ ततु वीचारहु संत जनहु ता ते बिघनु न लागै ॥ खीन भए सभि तसकरा गुरमुखि जनु जागै ॥१॥ रहाउ ॥ बुधि गरीबी खरचु लैहु हउमै बिखु जारहु ॥ साचा हटु पूरा सउदा वखरु नामु वापारहु ॥२॥ जीउ पिंडु धनु अरपिआ सेई पतिवंते ॥ आपनड़े प्रभ भाणिआ नित केल करंते ॥३॥ दुरमति मदु जो पीवते बिखली पति कमली ॥ राम रसाइणि जो रते नानक सच अमली ॥४॥१२॥११४॥ {पन्ना 399}

पद्अर्थ: मीत = हे मित्र! इकत्र होइ = इकट्ठे हो के, मिल के। रस कस = हरेक किस्म के स्वादिष्ट पदार्थ। सभि = सारे। भुंचहु = हम खाएं (स्वाद से)। जपह = हम जपें। मिलि = मिल के। मुंचह = दूर कर लें।1।

ततु = अस्लियत, मानसजनम का असल मनोरथ। ता ते = इस (उद्यम) से। खीन = कमाजोर। तसकरा = चोर। जागै = सचेत रहता है।1। रहाउ।

गरीबी = निम्रता। लैहु = पल्ले बाँधो। बिखु = जहर (आत्मिक जीवन को समाप्त करने वाली)। जारहु = जला दो। साचा = सदा कायम रहने वाला। हटु = बड़ी दुकान। वापारहु = खरीदो।2।

जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। अरपिआ = भेट कर दिया। पति = इज्जत। प्रभू भाणिआ = प्रभू को अच्छे लगते हैं। केल = आनंद।3।

दुरमति = खोटी अक्ल। मदु = शराब। बिखली = वृषली, व्यभचारिण, शूद्राणी। बिखली पति = दुराचारी मनुष्य। रसाइणि = रसायन में। रसाइण = रस+आयन, सारे रसों का घर, सब से श्रेष्ठ रस। रते = मस्त। सच = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा। अमली = जिसे अमल लगा हुआ हो, जो मल के बिना रह ना सके। अमल = नशा।4।

अर्थ: हे संत जनो! ये सोचा करो कि मनुष्य जीवन का असल मनोरथ क्या है, इस प्रयास से (जीवन यात्रा में) कोई रुकावट नहीं पडती, कामादिक सारे चोर नाश हो जाते हैं (क्योंकि) गुरू की शरण पड़ने से मनुष्य (इन चोरों के हमलों से) सुचेत रहता है।1। रहाउ।

हे मित्र! आओ, मिल के आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जपें (और नाम की बरकति से अपने सारे) पाप नाश कर लें- यही धन, जैसे, सारे स्वादिष्ट पदार्थ, आओ, ये सारे स्वादिष्ट व्यंजन खाएं।1।

हे संत जनो! विनम्रता वाली बुद्धि धारण करो- ये जीवन-यात्रा का खर्च पल्ले बाँधो। (नाम की बरकति से अपने अंदर से) अहंकार को जला दो (जो आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाला) जहर (है)। (हे संत जनो! हरि-नाम गुरू से मिलता है, गुरू का घर ही) सदा कायम रहने वाली दुकान है (गुरू-दर से ही हरि नाम का) पूरा सौदा मिलता है (गुरू दर से) नाम-सौदा खरीदो।2।

(हे संत जनो! जिन मनुष्यों ने हरी-नाम-धन खरीदने के लिए) अपनी जिंद, अपना शरीर, अपना दुनियावी धन भेटा कर दिया वह मनुष्य (लोक-परलोक में) आदरणीय हो गए, वे अपने परमात्मा को प्यारे लगने लग पड़े, वे सदा आत्मिक आनंद पाने लग गए।3।

(हे संत जनो!) खोटी मति (जैसे) शराब है जो मनुष्य ये शराब पीने लग जाते हैं (जो गुरू का आसरा छोड़ के खोटी मति के पीछे चलने लग जाते हैं) वे दुराचारी हो जाते हैं वे (विकारों में) पागल हो जाते हैं। पर, हे नानक! जो मनुष्य परमात्मा के नाम के श्रेष्ठ रस में मस्त रहते हैं उनको सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के नाम का अमल लग जाता है।4।12।114।

आसा महला ५ ॥ उदमु कीआ कराइआ आर्मभु रचाइआ ॥ नामु जपे जपि जीवणा गुरि मंत्रु द्रिड़ाइआ ॥१॥ पाइ परह सतिगुरू कै जिनि भरमु बिदारिआ ॥ करि किरपा प्रभि आपणी सचु साजि सवारिआ ॥१॥ रहाउ ॥ करु गहि लीने आपणे सचु हुकमि रजाई ॥ जो प्रभि दिती दाति सा पूरन वडिआई ॥२॥ सदा सदा गुण गाईअहि जपि नामु मुरारी ॥ नेमु निबाहिओ सतिगुरू प्रभि किरपा धारी ॥३॥ नामु धनु गुण गाउ लाभु पूरै गुरि दिता ॥ वणजारे संत नानका प्रभु साहु अमिता ॥४॥१३॥११५॥ {पन्ना 399}

पद्अर्थ: कराइआ = (जैसे गुरू ने उद्यम) करने की प्रेरणा की है। आरंभु = (नाम जपने के उद्यम का) आरम्भ। जपे जपि = जप जप के। जीवणा = आत्मिक जीवन मिल गया है। गुरि = गुरू ने। द्रिढ़ाइआ = पक्का कर दिया है।1।

पाइ = पैरो पर। परह = पड़ें। कै पाइ = के पैरों पे। जिनि = जिस (गुरू) ने। बिदारिआ = नाश कर दिया है। करि = कर के। प्रभि = प्रभू ने। सचु साजि = सदा स्थिर नाम (जपने का रास्ता) चला के। सवारिआ = सवार दिया है, जीवन सोहणा बना दिया है।1। रहाउ।

करु = हाथ (एक वचन)। गहि = पकड़ के। सचं = सदा स्थिर रहने वाला। हुकमि = हुकम अनुसार। रजाई = रजा का मालिक। प्रभि = प्रभू ने।2।

गाईअहि = गाए जा रहे हैं। मुरारी = (मुरा+अरि, मुर दैत्य का वैरी) परमात्मा। नेम = रोज की मर्यादा। जपि = जपूँ, मैं जपता हूं।3।

गाउ = मैं गाता हूँ। गुरि = गुरू ने। वणजारे = वणज करने वाले। अमिता = बेअंत, जिसे नापा ना जा सके, जिसकी हस्ती का नाप ना लिया जा सके।4।

अर्थ: (हे भाई! आओ) उस गुरू के चरणों में ढह पड़ें जिसने हमारे मन की भटकना नाश कर दी है। (गुरू की बरकति के साथ ही) परमात्मा ने अपनी कृपा करके (अपना) सदा-स्थिर नाम (जपने का रास्ता) चला के हमारा जीवन सुंदर बना दिया है।1। रहाउ।

(हे भाई!) जैसे गुरू ने उद्यम करने की प्रेरणा की है वैसे ही मैंने उद्यम किया है और परमात्मा का नाम जपने के उद्यम का आरम्भ मैंने कर दिया है। गुरू ने मेरे हृदय में नाम-मंत्र पक्का करके टिका दिया है, अब नाम जप-जपके मुझे आत्मिक जीवन मिल गया है।1।

(हे भाई!) वह रजा का मालिक परमात्मा सदा कायम रहने वाला है उसने अपने हुकम में मेरा हाथ पकड़ के मुझे अपने चरणों में लीन कर लिया है। (अपने नाम की) जो दाति मुझे दी है वही मेरे वास्ते सबसे बड़ा आदर-मान है।2।

(हे भाई! अब मेरे दिल में) सदा ही परमात्मा के गुण गाए जा रहे हैं, मैं सदा परमात्मा का नाम जपता रहता हूँ। प्रभू ने मेहर की है। गुरू मेरा (नाम जपने का) नियम सफल कर रहा है।3।

(हे भाई! अब) परमात्मा का नाम ही (मेरा) धन है, मैं सदा परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ पूरे गुरू ने मुझे (मानस जनम में किए जाने वाले वणज का ये) लाभ दिया है।

हे नानक! (कह– हे भाई! नाम-रस का) शाहूकार परमात्मा बेअंत ताकत का मालिक है उसके संत-जन (उसकी मेहर से ही उसके नाम के) बंजारे हैं (मानस जनम का लाभ हासिल करने के लिए संत-जनों की शरण पड़ना चाहिए)।4।13।115।

आसा महला ५ ॥ जा का ठाकुरु तुही प्रभ ता के वडभागा ॥ ओहु सुहेला सद सुखी सभु भ्रमु भउ भागा ॥१॥ हम चाकर गोबिंद के ठाकुरु मेरा भारा ॥ करन करावन सगल बिधि सो सतिगुरू हमारा ॥१॥ रहाउ ॥ दूजा नाही अउरु को ता का भउ करीऐ ॥ गुर सेवा महलु पाईऐ जगु दुतरु तरीऐ ॥२॥ द्रिसटि तेरी सुखु पाईऐ मन माहि निधाना ॥ जा कउ तुम किरपाल भए सेवक से परवाना ॥३॥ अम्रित रसु हरि कीरतनो को विरला पीवै ॥ वजहु नानक मिलै एकु नामु रिद जपि जपि जीवै ॥४॥१४॥११६॥ {पन्ना 399-400}

पद्अर्थ: जा का = जिस मनुष्य का। ठाकुरु = मालिक। प्रभ = हे प्रभू! सुहेला = आसान। सद = सदा। भ्रम = भटकना।1।

चाकर = सेवक, नौकर। भारा = बड़े जिगरे वाला। सगल बिधि = सारे तरीकों से।1। रहाउ।

को = कोई। अउरु = और। ता का = उस का। महलु = प्रभू का ठिकाना। दुतरु = जिससे पार लांघना बहुत मुश्किल है। तरीअै = तैरा जा सकता है।2।

द्रिसटि = नजर, निगाह। निधाना = खजाना। जा कउ = जिन पर। परवाना = कबूल।3।

कीरतनो = कीर्तन, सिफत सालाह। अंम्रित रसु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। वजहु = वजीफा, तनख्वाह।4।

अर्थ: (हे भाई!) मैं उस गोबिंद का सेवक हूँ मेरा वह मालिक है जो सबसे बड़ा है जो (सब जीवों में व्यापक हो के स्वयं ही) सारे तरीकों से (सब कुछ) करने वाला है। और (जीवों से) कराने वाला है, वही मेरा गुरू है (मेरे जीवन राह में रौशनी देने वाला है)।1। रहाउ।

हे प्रभू! तू खुद ही जिस मनुष्य के सिर पर मालिक है उसके बड़े भाग्य (समझने चाहिए), वह सदा आसान (जीवन व्यतीत करता) है वह सदा सुखी (रहता) है उसका हरेक किस्म का डर और भरम दूर हो जाता है।1।

(हे भाई! जगत में) परमात्मा के बराबर का और कोई नहीं है जिसका डर माना जाए। (हे भाई!) गुरू की बताई सेवा करने से (परमात्मा के चरणों में) ठिकाना मिल जाता है, और इस संसार (-समुंद्र) से पार लांघ जाते हैं जिससे (वैसे) पार लांघना बहुत ही मुश्किल है।2।

हे प्रभू! तेरी मेहर की नजर से सुख मिलता है (जिनपे तेरी मेहर हो उनके) मन में (तेरा नाम-) खजाना आ बसता है। हे प्रभू! जिन पे तू दयावान होता है वह तेरे सेवक तेरे दर पर कबूल होते हैं।3।

हे भाई! परमात्माकी सिफत सालाह आत्मिक जीवन देने वाला रस है, कोई विरला (भाग्यशाली) मनुष्य ये (अमृत रस) पीता है।

हे नानक! (कह– जिस नौकर को) परमात्मा का नाम-वजीफा मिल जाता है वह अपने हृदय में ये नाम सदा जप के आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है।4।14।116।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh