श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 401 आसा महला ५ ॥ सूख सहज आनदु घणा हरि कीरतनु गाउ ॥ गरह निवारे सतिगुरू दे अपणा नाउ ॥१॥ बलिहारी गुर आपणे सद सद बलि जाउ ॥ गुरू विटहु हउ वारिआ जिसु मिलि सचु सुआउ ॥१॥ रहाउ ॥ सगुन अपसगुन तिस कउ लगहि जिसु चीति न आवै ॥ तिसु जमु नेड़ि न आवई जो हरि प्रभि भावै ॥२॥ पुंन दान जप तप जेते सभ ऊपरि नामु ॥ हरि हरि रसना जो जपै तिसु पूरन कामु ॥३॥ भै बिनसे भ्रम मोह गए को दिसै न बीआ ॥ नानक राखे पारब्रहमि फिरि दूखु न थीआ ॥४॥१८॥१२०॥ {पन्ना 401} पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घणा = बहुत। गाउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। गरह = 9ग्रह। निवारे = दूर कर दिए। दे = दे कर। अपणा नाउ = परमात्मा का प्यारा नाम जिस को गुरू स्वयं भी जपता है।1। सद सद = सदा ही, सदा सदा। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ। बलि = सदके। विटहु = सं। हउ = मैं। मिलि = मिल के। सचु = सदा स्थिर नाम। सुआउ = स्वार्थ, मनोरथ, जीवन का निशाना।1। रहाउ। अपशगुन = बद्शगनी। तिस कउ: शग्द ‘तिस = की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दी गई है। जिसु चीति = जिसके चित्त में। आवई = आये। प्रभि = प्रभू में (जुड़ के)। भावै = प्यारा लगता है।2। जेते = जितने भी हैं। ऊपरि = ऊँचा, श्रेष्ठ। रसना = जीभ (से)। पूरन = सफल।3। भै = (शब्द ‘भउ’ का बहुवचन)। बीआ = दूसरा, पराया। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। थीआ = हुआ, घटित हुआ।4। अर्थ: (हे भाई!) मैं अपने गुरू से कुर्बान जाता हूँ, सदा ही सदके जाता हूँ, मैं गुरू से वारने जाता हूँ, क्योंकि उस (गुरू) को मिल के ही मैंने सदा स्थिर प्रभू का नाम सिमरना (अपनी जिंदगी का) उद्देश्य बनाया है।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू ने मुझे वह हरि-नाम दे के जो नाम वह स्वयं जपता है, ने मेरे पर से (जैसे) नौवों (9) ग्रहों की मुसीबतें दूर कर दी हों। मैं परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाता रहता हूँ, और (मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता का बड़ा सुख-आनंद बना रहता है।1। (हे भाई! मेरे अंदर अच्छे-बुरे शगुनों का सहिम भी नहींरह गया) अच्छे-बुरे शगुनों के सहम उस मनुष्य को चिपकते हैं जिसके चित्त में परमात्मा नहीं बसता। पर, जो मनुष्य प्रभू (की याद) में (जुड़ के) हरि-प्रभू को प्यारा लगने लग पड़ता है जमदूत भी उसके नजदीक नहीं फटकते।2। (हे भाई! निहित) नेक कर्म, दान, जप व तप- ये जितने भी हैं परमात्मा का नाम जपना इन सभी में से श्रेष्ठ कर्म है। जो मनुष्य अपनी जीभ से परमात्मा का नाम जपता है उसका जीवन मनोरथ सफल हो जाता है।3। हे नानक! जिन मनुष्यों की रक्षा परमात्मा ने स्वयं की है उन्हें दुबारा कोई दुख नहीं व्याप्ता, उनके सारे डर नाश हो जाते हैं उनके मोह के भरम समाप्त हो जाते हैं, उन्हें कोई मनुष्य बेगाना नहीं दिखाई देता।4।18।120। आसा घरु ९ महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चितवउ चितवि सरब सुख पावउ आगै भावउ कि न भावउ ॥ एकु दातारु सगल है जाचिक दूसर कै पहि जावउ ॥१॥ हउ मागउ आन लजावउ ॥ सगल छत्रपति एको ठाकुरु कउनु समसरि लावउ ॥१॥ रहाउ ॥ ऊठउ बैसउ रहि भि न साकउ दरसनु खोजि खोजावउ ॥ ब्रहमादिक सनकादिक सनक सनंदन सनातन सनतकुमार तिन्ह कउ महलु दुलभावउ ॥२॥ अगम अगम आगाधि बोध कीमति परै न पावउ ॥ ताकी सरणि सति पुरख की सतिगुरु पुरखु धिआवउ ॥३॥ भइओ क्रिपालु दइआलु प्रभु ठाकुरु काटिओ बंधु गरावउ ॥ कहु नानक जउ साधसंगु पाइओ तउ फिरि जनमि न आवउ ॥४॥१॥१२१॥ {पन्ना 401} पद्अर्थ: चितवउ = मैं चाहता हूँ, मैं चितवता हूँ। चितवि = सिमर के। पावउ = पाऊँ, हासिल कर लूँ। आगै = प्रभू की हजूरी में। भावउ = मैं पसंद हूँ। सगल = सारी सृष्टि। जाचिक = मांगने वाली। कै पहि = किस के पास?।1। हउ = मैं। मांगू, मैं मांगता हूँ। आन = अन्य, कोई और। लजावउ = लजाऊँ, मैं शर्माता हूँ। छत्रपति = राजा। ठाकुरु = मालिक प्रभू। समसरि = बराबर। लावउ = लाऊँ, मैं गिनूँ।1। रहाउ। बैसउ = बैठूँ, मैं बैठ जाता हूँ। खोजि = खोज के। सनक, सनंदन, सनातन, सनत कुमार = ये चारों ब्रहमा के पुत्र हैं। महलु = परमात्मा का ठिकाना। दुलभावउ = दुर्लभ।2। अगम = अपहुँच। अगाधि = अथाह। बोध = सूझ। परै न = नहीं पड़ सकती। न पावउ = मैं पा नहीं सकता। ताकी = देखी। धिआवउ = मैं ध्यान धरता हूँ।3। गरावउ = गले से। जउ = जब। न आवउ = मैं नहीं आता, ना आऊँ।4। अर्थ: (हे भाई! जब) मैं (परमात्मा के बिना) किसी और से मांगता हूँ तो शर्माता हूँ (क्योंकि) एक मालिक प्रभू ही सब जीवों का राजा है, मैं किसी और को उसके बराबर का सोच ही नहीं सकता।1। रहाउ। (हे भाई!) मैं (सदा) चाहता (तो ये) हूँ कि परमात्मा का सिमरन करके (उससे) मैं सारे सुख हासिल करूँ (पर मुझे ये पता नहीं कि ये तमन्ना करके) मैं प्रभू की हजूरी में ठीक लग रहा हूँ कि नहीं। (कोई सुख आदि मांगने के लिए) मैं किसी और के पास जा भी नहीं सकता, क्योंकि दातें देने वाला तो सिर्फ एक परमात्मा ही है और सृष्टि (उसके दर से) मांगने वाली है। (हे भाई! परमात्मा का दर्शन करने के लिए) मैं उठता हूँ (कोशिश करता हूँ, फिर) बैठ जाता हूँ, (पर दर्शन किए बिना) रह भी नहीं सकता, दुबारा खोज-खोज के दर्शन तलाशता हूँ। (मैं बेचारा क्या चीज हूँ?) परमात्मा के ठिकाने तो उनके वास्ते भी दुर्लभ ही रहे जो ब्रहमा जैसे (बड़े-बड़े देवता माने गए) जो सनक जैसे-सनक, सनंदन, सनातन व सनत कुमार (ब्रहमा के पुत्र कहलवाए)।2। हे भाई! परमात्मा अपहुँच है, जीवों की पहुँच से परे है, वह एक अथाह समुंद्र है जिसकी गहराई की सूझ नहीं पड़ सकती, उसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, मैं उसका मूल्य नहीं निश्चित कर सकता। (हे भाई! उसके दर्शन की खातिर) मैंने गुरू महापुरख की शरण देखी है, मैं सतिगुरू की आराधना करता हूँ।3। हे भाई! जिस मनुष्य पर ठाकुर प्रभू दयावान होता है उसके गले की (माया के मोह की) फाही काट देता है। हे नानक! कह–अगर मुझे साधसंगति प्राप्त हो जाए, तो ही मैं बार-बार जन्मों में नहीं आऊँगा (जन्मों के चक्करों से बच सकूँगा)।4।1।121। नोट: इस शबद से घरु ९ का नया संग्रह आरम्भ हुआ है। तभी छोटा अंक १ नया चला है। आसा महला ५ ॥ अंतरि गावउ बाहरि गावउ गावउ जागि सवारी ॥ संगि चलन कउ तोसा दीन्हा गोबिंद नाम के बिउहारी ॥१॥ अवर बिसारी बिसारी ॥ नाम दानु गुरि पूरै दीओ मै एहो आधारी ॥१॥ रहाउ ॥ दूखनि गावउ सुखि भी गावउ मारगि पंथि सम्हारी ॥ नाम द्रिड़ु गुरि मन महि दीआ मोरी तिसा बुझारी ॥२॥ दिनु भी गावउ रैनी गावउ गावउ सासि सासि रसनारी ॥ सतसंगति महि बिसासु होइ हरि जीवत मरत संगारी ॥३॥ जन नानक कउ इहु दानु देहु प्रभ पावउ संत रेन उरि धारी ॥ स्रवनी कथा नैन दरसु पेखउ मसतकु गुर चरनारी ॥४॥२॥१२२॥ {पन्ना 401} पद्अर्थ: गावउ = गाऊँ, मैं गाता हूँ। जागि = जाग के। सवारी = सोने के वक्त। संगि = साथ। कउ = वास्ते। तोसा = राह का खर्च। बिउहारी = वणजारे। अवर = और (ओट)। बिसारी = मैंने भुला दी है। गुरि = गुरू ने। आधारी = आसरा।1। रहाउ। दूखनि = दुखों में। सुखि = सुख में। मारगि = रास्ते पर। पंथि = राह में। समारी = मैं (हृदय में) संभालता हूँ। द्रिढ़ = पक्का। मोरी = मेरी। तिसा = तृष्णा।2। रैनी = रात के समय। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। रसना = जीभ। बिगासु = श्रद्धा, निश्चय। संगारी = संगी, साथी।3। कउ = को। प्रभ = हे प्रभू! पावउ = पाऊँ, मैं हासिल करूँ। रेन = चरण धूड़। उरि = हृदय में। स्रवनी = कानों से। नैन = आँखों से। पेखउ = मैं देखूँ। मसतकु = माथा।4। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा के बिना) कोई अन्य ओट मैंने बिल्कुल ही भुला दी है। पूरे गुरू ने मुझे परमात्मा के नाम (की) दाति दी है, मैंने इसी को (अपनी जिंदगी का) आसरा बना लिया है।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा के नाम के वणजारे सत्संगियों ने मेरे से साथ करने के लिए मुझे (परमात्मा का नाम) यात्रा-खर्च (के तौर पर) दे दिया है। अब मैं अपने हृदय में परमात्मा के गुण गाता हूँ, बाहर दुनिया से कार्य-व्यवहार करते हुए भी परमात्मा की सिफत सालाह याद रखता हूँ, सोने के समय भी और जाग के भी मैं परमात्मा की सिफत सालाह करता हूँ।1। (हे भाई!) गुरू ने मेरे मन में प्रभू-नाम दृढ़ कर दिया है (उस नाम ने) मेरी तृष्णा मिटा दी है। अब मैं दुखों में परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, सुख में भी गाता हूँ, रास्ते पर चलते हुए भी (परमात्मा की याद को अपने दिल में) संभाले रखता हूँ।2। (हे भाई!) अब मैं दिन में भी और रात को भी, और हरेक सांस के साथ भी अपनी जीभ से परमात्मा के गुण गाता रहता हूँ, (हे भाई! ये सारी बरकति साध-संगति की है) साध-संगति में टिकने से ये निश्चय बन जाता है कि परमात्मा जीते-मरते हर वक्त हमारे साथ रहता है।3। हे प्रभू! अपने दास नानक को ये दान दे कि मैं तेरे संत-जनों की चरण-धूड़ प्राप्त करूँ। तेरी याद को अपने हृदय में टिकाए रखूँ, तेरी सिफत सालाह अपने कानों से सुनता रहूँ, तेरे दर्शन अपनी आँखों से करता रहूँ, और अपना माथा गुरू के चरणों में रखे रखूँ।4।2।122। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |