श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 402 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा घरु १० महला ५ ॥ जिस नो तूं असथिरु करि मानहि ते पाहुन दो दाहा ॥ पुत्र कलत्र ग्रिह सगल समग्री सभ मिथिआ असनाहा ॥१॥ रे मन किआ करहि है हा हा ॥ द्रिसटि देखु जैसे हरिचंदउरी इकु राम भजनु लै लाहा ॥१॥ रहाउ ॥ जैसे बसतर देह ओढाने दिन दोइ चारि भोराहा ॥ भीति ऊपरे केतकु धाईऐ अंति ओरको आहा ॥२॥ जैसे अ्मभ कुंड करि राखिओ परत सिंधु गलि जाहा ॥ आवगि आगिआ पारब्रहम की उठि जासी मुहत चसाहा ॥३॥ रे मन लेखै चालहि लेखै बैसहि लेखै लैदा साहा ॥ सदा कीरति करि नानक हरि की उबरे सतिगुर चरण ओटाहा ॥४॥१॥१२३॥ {पन्ना 402} पद्अर्थ: जिस नो: ‘जिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधन ‘नो’ के कारण हट गई है। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। मानहि = तू मानता है। ते = वह सारे। पाहुन = प्राहुणे, मेहमान। दाहा = दिन। कलत्र = स्त्री। सगल समग्री = सारा सामान। मिथिआ = झूठा। असनाहा = स्नेह, प्यार।1। है हा हा = आहा आहा। द्रिसटि = ध्यान से। हरि चंदउरी = हरी चंद पुरी, हरिश्चंद्र की नगरी, गंर्धब नगरी, ठॅग नगरी, धूँएं का पहाड़। लाहा = लाभ।1। रहाउ। बसतर = कपड़े। ओढाने = पहने हुए। भोराहा = भुर जाते हैं। भीति = दीवार। ऊपरे = ऊपर। केतकु = कितने। धाईअै = दौड़ सकते हैं। अंति = आखिर। ओरको = ओड़क, आखिरी सिरा। आहा = आ जाता है।2। अंभ = अम्भस्, पानी। कुंड = हौज। परत = पड़ता है। सिंधु = नमक। आवगि = आऐगी। जासी = चला जाएगा। मुहत = महूरत, दो घड़ियां। चसा = पल का तीसरा हिस्सा।3। लेखे = लेखे में, गिने-मिथे सांसों में ही। चालहि = तू चलता है। कीरति = सिफत सालाह। उबरे = बच गए। ओटाहा = आसरा।4। अर्थ: हे मेरे मन! (माया का पसारा देख के क्या खुशियां मना रहा है तू) क्या आहा आहा करता फिरता है? ध्यान से देख! ये सारा पसारा धूँएं के पहाड़ जैसा है। परमात्मा का भजन किया कर, सिर्फ इसी से (मनुष्य जीवन में) लाभ (कमाया जा सकता है)।1। रहाउ। हे मन! जिस पुत्र को जिस स्त्री को जिस घर के सामान को तू सदा कायम रहने वाला माने बैठा है, ये सारे तो दो दिनों के मेहमान हैं। पुत्र, स्त्री, घर का सारा सामान- इनसे मोह सारा झूठा है।1। हे मन! (ये जगत पसारा यूँ ही है) जैसे शरीर पर पहने हुए कपड़े, दो चार दिनों में ही पुराने हो जाते हैं। हे मन! दीवार पर कहाँ तक दौड़ सकते हैं? आखिर उसका आखिरी सिरा आ ही जाता है (जिंदगी के गिने-चुने स्वाश अवश्य ही समाप्त होने हैं)।2। हे मन! (ये उम्र ऐसे ही है) जैसे पानी का कुण्ड बना के रखा हो, और उसमें नमक पड़ते सार ही वह गल जाता है। हे मन! जब (जिसे) परमात्मा का हुकम (बुलावा) आएगा, वह उसी वक्त उठ के चल पड़ेगा।3। हे मेरे मन! तू अपने गिने-चुने स्वासों के अंदर ही जगत में चलता फिरता है और बैठता है (गिने-चुने) लेख के मुताबिक ही तू सांस लेता है, (ये आखिर समाप्त हो जाने हैं)। हे नानक! सदा परमात्मा की सिफत सालाह करता रह। जो मनुष्य गुरू के चरणों का आसरा लेते हैं (और प्रभू की सिफत सालाह करते हैं) वह (माया के मोह में फंसने से) बच जाते हैं।4।1।123। आसा महला ५ ॥ अपुसट बात ते भई सीधरी दूत दुसट सजनई ॥ अंधकार महि रतनु प्रगासिओ मलीन बुधि हछनई ॥१॥ जउ किरपा गोबिंद भई ॥ सुख स्मपति हरि नाम फल पाए सतिगुर मिलई ॥१॥ रहाउ ॥ मोहि किरपन कउ कोइ न जानत सगल भवन प्रगटई ॥ संगि बैठनो कही न पावत हुणि सगल चरण सेवई ॥२॥ आढ आढ कउ फिरत ढूंढते मन सगल त्रिसन बुझि गई ॥ एकु बोलु भी खवतो नाही साधसंगति सीतलई ॥३॥ एक जीह गुण कवन वखानै अगम अगम अगमई ॥ दासु दास दास को करीअहु जन नानक हरि सरणई ॥४॥२॥१२४॥ {पन्ना 402} पद्अर्थ: अपुसट = अपुष्ट, कच्ची, उलटी। बात ते = बात से। सीधरी = अच्छी सीधी। दूत = वैरी। प्रगासिओ = चमक पड़ा। मलीन = मैली। हछनई = साफ सुथरी।1। जउ = जब। सुख संपति = आतिमक आनंद की दौलत।1। रहाउ। मोहि = मुझे। किरपन = कंजूस, नकारा। संगि = साथ। सेवई = सेवा करती है।2। आढ = आधी दमड़ी। कउ = वास्ते। मन त्रिसन = मन की तृष्णा। खवतो = सहता। सीतलई = ठंडे स्वभाव वाला।3। जीह = जीभ। कवन = कौन कौन से? अगम = अपहुँच। करीअहु = बना ले।4। अर्थ: हे भाई! जब मेरे पर गोबिंद की कृपा हुई, मैं सतिगुरू को मिला (और सतिगुरू के मिलाप की बरकति से) फल (के तौर पर) मुझे आत्मिक आनंद की दौलत और परमात्मा के नाम की प्राप्ति हो गई।1। रहाउ। (हे भाई! जब गुरू से मिलाप हुआ तो मेरी हरेक) उलट बात भी सीधी हो गई (मेरे पहले) बुरे वैरी (अब) सज्जन-मित्र बन गए, (मेरे मन के) घुप अंधेरे में (गुरू का बख्शा हुआ ज्ञान-) रतन चमक पड़ा है, (विकारों से) मैली हो चुकी मेरी अकल साफ-सुथरी हो गई।1। (हे भाई! गुरू से मिलाप के पहले) मुझ नकारे को कोई नहीं था जानता। अब मैं सारे भवनों में श्रेष्ठ हो गया हूँ। (पहले) मैं किसी के पास बैठने के काबिल नहीं था, अब सारी लुकाई मेरे चरणों की सेवा करने लग पड़ी है।2। (हे भाई! गुरू-मिलाप से पहले तृष्णा अधीन हो के) मैं आधी-आधी दमड़ी को ढूँढता-फिरता था (गुरू की बरकति से) मेरे मन की सारी तृष्णा बुझ गई है। पहले मैं (किसी का) एक भी (कड़वा) बोल सह नहीं सकता था, साध-संगति के सदका अब मेरा दिल ठंडा-ठार हो गया है।3। (हे भाई! गोबिंद की अपार कृपा से मुझे सतिगुरू मिला, उस गोबिंद के) कौन-कौन से गुण (उपकार) मेरी ये एक जीभ बयान करे? वह अपहुँच है अपहुँच है अपहुँच है (उसके सारे गुण-उपकार बताए नहीं जा सकते)। हे नानक! (सिर्फ यही कहता रह -) हे हरी! मैं दास तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपने दासों के दासों का दास बनाए रख।4।2।124। आसा महला ५ ॥ रे मूड़े लाहे कउ तूं ढीला ढीला तोटे कउ बेगि धाइआ ॥ ससत वखरु तूं घिंनहि नाही पापी बाधा रेनाइआ ॥१॥ सतिगुर तेरी आसाइआ ॥ पतित पावनु तेरो नामु पारब्रहम मै एहा ओटाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ गंधण वैण सुणहि उरझावहि नामु लैत अलकाइआ ॥ निंद चिंद कउ बहुतु उमाहिओ बूझी उलटाइआ ॥२॥ पर धन पर तन पर ती निंदा अखाधि खाहि हरकाइआ ॥ साच धरम सिउ रुचि नही आवै सति सुनत छोहाइआ ॥३॥ दीन दइआल क्रिपाल प्रभ ठाकुर भगत टेक हरि नाइआ ॥ नानक आहि सरण प्रभ आइओ राखु लाज अपनाइआ ॥४॥३॥१२५॥ {पन्ना 402} पद्अर्थ: रे मूढ़े = हे मूर्ख! ढीला = ढीला, आलसी। तोटा = घटा। बेगि = जल्दी। धइआ = दौड़ता है। ससत = सस्ता। वखरु = सौदा। घिंनहि नाही = तू नहीं लेता। पापी = हे पापी! रेनाइआ = ऋण से, करजे से।1। सतिगुर = हे गुरू! आसाइआ = आस। पतित पावनु = विकारों में गिरे हुए को पवित्र करने वाला। पारब्रहम = हे पारब्रहम! ऐहा = यही।1। रहाउ। गंधण = गंध भरे, गंदे। वैण = बैन, बोल, गीत। सुणहि = तू सुनता है। उरझावहि = तू मस्त होता है। अलकाइआ = आलस करता है। निंद चिंद = निंदा का ख्याल। उमाहिओ = तुझे चाव चढ़ता है। उलटाइआ = उल्टी ही।2। पर तन = पराया शरीर। परती = पराई। अखाधि = वह चीजें जो नहीं खानी चाहिए। हरकाइआ = हलकाया, हलका हुआ। सचा = सदा साथ निभने वाला। रुचि = प्यार। सति = सदा स्थिर नाम। छोहाइआ = क्षोभ, छूह लगती है, गुस्सा आता है।3। भगत = भक्तों को। आहि = चाह से, तमन्ना करके। प्रभ = हे प्रभू! अपनाइआ = अपना (सेवक) बना के। लाज = इज्जत।4। अर्थ: हे गुरू! मुझे तेरी (सहायता) की उम्मीद है। हे परमात्मा! (मैं विकारी तो बहुत हूँ, पर) मुझे यही सहारा है कि तेरा नाम विकारों में गिरे हुए को पवित्र करने वाला है।1। रहाउ। हे (मेरे) मूर्ख (मन)! (आत्मिक जीवन के) लाभ (वाले काम) के लिए तू बहुत आलसी है पर (आत्मिक जीवन की राशि के) घाटे वास्ते तू जल्दी उठ दौड़ता है! हे पापी! तू सस्ता सौदा लेता नहीं, (विकारों के) करजे के बोझमें बंधा हुआ है।1। हे मूर्ख! तू गंदे गीत सुनता है और (सुन के) मस्त होता है। परमात्मा का नाम लेते हुए तू आलस करता है किसी की निंदा की सोच से भी तुझे बहुत चाव चढ़ता है। हे मूर्ख! तूने हरेक बात उलटी ही समझी हुई है।2। हे मूर्ख! तू पराया धन (चुराता है), पराया रूप (बुरी निगाह से ताकता है), पराई निंदा (करता है, तू लोभ से) हलकाया हुआ है। वही चीजें खाता है जो तुझे नहीं खानी चाहिए। हे मूर्ख! सदा साथ निभने वाले धर्म के साथ तेरा प्यार नहीं पड़ता, सच-उपदेश सुनने में तुझे खिझ लगती है।3। हे नानक! (कह–) रे दीनों पर दया करने वाले ठाकुर! हे कृपा के घर प्रभू! तेरे भक्तों को तेरे नाम का सहारा है। हे प्रभू! मैं चाहत करके तेरी शरण आया हूँ, मुझे अपना दास बना के मेरी लाज रख (मुझे मंद-कर्मों से बचाए रख)।4।3।125। आसा महला ५ ॥ मिथिआ संगि संगि लपटाए मोह माइआ करि बाधे ॥ जह जानो सो चीति न आवै अह्मबुधि भए आंधे ॥१॥ मन बैरागी किउ न अराधे ॥ काच कोठरी माहि तूं बसता संगि सगल बिखै की बिआधे ॥१॥ रहाउ ॥ मेरी मेरी करत दिनु रैनि बिहावै पलु खिनु छीजै अरजाधे ॥ जैसे मीठै सादि लोभाए झूठ धंधि दुरगाधे ॥२॥ काम क्रोध अरु लोभ मोह इह इंद्री रसि लपटाधे ॥ दीई भवारी पुरखि बिधातै बहुरि बहुरि जनमाधे ॥३॥ जउ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु तउ गुर मिलि सभ सुख लाधे ॥ कहु नानक दिनु रैनि धिआवउ मारि काढी सगल उपाधे ॥४॥ इउ जपिओ भाई पुरखु बिधाते ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु जनम मरण दुख लाथे ॥१॥ रहाउ दूजा ॥४॥४॥१२६॥ {पन्ना 402-403} पद्अर्थ: मिथिआ = झूठा, नाशवंत। संगि = संगी, साथी। संगि = साथ, संगति में। लपटाऐ = चिपके हुए, मोह में फंसे हुए। करि = के कारण। बाधे = बंधे हुए। जह = जहां। जानो = जाना। चीति = चिक्त में। अहंबुधि = (अहं = मैं। बुधि = अकल) मैं मैं कहने वाली अक्ल, अहंकार। आंधे = अंधे।1। मन = हे मन! बैरागी = माया के मोह से उपराम। काच = कच्ची। माहि = में। बिखै = विषौ विकार। बिआधे = रोग।1। रहाउ। रैनि = रात। बिहावै = गुजरती है। छीजै = कम हो रही है। अरजाधे = आरजा, उम्र। सादि = स्वाद में। धंधि = धंधे में। दुरगाधै = दुरगंध में।2। इंद्री रसि = इन्द्रियों के रस में। दीई = दी। भवारी = भरवटे। पुरखि = पुरख ने। बिधातै = विधाता ने।3। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला। तउ = तब। गुर मिलि = गुरू को मिल के। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ। उपाधे = उपाधियां, विकार।4। इउ = इस तरह (भाव, गुरू को मिल के)। जपिओ = जिस ने जपा।1। रहाउ दूजा। अर्थ: हे मेरे मन! तू माया के मोह से उपराम हो के परमात्मा की आराधना क्यूँ नहीं करता? (तेरा ये शरीर) कच्ची कोठड़ी (है जिसमें तू बस रहा है,) तेरे साथ सारे विषौ-विकारों के रोग चिपके हुए हैं।1। रहाउ। (दुर्भाग्यशाली मनुष्य) झूठे साथियों की संगति में मस्त रहता है माया के मोह में बंधा रहता है, (ये जगत छोड़ के) जहाँ (आखिर) े जाना है वह जगह (इसके) ख्याल में कभी नहीं आती, अहंम् में अंधा हुआ रहता है।1। ‘ये मेरी मल्कियत है ये मेरी जयदाद है’ -ये कहते हुए ही (दुर्भाग्यशाली मनुष्य का) दिन गुजर जाता है (इसी तरह फिर) रात गुजर जाती है, पल-पल छिन-छिन कर कर के इसकी उम्र घटती जाती है। जैसे मीठे के स्वाद में (मक्खी) फस जाती है वैसे ही (दुर्भाग्यशाली मनुष्य) झूठे धंधे की दुर्गन्ध में फसा रहता है।2। काम, क्रोध, लोभ, मोह (आदि विकारों में) इन्द्रियों के रस में (मनुष्य) गलतान रहता है। (इन कुकर्मों के कारण जब) सृजनहार अकाल-पुरख ने (इस चौरासी लाख जूनियों वाली) भुवाटड़ी (चक्कर) दे दी तो ये बार बार जूनियों में भटकता फिरता है।3। जब गरीबों के दुख नाश करने वाला परमात्मा (इस पर) दयावान होता है तब गुरू को मिल के ये सारे सुख हासिल कर लेता है। हे नानक! कह– (परमात्मा की कृपा से गुरू को मिल के) मैं दिन-रात (हर समय परमात्मा का) ध्यान धरता हूँ, उसी ने मेरे अंदर से सारे विकार खत्म कर दिए हैं।4। (हे भाई!) इसी तरह ही (परमात्मा की मेहर से गुरू को मिल के ही, मनुष्य) सृजनहार प्रभू का नाम जप सकता है। जिस मनुष्य पर गरीबों के दुख दूर करने वाला परमात्मा दयावान होता है उसके जनम-मरण (के चक्कर) के दुख उतर जाते हैं।1। रहाउ दूजा।4।4।126। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |