श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा ॥ तनु रैनी मनु पुन रपि करि हउ पाचउ तत बराती ॥ राम राइ सिउ भावरि लैहउ आतम तिह रंगि राती ॥१॥ गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा ॥ मेरे ग्रिह आए राजा राम भतारा ॥१॥ रहाउ ॥ नाभि कमल महि बेदी रचि ले ब्रहम गिआन उचारा ॥ राम राइ सो दूलहु पाइओ अस बडभाग हमारा ॥२॥ सुरि नर मुनि जन कउतक आए कोटि तेतीस उजानां ॥ कहि कबीर मोहि बिआहि चले है पुरख एक भगवाना ॥३॥२॥२४॥ {पन्ना 482}

पद्अर्थ: रैनी = कपड़े रंगने वाली मिट्टी। पुन = पुंन्न से। अपि = भी। पर यहाँ इस शब्द में ये एक शब्द नहीं है। यहाँ मन को रंगने का जिक्र है, और रंगने के लिए शब्द है ‘रपि’। ‘पुन’ के अर्थ ‘फिर’ अथवा ‘दुबारा’ नहीं हो सकता। इस अर्थ में शब्द का जोड़ ‘पुनि’ ही सदा आएगा, देखें ‘रागमाला’। गुरबाणी में शब्द ‘पुनह’ है या ‘फुनि’। सो, शब्द ‘पुन’ इनसे अलग शब्द है = ‘करि साधू अंजुली पुनु वडा है’; यहाँ शब्द ‘पुनु’ एकवचन है, इसका बहुवचन है ‘पुन’)। रपि करि हउ = मैं रंग लूँगी। पाचउ तत = पाँचों तत्वों के दैवीगुण (‘जितु कारजि सतु संतोख दइआ धरमु है’ – आसा महला १), दया, धर्म आदि गुण। बराती = मेली। सिउ = साथ। भावरि = फेरे, लावां। लै हउ = मैं लूँगी। तिह रंगि राती = उस पति के प्यार में रंगी हुई।1।

नोट: ‘पुनरपि’ इकट्ठा एक शब्द की शकल में कई बार आया है, ये संस्कृत के दो शब्दों का जोड़ है: ‘पुनः+अपि’। पुनः (पुनह) = भले गुणों से दुबारा, फिर।

दुलहनी = हे नई नवेली दुल्हन! मंगलचारा = शगुनों के गीत, सुहाग। री = हे! शब्द ‘दुलहनी’ स्त्रीलिंग है, इस लिए ‘री’ का प्रयोग हुआ है, देखें शब्द ‘करवतु भला...’ में ‘रे लोई!’।1। रहाउ।

नाभि = धुनी, जहाँ तक सांस लेते वक्त प्राण (हवा) पहुँचते माने गए हैं। बेदी = वेदी, चार डंडे चौरस जगह के कोने में गाड़ के इस में दो टोकरे (खारे) उल्टे रख के उन पर विवाह वाले लड़की = लड़के को बैठाते हैं। नाभि...ले = मैं अपनी नाभि रूपी कमल फूल में बेदी गाड़ के, मैंने श्वास श्वास से अपनी सुरति प्रभू चरनों में जोड़ ली है = ये मेरे विवाह की वेदी बनी है। ब्रहम गिआन = परमात्मा की जान पहिचान गुरू का शबद जो परमात्मा की जान-पहिचान करवाता है। उचारा = (ये विवाह का मंत्र) उचारा जा रहा है। सो = जैसा। दूलहु = दूल्हा। अस वड = ऐसे बड़े। भाग = किस्मत।2।

कोटि तेतीस = तेतीस करोड़। उजानां = (संस्कृत: उद+यान) विमान। सुरि नर = दैवी गुणों वाले लोग। आऐ उजाना = विबाणों में चढ़ के आए हैं, ऊँची उड़ान भरने वाले आए हैं, प्रभू चरणों में जुड़ने वाले आए हैं। सुरि नर, मुनि जन, कोटि तेतीस-सत्संगी। पुरख = पति। कउतक = कार्य, विवाह की रस्म।3।

अर्थ: हे नई नवेली दुल्हनियो! (प्रभू-प्रीति में रंगी हुई ज्ञानेन्द्रियो!) तुम बारंबार सुहाग के गीत गाओ, (क्योंकि) मेरे (हृदय-) घर में मेरा पति (जगत का) मालिक परमात्मा आया है।1। रहाउ।

मैंने अपने शरीर को (अपना मन रंगने के लिए) रंगने वाला बर्तन बनाया है, (भाव, मैं अपने मन को बाहर भटकने से रोकने के लिए शरीर के अंदर ही रख रही हूँ)। मन को मैंने भले गुणों (के रंग) से रंगा है, (इस काम में सहायता करने के लिए) दया-धर्म आदि दैवी गुणों को मैंने मेली (बाराती) बनाया है। अब मैं जगत पति परमात्मा के साथ लावें ले रही हूँ, और मेरी आत्मा उस पति के प्यार में रंगी गई है।1।

सांस-सांस उसकी याद में गुजारने के लिए मैंने (विवाह के लिए) वेदी बना ली है, सतिगुरू का शबद जो प्रभू-पति के साथ जान-पहिचान करवाता है (विवाह का मंत्र) उचारा जा रहा है। मेरे ऐसे भाग्य जागे हैं कि मुझे जगत के मालिक परमात्मा जैसा दूल्हा मिल गया है।2।

प्रभू-चरणों में उड़ाने भरने वाले मेरे सत्संगी मेरे विवाह की मर्यादा करने आए हैं। कबीर कहता है– मुझे अब एक परमात्मा पति ब्याह के ले चला है।3।2।24।

नोट: इस शबद में कबीर जी ने कई बातें इशारे–मात्र कहीं हैं; जैसे, प्रभू पति की मेहर, और सतिगुरू के शबद की बरकति। सतिगुरू नानक देव जी ने इन गूढ़ विचारों को स्पष्ट शब्दों में बता दिया है। “पाचउ तत बराती” में भी सिर्फ रमज़ ही दी है। गुरू नानक साहिब जी ने साफ कह दिया है–‘जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है’ इस विवाह कार्य के लिए सत–संतोख–दया–धर्म की जरूरत पड़ती है। वह शबद इसी ही राग में यूँ है;

आसा महला १॥ करि किरपा अपनै घरि आइआ ता मिलि सखीआ काजु रचाइआ॥ खेलु देखि मनि अनदु भइआ, सहु वीआहण आइआ॥१॥ गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु॥ हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु॥१॥ रहाउ॥ गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ, जां सहु मिलिआ तां जानिआ॥ तिहु लोका महि सबदु रविआ है, आपु गइआ मनु मानिआ॥२॥ आपणा कारजु आपि सवारे, होरनि कारजु न होई॥ जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है, गुरमुखि बूझै कोई॥३॥ भनति नानकु, सभना का पिरु ऐको सोइ॥ जिस नो नदरि करे, सा सोहागणि होइ॥४॥१०॥

दोनों शबदों की ‘रहाउ’ की पंक्तियां पढ़ के देखें। साफ प्रतीत होता है कि ये शब्द उचारने से पहले गुरू नानक देव जी के पास कबीर जी का ये शबद मौजूद है। और, जो जो ईश्वरीय मार्ग की बातें उन्होंने इशारे से कहीं हैं, गुरू नानक देव जी ने विस्तार से स्पष्ट कर दी हैं।

दोनों ही शबद एक ही राग में हैं। ये बात यकीनन कहीं जा सकती है कि सतिगुरू जी कबीर जी के इस शबद को अपनी बाणी के साथ संभाल के रखना चाहते थे।

आसा ॥ सासु की दुखी ससुर की पिआरी जेठ के नामि डरउ रे ॥ सखी सहेली ननद गहेली देवर कै बिरहि जरउ रे ॥१॥ मेरी मति बउरी मै रामु बिसारिओ किन बिधि रहनि रहउ रे ॥ सेजै रमतु नैन नही पेखउ इहु दुखु का सउ कहउ रे ॥१॥ रहाउ ॥ बापु सावका करै लराई माइआ सद मतवारी ॥ बडे भाई कै जब संगि होती तब हउ नाह पिआरी ॥२॥ कहत कबीर पंच को झगरा झगरत जनमु गवाइआ ॥ झूठी माइआ सभु जगु बाधिआ मै राम रमत सुखु पाइआ ॥३॥३॥२५॥ {पन्ना 482}

पद्अर्थ: सासु = सास, अविद्या, माया। ससुर = ससुर, देह अध्यास, शरीर का मोह। जेठ = (भाव) मौत। जेठ के नामि = मौत के नाम से, मौत का नाम सुनते ही। रे = हे भाई! डरउ = मैं डरती हूँ। ननद = ननदों ने, इन्द्रियों ने। गहेली = गह ली हूँ, मुझे पकड़ लिया है। बिरहि = विछोड़े में। जरउ = जलूँ, मैं जल रही हूँ।1।

बउरी = कमली। रहनि रहउ = जिंदगी गुजारूँ। रमतु = खेलता है, बसता है। नैन = आँखों से। नही पेखउ = मैं नहीं देख सकती। का सिउ = किसको?।1। रहाउ।

बापु = (संस्कृत: वपुस् body) शरीर। सावका = (संस्कृत: स, to be born) साथ पैदा हुआ। मतवारी = मतवाली, झल्ली। सद = सदा। संगि = साथ। बडे भाई कै संगि = बड़े भाई (ज्ञान) के साथ। जब होती = जब मैं होती थी, माँ के पेट में जब बड़े भाई के साथ थी। तब = तब। हउ = मैं। नाह = पति।2।

पंज को = पाँच कामादिकों का। बाधिआ = बंधा हुआ।3।

अर्थ: मेरी अकल मारी गई है, मैंने परमात्मा को भुला दिया है। हे वीर! अब (इस हालत में) कैसे उमर गुजारूँ? हे वीर! ये दुख मैं किसको सुनाऊँ कि वह प्रभू मेरी हृदय-सेज पर बसता है, पर मुझे आँखों से नहीं दिखता।1। रहाउ।

हे वीर! मैं माया के हाथों दुखी हूँ, फिर भी शरीर से प्यार (देह-अध्यास) होने के कारण, मुझे जेठ के नाम से ही डर लगता है (भाव, मेरा मरने को चित्त नहीं करता)। हे सखी सहेलियो! मुझे इन्द्रियों ने अपने वश में कर रखा है, मैं देवर के विछोड़े में (भाव, विचार से वंचित होने के कारण अंदर ही अंदर से) जल रही हूँ।1।

मेरे साथ पैदा हुआ ये शरीर सदा मेरे साथ लड़ता रहता है (भाव, सदा खाने को मांगता है), माया ने मुझे झल्ली कर रखा है। जब (माँ के पेट में) मैं बड़े वीर (ज्ञान) के साथ थी तब (सिमरन करती थी और) पति को प्यारी थी।2।

कबीर कहता है– (बस इसी तरह) सब जीवों को पाँच कामादिकों से वास्ता पड़ा हुआ है। सारा जगत इन से जूझता हुआ ही जिंदगी व्यर्थ गवाए जा रहा है; ठॅगनी माया के साथ बंधा पड़ा है। पर मैंने प्रभू को सिमर के सुख पा लिया है।3।

नोट: कविता के दृष्टिकोण से, ये शबद पढ़ने वाले के दिल का गहरा ध्रुवी करण करता है। माया–ग्रसित जीव की ये बड़ी दर्दनाक दास्तान है। दर्दों के महिरम सतिगुरू नानक देव जी की आँखों से ये शबद भला कैसे छूट सकता था? सारी दर्दनाक कहानी के आखिर में पहुँच कर ही आधी तुक में ही ‘सुख’ का सांस आता है। इतनी बड़ी दर्दनाक कहानी का इलाज कबीर जी ने एक रम्ज़ सी ही बता के (‘राम रमत’ कहके) बस कर दी; पर सतिगुरू नानक देव जी के उस इलाज को परहेज समेत विस्तार से यूँ बयान किया गया है;

आसा महला १॥ काची गागरि देह दुहेली, उपजै बिनसै दुखु पाई॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीअै, बिनु हरि गुर पारि न पाई॥१॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे, तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे॥ सरबी रंगी रूपी तूंहै, तिसु बखसे जिसु नदरि करे॥१॥ रहाउ॥ सासु बुरी घरि वासु न देवै, पिर सिउ मिलण न देइ बुरी॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ, हरि गुर किरपा ते नदरि धरी॥२॥ आपु बीचारि मारि मनु देखिआ, तुम सामीतु न अवरु कोई॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा, दुख सुखु देवहि करहि सोई॥३॥ आसा मनसा दोऊ बिनासत, त्रिहु गुण आस निरास भई॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईअै, संत सभा की ओट लही॥४॥ गिआन धिआन सगले सभि जप तप, जिसु हरि हिरदै अलख अभेदा॥ नानक राम नामि मनु राता, गुरमति पाऐ सहज सेवा॥५॥२२॥

कबीर जी के शबद में ‘सखी सहेली’ किसे कहा गया है? इस का हल गुरू नानक साहिब के शबद के दूसरे बंद में हैं; ‘सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ’ (भाव, सत्संगी)।

कबीर जी ने ‘सास’ के सारे ही परवार का हाल बयान करके दुखों की लंबी कहानी कही है, पर सतिगुरू जी ने उस ‘सासु बुरी’ का अल्पमात्र वर्णन करके उसके और उसके परिवार के पाँचों में से निकलने का रास्ता दिखाने पर जोर दिया है।

आसा ॥ हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥ तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥ मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥ जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥ हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥ कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥ तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥ तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥ {पन्ना 482}

पद्अर्थ: हम घरि = हमारे घर में। तनहि = हम तानते हैं। कंठि = गले में। तउ = तो। पढ़हु = (जीभ से ही) उचारते हो। रिदै = हृदय में।1।

बिसनु नाराइन, गोबिंदा = परमात्मा। बसहि = बस रहे हैं। जम दुआर = जमों के दर पर, धर्मराज के दरवाजे पर, प्रभू की हजूरी में। मुकंदा पूछसि = जब मुकंद पूछेगा, जब प्रभू पूछेगा। बवरे = हे कमले! कहसि = कहाँ से उत्तर देगा।1। रहाउ।

गोरू = गाएं। गुआर = गोपाल, ग्वाले, गायों के रखवाले। जनम जनम = कई जनमों से। पारि उतारि = पार लंघा के। चराइहु = तुमने हमें चराया, तुमने हमें (आत्मिक) खुराक दी। कैसे = किस तरह के?, नकारे ही।2।

नोट: अगर कबीर जी मुसलमान होते, तो ब्राहमणों को ये ना कहते कि तुम हमारे रखवाले बने चले आ रहे हो। मुसलमान का किसी ब्राहमण के साथ धार्मिक संबंध नहीं हो सकता था। दावे से कहा जा सकता है कि कबीर जी हिन्दू जुलाहे के घर जन्मे-पले थे।

कासीक = काशी का। जुलहा = जुलाहा। मोर = मेरी। गिआना = विचार की बात। जाचे = मांगते हो। भूपति = राजे।3।

अर्थ: (हे झल्ले ब्राहमण! अगर तुझे इस करके अपनी ऊँची जाति का गर्व है कि) तेरे गले में जनेऊ है (जो हमारे गले में नहीं है,तो देख, वैसा ही) हमारे घर (बहुत सारा) सूतर है (जिससे) हम नित्य ताना तनते हैं। (तेरा वेद आदि पढ़ने का गुमान भी झूठा, क्योंकि) तुम वेद व गायत्री मंत्र निरे जीभ से ही उचारते हो, पर परमात्मा मेरे हृदय में बसता है।1।

हे कमले ब्राहमण! प्रभू जी मेरी तो जीभ पर, मेरी आँखों में और मेरे दिल में बसते हैं। पर तुझे जब धर्मराज की हजूरी में प्रभू से पूछा जाएगा तो क्या उत्तर देगा (क्या करता रहा यहाँ सारी उम्र) ?।1। रहाउ।

कई जन्मों से तुम लोग हमारे रखवाले बने चले आ रहे हो, हम तुम्हारी गऊएं बने रहे, तुम हमारे मालिक ग्वाले बने रहे। पर तुम अब तक नकारे ही साबित हुए, तुमने कभी भी हमें (नदी से) पार लंघा के नहीं चराया (भाव, इस संसार समंदर से पार लांघने की कोई मति ना दी)।2।

(ये ठीक है कि) तू काशी का ब्राहमण है (भाव, तुझे गुमान है अपनी विद्या का, जो तूने काशी में हासिल की), और मैं (जाति का) जुलाहा हूँ (जिसको तुम्हारी विद्या पढ़ने का अधिकार नहीं है)। पर, मेरी विचार की एक बात सोच (कि विद्या पढ़ के आखिर तुम करते क्या हो), तुम तो राजे-रानियों के दर पर मांगते फिरते हो, और मेरी सुरति प्रभू के साथ जुड़ी हुई है।3।4।26।

आसा ॥ जगि जीवनु ऐसा सुपने जैसा जीवनु सुपन समानं ॥ साचु करि हम गाठि दीनी छोडि परम निधानं ॥१॥ बाबा माइआ मोह हितु कीन्ह ॥ जिनि गिआनु रतनु हिरि लीन्ह ॥१॥ रहाउ ॥ नैन देखि पतंगु उरझै पसु न देखै आगि ॥ काल फास न मुगधु चेतै कनिक कामिनि लागि ॥२॥ करि बिचारु बिकार परहरि तरन तारन सोइ ॥ कहि कबीर जगजीवनु ऐसा दुतीअ नाही कोइ ॥३॥५॥२७॥ {पन्ना 482}

पद्अर्थ: जगि = जगत में। जीवनु = जिंदगी, उम्र। समानं = जैसा, बराबर का। साचु = सदा स्थिर रहने वाला। गाठि = गाँठ। निधानं = खजाना।1।

हितु = प्यार। जिनि = जिस (मोह प्यार) ने। हिरि लीन् = चुरा लिया है।1। रहाउ।

नैन = आँखों से। उरझै = फसता है। पसु = मूर्ख। काल फास = मौत की फाही। न चेतै = याद नहीं रखता। कनिक = सोना। कामिनि = कामिनी, स्त्री।2।

परहरि = छॅत। तरन = (संस्कृत: तरणि) बेड़ी, जहाज। सोइ = वह प्रभू। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत का आसरा, प्रभू। दुतीअ = दूसरा, बराबर का।3।

नोट: पहली तुक के शब्द ‘जगि जीवनु’ और आखिरी तुक के ‘जगजीवनु’ का फर्क ध्यान से देखने की जरूरत है।

अर्थ: जगत में (मनुष्य की) जिंदगी ऐसी ही है जैसे सपना, जिंदगी सपने जैसी ही है। पर हम सबसे ऊँचे सुखों के खजाने प्रभू को छोड़ के, (इस स्वप्न समान जीवन को) सदा कायम रहने वाला जान के इसे गाँठ दे रखी है।1।

हे बाबा! हमने माया के साथ मोह-प्यार डाला हुआ है, जिसने हमारा ज्ञान रूपी हीरा चुरा लिया है।1। रहाउ।

पतंगा आँखों से (दीपक की लाट का रूप) देख के भूल जाता है, मूर्ख आग को नहीं देखता। (वैसे ही) मूर्ख जीव सोने और स्त्री (के मोह) में फंस के मौत की फाही को याद नहीं रखता।2।

कबीर कहता है– (हे भाई! तू विकार छोड़ दे और प्रभू को याद कर) वही (इस संसार समुंद्र में से) तैराने वाला जहाज है, और वह (हमारे) जीवन का आसरा-प्रभू ऐसा है कि कोई और उस जैसा नहीं है।3।5।27।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh