श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ घरु २ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

एकु पिता एकस के हम बारिक तू मेरा गुर हाई ॥ सुणि मीता जीउ हमारा बलि बलि जासी हरि दरसनु देहु दिखाई ॥१॥ सुणि मीता धूरी कउ बलि जाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ ॥ पाव मलोवा मलि मलि धोवा इहु मनु तै कू देसा ॥ सुणि मीता हउ तेरी सरणाई आइआ प्रभ मिलउ देहु उपदेसा ॥२॥ मानु न कीजै सरणि परीजै करै सु भला मनाईऐ ॥ सुणि मीता जीउ पिंडु सभु तनु अरपीजै इउ दरसनु हरि जीउ पाईऐ ॥३॥ भइओ अनुग्रहु प्रसादि संतन कै हरि नामा है मीठा ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी सभु अकुल निरंजनु डीठा ॥४॥१॥१२॥ {पन्ना 612}

नोट: यहाँ से ‘घरु २’ के शबद शुरू होते हैं। पहले शबदों का संग्रह11 है।

पद्अर्थ: गुर हाई = गुरभाई। मीता = हे मित्र! जीउ = जिंद, प्राण। बलि जासी = सदके जाएगी।1।

कउ = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। भाई = हे भाई!। रहाउ।

पाव = (शब्द ‘पाउ’ का बहुवचन) दोनों पैर। मलोवा = मैं मलूँगा। मलि = मल के। धोवा = धोऊँ, मैं धोऊँगा। तै कू = तुझे। देसा = दूँगा। हउ = मैं। प्रभ मिलउ = मैं प्रभू को मिल जाऊँ, मिलूँ।2।

मानु = अहंकार। कीजै = करना चाहिए। परीजै = पड़ना चाहिए। पिंडु = शरीर। अरपीजै = भेटा कर देना चाहिए। इउ = यूँ, इस तरह।3।

अनुग्रहु = मेहर, कृपा। प्रसादि = कृपा से। गुरि = गुरू ने। अकुल = अ+कुल, जिस की कोई खास कुल नहीं। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = सुरमा, मायाकी कालिख़) माया के प्रभाव से रहित।4।

जरूरी नोट: इस शबद में एक जिज्ञासू से सवाल करवा के, और, किसी गुरसिख से उक्तर दिलवा के परमात्मा से मिलाप की जुगति बताई गई है।

अर्थ: हे मित्र! (मेरी विनती) सुन। मैं (तेरे चरणों की) धूड़ से कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! (मैं अपना) ये मन तेरा (आज्ञाकारी बनाने को तैयार हूँ)। रहाउ।

हे मित्र! (हमारा) एक ही प्रभू पिता है, हम एक ही प्रभू-पिता के बच्चे हैं, (फिर,) तू मेरा गुरभाई (भी) है। मुझे परमात्मा के दर्शन करवा दे। मेरे प्राण तुझसे बारंबार सदके जाया करेंगे।1।

हे मित्र! मैं (तेरे दोनों) पैर मलूँगा, (इनको) मल-मल के धोऊँगा, मैं अपना ये मन तेरे हवाले कर दूँगा। हे मित्र! (मेरी विनती) सुन। मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे (ऐसा) उपदेश दे (कि) मैं प्रभू को मिल सकूँ।2।

(नोट: गुरमुख मिलाप की युक्ति बताता है)

हे मित्र! सुन। (किसी किस्म का) अहंकार नहीं करना चाहिए। जो कुछ परमात्मा कर रहा है, उसे भला करके मानना चाहिए। ये जिंद और ये शरीर सब कुछ उसकी भेट कर देना चाहिए। इस तरह परमात्मा को पा लिया जाता है।3।

हे मित्र! संत जनों की कृपा से (जिस मनुष्य पर प्रभू की) मेहर हो उसे परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग जाता है। (हे मित्र!) दास नानक पर गुरू ने कृपा की तो (नानक को) हर जगह वह प्रभू दिखाई देने लगा, जिसका कोई विशेष कुल नहीं, जो माया के प्रभाव से परे है।4।1।12।

सोरठि महला ५ ॥ कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी सरब जीआ का दाता रे ॥ प्रतिपालै नित सारि समालै इकु गुनु नही मूरखि जाता रे ॥१॥ हरि आराधि न जाना रे ॥ हरि हरि गुरु गुरु करता रे ॥ हरि जीउ नामु परिओ रामदासु ॥ रहाउ ॥ दीन दइआल क्रिपाल सुख सागर सरब घटा भरपूरी रे ॥ पेखत सुनत सदा है संगे मै मूरख जानिआ दूरी रे ॥२॥ हरि बिअंतु हउ मिति करि वरनउ किआ जाना होइ कैसो रे ॥ करउ बेनती सतिगुर अपुने मै मूरख देहु उपदेसो रे ॥३॥ मै मूरख की केतक बात है कोटि पराधी तरिआ रे ॥ गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से फिरि गरभासि न परिआ रे ॥४॥२॥१३॥ {पन्ना 612}

पद्अर्थ: ब्रहमंड = सृष्टि। को = का। ठाकुरु = पालनहार। रे = हे भाई! सारि = सार ले के। समालै = संभाल करता है। मूरखि = मूर्ख ने।1।

आराधि न जाना = (मैंने) आराधना करनी नहीं समझी। करता = करता हूँ। रे = हे भाई! हरि जीउ = हे प्रभू जी! परिओ = पड़ गया है। राम दासु = राम का दास। रहाउ।

सुख सागर = सुखों का समुंद्र। भरपूरी = व्यापक। सरब घटा = सारे शरीरों में। संगे = साथ ही।2।

हउ = मैं। मिति = हद बंदी। करि = कर के। वरनउ = वर्णन करूँ। किआ जाना = मैं क्या जानता हूँ? करउ = करूँ। मै मूरख = मुझ मूर्ख को।3।

केतक बात है = कौन सी बड़ी बात है, कोई बड़ी बात नहीं। कोटि = करोड़ों। जिन = जिन्होंने। गरभासि = गर्भ+आशय में, गर्भ जोनि में।4।

अर्थ: हे भाई! मुझे परमात्मा के सिमरन करने की जाच नहीं। मैं (ज़बानी ज़बानी ही) ‘हरी हरी’, ‘गुरू गुरू’ करता रहता हूँ। हे प्रभू जी! मेरा नाम ‘राम का दास’ पड़ गया है (अब तू ही मेरी लाज रख, और भक्ति की दाति दे)। रहाउ।

हे भाई! मैं मूर्ख ने उस परमात्मा का एक भी उपकार नहीं समझा, जो करोड़ों ब्रहमण्डों का पालहार मालिक है, जो सारे जीवों को (रिजक आदि) देने वाला दाता है, जो (सब जीवों को) पालता है, सदा (सब की) सार ले के संभाल करता है।1।

हे भाई! मैं मूर्ख उस परमात्मा को कहीं दूर बसता समझ रहा हूँ जो गरीबों पर दया करने वाला है, जो दया का घर है, जो सुखों का समुंद्र है, जो सारे शरीरों में हर जगह मौजूद है, जो सब जीवों के अंग-संग रहके सबके कर्म देखता है और (सबकी आरजूएं) सुनता रहता है।2।

हे भाई! परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, पर मैं उसके गुणों को सीमा में रख के बयान करता हूँ। मैं कैसे जान सकता हूँ कि परमात्मा कैसा है? हे भाई! मैं अपने गुरू के पास विनती करता हूँ कि मुझ मूर्ख को शिक्षा दे।3।

हे भाई! मुझ मूर्ख को पार लंघाना (गुरू के वास्ते) कोई बड़ी बात नहीं (उसके दर पर आ के तो) करोड़ो पापी (संसार समुंद्र से) पार लांघ रहे हैं। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू नानक (के उपदेश) को सुना है गुरू नानक के दर्शन किए हैं, वह दुबारा कभी जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते।4।2।13।

सोरठि महला ५ ॥ जिना बात को बहुतु अंदेसरो ते मिटे सभि गइआ ॥ सहज सैन अरु सुखमन नारी ऊध कमल बिगसइआ ॥१॥ देखहु अचरजु भइआ ॥ जिह ठाकुर कउ सुनत अगाधि बोधि सो रिदै गुरि दइआ ॥ रहाउ ॥ जोइ दूत मोहि बहुतु संतावत ते भइआनक भइआ ॥ करहि बेनती राखु ठाकुर ते हम तेरी सरनइआ ॥२॥ जह भंडारु गोबिंद का खुलिआ जिह प्रापति तिह लइआ ॥ एकु रतनु मो कउ गुरि दीना मेरा मनु तनु सीतलु थिआ ॥३॥ एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ ॥ भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ ॥४॥३॥१४॥ {पन्ना 612}

नोट: ‘इआ’ मेल के अक्षरों को ‘अया’ पढ़ना है जैसे, ‘गइआ’ को ‘गयआ’, ‘बिगसया’ इत्यादि।

पद्अर्थ: को = का। जिना बात को = जिन बातों का। अंदेसरो = चिंता फिक्र। ते सभि = वह सारी बातें। सहज = आत्मिक अडोलता। सैन = लीनता। सहज सैन = आत्मिक अडोलता में लीनता। सुखमन = मन को सुख देने वाली। नारी = नारियां, इन्द्रियां। ऊध = उलटा। बिगसाइआ = खिल उठा है।1।

अचरजु = अनोखा तमाशा। जिह कउ = जिस को। अगाधि = अथाह, बहुत ही गहरा। बोधि = बुद्धि से। अगाधि बोधि = अथाह को समझ लिया। रिदै = हृदय में। गुरि = गुरू ने। रहाउ।

जोइ दूत = जो वैरी। मोहि = मुझे। ते = (बहुवचन) वह। भइआनक = भयभीत। करहि = करते हैं। ते = से। राखु = बचा ले।2।

जह = जहाँ, जिस अवस्था में। भंडारु = खजाना। जिह = जिस को। तिह = उस ने।3।

गुरि = गुरू ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अटलु = अडोल। अमरु = आत्मिक मौत से बचा हुआ। न मुआ = नहीं मरता, आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती। भंडार = खजाने। कउ = को। लेखा = कर्मों का हिसाब। मूलि न = बिल्कुल नहीं।4।

अर्थ: हे भाई! देखो (मेरे अंदर) एक अनोखा करिश्मा हुआ है। गुरू ने (मुझे मेरे) हृदय में वह परमात्मा (दिखा) दिया है जिसके प्रथाय सुनते थे कि वह मनुष्य की समझ से बहुत परे है। रहाउ।

हे भाई! जिन बातों का मुझे बहुत चिंता-फिक्र लगा रहता था (गुरू की कृपा से) वह सारे चिंता-फिक्र मिट गए हैं। मेरा पलटा पड़ा हुआ हृदय-कमल पुष्प खिल गया है, आत्मिक अडोलता में मेरी लीनता हुई रहती है, और मेरी सारी इन्द्रियां अब मेरे मन को आत्मिक सुख देने वाली हो गई हैं।1।

हे भाई! जो (कामादिक वैरी) मुझे बहुत सताया करते थे, वह अब (नजदीक फटकने से) डरते हैं, वह बल्कि तरले करते हैं कि हम अब तेरे अधीन हो के रहेंगे, हमें मालिक प्रभू (के क्रोप) से बचा ले।2।

हे भाई! (मेरे अंदर वह करिश्मा ऐसा हुआ है) कि उस अवस्था में परमात्मा (की भक्ति) का खजाना (मेरे अंदर) खुल गया है। पर (हे भाई! ये खजाना) उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके भाग्यों में इसकी प्राप्ति लिखी हुई है। हे भाई! गुरू ने मुझे (परमात्मा का नाम) एक ऐसा रत्न दे दिया है कि (उसकी बरकति से) मेरा मन ठंडा-ठार हो गया है, मेरा शरीर शांत हो गया है।3।

हे भाई! गुरू ने मुझे आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की एक बूँद दी है, अब मेरी आत्मा (विकारों की ओर से) अडोल हो गई है, आत्मिक मौत से मैं बच गया हूँ, आत्मिक मौत मेरे नजदीक नहीं फटकती। हे भाई! गुरू ने नानक को भक्ति के खजाने बख्श दिए हैं, उससे पिछले किए कर्मों का हिसाब बिल्कुल ही नहीं मांगा।4।3।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh