श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ चरन कमल सिउ जा का मनु लीना से जन त्रिपति अघाई ॥ गुण अमोल जिसु रिदै न वसिआ ते नर त्रिसन त्रिखाई ॥१॥ हरि आराधे अरोग अनदाई ॥ जिस नो विसरै मेरा राम सनेही तिसु लाख बेदन जणु आई ॥ रहाउ ॥ जिह जन ओट गही प्रभ तेरी से सुखीए प्रभ सरणे ॥ जिह नर बिसरिआ पुरखु बिधाता ते दुखीआ महि गनणे ॥२॥ जिह गुर मानि प्रभू लिव लाई तिह महा अनंद रसु करिआ ॥ जिह प्रभू बिसारि गुर ते बेमुखाई ते नरक घोर महि परिआ ॥३॥ जितु को लाइआ तित ही लागा तैसो ही वरतारा ॥ नानक सह पकरी संतन की रिदै भए मगन चरनारा ॥४॥४॥१५॥ {पन्ना 612-613}

पद्अर्थ: जा का मनु = जिन मनुष्यों का मन। से जन = वह लोग। त्रिपति अघाई = (माया की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं। जिसु रिदै = जिस जिस के हृदय में। ते नर = वह लोग। त्रिखाई = प्यासे।1।

अरोग = आरोग्य। अनदाई = प्रसन्न, आनंदमयी। सनेही = प्यारा। बेदन = पीड़ा, दुख। जणु = जानो, समझो, मानो। रहाउ।

ओट = आसरा। गही = पकड़ी। प्रभ = हे प्रभू! गनणे = गिने जाते हैं।2।

गुर मानि = गुरू का हुकम मान के। लिव लाई = सुरति जोड़ी। गुर ते = गुरू से। ते = वह लोग। घोर = भयानक।3।

जितु = जिस (काम) में। को = कोई बंदा। तित ही = उस (काम) में ही ( ‘जितु’ की ‘तितु’ के अंत की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है)। सह = शह, ओट। मगन = मस्त।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की आराधना करने से निरोग हो जाते हैं, आत्मिक आनंद बना रहता है। पर जिस मनुष्य को मेरा प्यारा प्रभू भूल जाता है, उस पर (ऐसे) जानो (जैसे) लाखों तकलीफ़ें आ पड़ती हैं। रहाउ।

हे भाई! जिन मनुष्यों का मन प्रभू के कमल फूल जैसे कोमल चरणों में परच जाता है, वह मनुष्य (माया की ओर से) पूरे तौर पर संतोषी रहते हैं। पर, जिस जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के अमूल्य गुण नहीं आ के बसते, वे मनुष्य माया की तृष्णा में फंसे रहते हैं।1।

हे प्रभू! जिन मनुष्यों ने तेरा आसरा लिया, वे तेरी शरण में रह के सुख पाते हैं। पर, हे भाई! जिन मनुष्यों को सर्व-व्यापक करतार भूल जाता है, वे मनुष्य दुखियों में गिने जाते हैं।2।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की आज्ञा मान के परमात्मा में सुरति जोड़ ली, उन्होंने बड़ा आनंद बड़ा रस पाया। पर जो मनुष्य परमात्मा को भुला के गुरू की ओर से मुँह मोड़ के रखते हैं वे भयानक नर्क में पड़े रहते हैं।3।

हे नानक! (जीवों के क्या वश?) जिस काम में परमात्मा किसी जीव को लगाता है उसी काम में वह लगा रहता है, हरेक जीव वैसा ही काम करता है। जिन मनुष्यों ने (प्रभू की प्रेरणा से) संत-जनों का आसरा लिया है वे अंदर से प्रभू के चरणों में मस्त रहते हैं।4।4।15।

सोरठि महला ५ ॥ राजन महि राजा उरझाइओ मानन महि अभिमानी ॥ लोभन महि लोभी लोभाइओ तिउ हरि रंगि रचे गिआनी ॥१॥ हरि जन कउ इही सुहावै ॥ पेखि निकटि करि सेवा सतिगुर हरि कीरतनि ही त्रिपतावै ॥ रहाउ ॥ अमलन सिउ अमली लपटाइओ भूमन भूमि पिआरी ॥ खीर संगि बारिकु है लीना प्रभ संत ऐसे हितकारी ॥२॥ बिदिआ महि बिदुअंसी रचिआ नैन देखि सुखु पावहि ॥ जैसे रसना सादि लुभानी तिउ हरि जन हरि गुण गावहि ॥३॥ जैसी भूख तैसी का पूरकु सगल घटा का सुआमी ॥ नानक पिआस लगी दरसन की प्रभु मिलिआ अंतरजामी ॥४॥५॥१६॥ {पन्ना 613}

पद्अर्थ: राजन महि = राज के काम में। उरझाइओ = मगन रहता है। मानन महि = मान बढ़ाने वाले कामों में। अभिमानी = अहंकारी, मान का भूखा। लोभन महि = लालच बढ़ाने वाले कामों में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाले बंदे।1।

सुहावै = सुहाती है। पेखि = देख के। निकटि = नजदीक, अंग संग। कीरतनि = कीर्तन मे। त्रिपतावै = प्रसन्न रहता है। रहाउ।

अमलन सिउ = नशों से। अमली = नशों का प्रेमी। भूमन = जमीन के मालिक। भूमि = जमीन। खीर = दूध। बारिकु = बच्चा। हितकारी = प्यार करने वाले।2।

बिदुअंसी = विद्वान। रचिआ = मस्त। नैन = आँखें। देखि = देख देख के। सादि = स्वाद में। लुभानी = मस्त रहती है।3।

भूख = लालसा, जरूरत। पूरकु = मस्त। घट = शरीर। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4।

अर्थ: परमात्मा के भक्त को यही काम अच्छा लगता है। ( भक्त परमात्मा को) अंग-संग देख के और गुरू की सेवा करके परमात्मा की सिफत सालाह में ही प्रसन्न रहता है। रहाउ।

(हे भाई! जैसे) राज के कामों में राजा मगन रहता है, जैसे मान बढ़ाने वाले कामों में आदर-मान का भूखा मनुष्य लगा रहता है, जैसे लालची मनुष्य लालच बढ़ाने वाले कामों में फसा रहता है, वैसे ही आत्मिक जीवन की समझ वाला मनुष्य प्रभू के प्रेम रंग में मस्त रहता है।1।

हे भाई! नशों का प्रेमी मनुष्य नशों से चिपका रहता है, जमीन के मालिक को जमीन प्यारी लगती है, बच्चा दूध में परचा रहता है। इसी तरह संत जन परमात्मा से प्यार करते हैं।2।

हे भाई! विद्वान मनुष्य विद्या (पढ़ने-पढ़ाने) में खुश रहता है, आँखें (पदार्थ) देख-देख के सुख भोगती हैं। हे भाई! जैसे जीभ (स्वादिष्ट पदार्थों के) स्वाद (चखने) में खुश रहती है, वैसे ही प्रभू के भक्त प्रभू की सिफत सालाह के गीत गाते हैं।3।

हे भाई! सारे शरीरों के मालिक प्रभू जैसे जैसी किसी जीव की लालसा हो वैसी वैसी ही पूरी करने वाला है। हे नानक! (जिस मनुष्य को) परमात्मा के दर्शन की प्यास लगती है, उस मनुष्य को दिल की जानने वाला परमात्मा (खुद) आ के मिलता है।4।5।16।

सोरठि महला ५ ॥ हम मैले तुम ऊजल करते हम निरगुन तू दाता ॥ हम मूरख तुम चतुर सिआणे तू सरब कला का गिआता ॥१॥ माधो हम ऐसे तू ऐसा ॥ हम पापी तुम पाप खंडन नीको ठाकुर देसा ॥ रहाउ ॥ तुम सभ साजे साजि निवाजे जीउ पिंडु दे प्राना ॥ निरगुनीआरे गुनु नही कोई तुम दानु देहु मिहरवाना ॥२॥ तुम करहु भला हम भलो न जानह तुम सदा सदा दइआला ॥ तुम सुखदाई पुरख बिधाते तुम राखहु अपुने बाला ॥३॥ तुम निधान अटल सुलितान जीअ जंत सभि जाचै ॥ कहु नानक हम इहै हवाला राखु संतन कै पाछै ॥४॥६॥१७॥ {पन्ना 613}

पद्अर्थ: मैले = विकारों की मैल से भरे हुए। ऊजल = साफ सुथरे, पवित्र। करते = करने वाले। दाता = गुण देने वाला। चतुर = समझदार। कला = हुनर। गिआता = ज्ञाता, जानने वाला।1।

माधो = (माधव = माया का पति) हे प्रभू! पाप खंडन = पापों के नाश करने वाले। नीको = अच्छा, सोहणा। ठाकुर = हे पालनहार प्रभू!। रहाउ।

साजि = पैदा करके। निवाजे = आदर मान दिया। जीउ = प्राण, जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे कर। देहु = तू देता है। मिहरवाना = हे मेहरवान!।2।

न जानह = हम नहीं जानते, हम कद्र नहीं समझते। बिधाते = हे सृजनहार! बाला = बच्चे।3।

निधान = खजाने। अटल = सदा कायम रहने वाला। सुलितान = बादशाह। सभि = सारे। जाचै = जाचना करते हैं, माँगते हैं। इहै = ये ही। हवाला = हाल। कै पाछै = के आसरे।4।

अर्थ: हे प्रभू! हम जीव ऐसे (विकारी) हैं, और तू ऐसा (उपकारी) है। हम पाप कमाने वाले हैं, तू हमारे पापों का नाश करने वाला है। हे ठाकुर! तेरा देश सुंदर है (वह देश-साध-संगति सोहणा है जहाँ तु बसता है)। रहाउ।

हे प्रभू! हम जीव विकारों की मैल से भरे रहते हैं, तू हमें पवित्र करने वाला है। हम गुण-हीन हैं, तू हमें गुण बख्शने वाला है। हम जीव मूर्ख हैं, तू दाना है, तू समझदार है तू (हमें अच्छा बना सकने वाले) सारे हुनर जानने वाला है।1।

हे प्रभू! तूने जिंद शरीर प्राण दे के सारे जीवों को पैदा किया है, पैदा करके सब पर बख्शिश करता है। हे मेहरवान! हम गुण-हीन हैं, हममें कोई गुण नहीं हैं। तू हमें गुणों की दाति बख्शता है।2।

हे प्रभू! तू हमारे लिए भलाई करता है, पर हम तेरी की हुई भलाई की कद्र नहीं जानते। फिर भी तू हम पर सदा दयावान रहता है। हे सर्व-व्यापक सृजनहार! तू हमें सुख देने वाला है, तू (हमारी) अपने बच्चों की रखवाली करता है।3।

हे प्रभू जी! तुम सारे गुणों के खजाने हो। तुम सदा कायम रहने वाले बादशाह हो। सारे जीव (तेरे दर से) माँगते हैं। हे नानक! कह– (हे प्रभू!) हम जीवों का तो यही हाल है। तू हमें संत-जनों के आसरे में रख।4।6।17।

सोरठि महला ५ घरु २ ॥ मात गरभ महि आपन सिमरनु दे तह तुम राखनहारे ॥ पावक सागर अथाह लहरि महि तारहु तारनहारे ॥१॥ माधौ तू ठाकुरु सिरि मोरा ॥ ईहा ऊहा तुहारो धोरा ॥ रहाउ ॥ कीते कउ मेरै समानै करणहारु त्रिणु जानै ॥ तू दाता मागन कउ सगली दानु देहि प्रभ भानै ॥२॥ खिन महि अवरु खिनै महि अवरा अचरज चलत तुमारे ॥ रूड़ो गूड़ो गहिर ग्मभीरो ऊचौ अगम अपारे ॥३॥ साधसंगि जउ तुमहि मिलाइओ तउ सुनी तुमारी बाणी ॥ अनदु भइआ पेखत ही नानक प्रताप पुरख निरबाणी ॥४॥७॥१८॥ {पन्ना 613}

पद्अर्थ: गरभ महि = पेट में। आपन = अपना। दे = दे के। तह = वहाँ, माँ के पेट में। राखनहारे = बचाने की समर्था वाले। पावक = (विकारों की) आग। सागर = समुंद्र। अथाह = बहुत गहरा। तारनहारे = हे पार लंघा सकने वाले!।1।

माधो = (मा+धव, माया का पति) हे प्रभू! सिरि मोरा = मेरे सिर पर। ईहा = इस लोक में। ऊहा = उस लोक में। धोरा = आसरा। रहाउ।

कीते कउ = बनाई हुई चीजों को। मेरै संमानै = मेरे सम मानै, मेरु पर्वत के समान मानता है। त्रिणु = तृण, तीला, तुच्छ। मागन कउ = माँगने वाली। सगली = सारी दुनिया। देहि = ते देता है। प्रभ = हे प्रभू! भानै = अपनी रजा में।2।

खिन = छिन, थोड़ा सा समय। अवरु = और। खिनै महि = खिन में ही। अचरज = हैरान कर देने वाले। चलत = करिश्में। रूढ़ो = सुंदर। गूढ़ो = (सारे संसार में) छुपा हुआ। गंभीरो = बड़े जिगरे वाला। अगम = हे अपहुँच! अपारे = हे अपार! हे बेअंत!।3।

साध संगि = साध-संगति में। जउ = जब। तुमहि = तू खुद ही। तउ = तब। पेखत ही = देखते ही। पुरख = सर्व व्यापक। निरबाणी = वासना रहित।4।

अर्थ: हे प्रभू! तू मेरे सिर पर रखवाला है इस लोक में, परलोक में मुझे तेरा ही आसरा है। रहाउ।

हे (संसार समुंद्र से) पार लंघा सकने की समर्था रखने वाले! माँ के पेट में हमें अपना सिमरन दे के वहाँ हमारी रक्षा करने वाला है। (विकारों की) आग के समुंद्र में गहरी लहरों में गिरे हुए को भी मुझे पार लंघा ले।1।

हे प्रभू! तेरे पैदा किए पदार्थों को (ये जीव) मेरु पर्वत समान समझते हैं, पर तुझे, जो तू सब को पैदा करने वाला है, को एक तीले समान समझते हैं। हे प्रभू! तू सबको दातें देने वाला है, सारी दुनिया तेरे ही दर से माँगने वाली है, तू अपनी रजा में सबको दान देता है।2।

हे प्रभू! तेरे करिश्में हैरान कर देने वाले हैं, एक छिन में तू कुछ का कुछ बना देता है। हे अपहुँच! हे बेअंत! तू सबसे ऊँचा है, तू सुंदर है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सारे संसार में गुप्त बस रहा है।3।

हे नानक! (कह–) हे सर्व-व्यापक प्रभू! जब तू खुद ही (किसी जीव को) साध-संगति में मिलाता है, तब वह तेरी सिफत सालाह की बाणी सुनता है। (हे भाई!) वासना-रहित सर्व-व्यापक प्रभू का प्रताप देख के तब उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है।4।7।18।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh