श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ हम संतन की रेनु पिआरे हम संतन की सरणा ॥ संत हमारी ओट सताणी संत हमारा गहणा ॥१॥ हम संतन सिउ बणि आई ॥ पूरबि लिखिआ पाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ ॥ संतन सिउ मेरी लेवा देवी संतन सिउ बिउहारा ॥ संतन सिउ हम लाहा खाटिआ हरि भगति भरे भंडारा ॥२॥ संतन मो कउ पूंजी सउपी तउ उतरिआ मन का धोखा ॥ धरम राइ अब कहा करैगो जउ फाटिओ सगलो लेखा ॥३॥ महा अनंद भए सुखु पाइआ संतन कै परसादे ॥ कहु नानक हरि सिउ मनु मानिआ रंगि रते बिसमादे ॥४॥८॥१९॥ {पन्ना 614}

पद्अर्थ: रेनु = चरण धूड़। पिआरे = हे प्यारे प्रभू! ओट = आसरा। सताणी = (स+ताणी) ताण वाली, तगड़ी।1।

सिउ = साथ। बणि आई = प्रीति बन गई है। पूरबि लिखिआ = पूर्बले भाग्यों अनुसार लिखे लेख। भाई = प्रेमी। रहाउ।

लेवा देवी = लेन देन। बिउहारा = वरतण व्यवहार। लाहा = लाभ। भंडारा = खजाने।2।

मो कउ = मुझे। पूँजी = हरी नाम का सरमाया। सउपी = हवाले कर दी। धोखा = फिकर। कहा करैगो = कुछ नहीं कर सकेगा। फाटिओ = फट गया है। सगलो = सारा।3।

परसादे = प्रसादि, कृपा से। मानिआ = मान गया, पतीज गया। रंगि = प्रेम रंग में। रते = रंगा गया। बिसमादे = आश्चर्य प्रभू के।4।

अर्थ: हे प्रभू! तेरे संतों से मेरी प्रीति बन गई है। पिछले लिखे लेखों के अनुसार ये प्राप्ति हुई है। अब मेरा ये मन तेरा प्रेमी बन गया है। रहाउ।

हे प्यारे प्रभू! (मेहर कर) मैं तेरे संत-जनों की चरण-धूड़ बना रहूँ, संत-जनों की शरण पड़ा रहूँ। संत ही मेरे तगड़े सहारा हैं, संत-जन ही मेरे जीवन को सोहना बनाने वाले हैं।1।

(हे प्रभू! तेरी मेहर से) संत जनों से ही मेरा लेन-देन और वरतण-व्यवहार है। संत-जनों के साथ रह के मैंने ये फायदा कमाया है कि मेरे अंदर भक्ति के खजाने भर गए हैं।2।

हे भाई! जब से संत-जनों ने मुझे परमात्मा की भक्ति की राशि पूँजी दी है, तब से मेरे मन का चिंता-फिकर उतर गया है। (मेरे जन्मों-जन्मांतरों के किए कर्मों का) सारे ही हिसाब का कागज फट चुका है। अब धर्मराज मुझसे कोई पूछ-पड़ताल नहीं करेगा।3।

हे भाई! संत-जनों की कृपा से मेरे अंदर बड़ा धार्मिक आनंद बना हुआ है। हे नानक! कह– मेरा मन परमात्मा के साथ पतीज गया है, आश्चर्य प्रभू के प्रेम रंग में रंगा गया है।4।8।19।

सोरठि मः ५ ॥ जेती समग्री देखहु रे नर तेती ही छडि जानी ॥ राम नाम संगि करि बिउहारा पावहि पदु निरबानी ॥१॥ पिआरे तू मेरो सुखदाता ॥ गुरि पूरै दीआ उपदेसा तुम ही संगि पराता ॥ रहाउ ॥ काम क्रोध लोभ मोह अभिमाना ता महि सुखु नही पाईऐ ॥ होहु रेन तू सगल की मेरे मन तउ अनद मंगल सुखु पाईऐ ॥२॥ घाल न भानै अंतर बिधि जानै ता की करि मन सेवा ॥ करि पूजा होमि इहु मनूआ अकाल मूरति गुरदेवा ॥३॥ गोबिद दामोदर दइआल माधवे पारब्रहम निरंकारा ॥ नामु वरतणि नामो वालेवा नामु नानक प्रान अधारा ॥४॥९॥२०॥ {पन्ना 614}

पद्अर्थ: जेती = जितनी ही। समग्री = सामान। तेती ही = ये सारी ही। संगि = साथ। पदु = आत्मिक दर्जा। निरबानी = वासना रहित।1।

पिआरे = हे प्यारे प्रभू! गुरि पूरै = पूरे गुरू ने। पराता = परोया गया है। रहाउ।

ता महि = इनमें फंसे रहने से। रेन = चरण धूड़। सगल की = सबकी।2।

घाल = मेहनत। भानै = तोड़ता, नाश करता। अंतर बिधि = अंदरूनी हालत। मन = हे मन! होमि = हवन कर दे, भेटा कर दे। अकाल मूरति = जिसका अस्तित्व मौत रहित है।3।

दामोदर = (दाम = रस्सी। उदर = पेट) परमात्मा। माधवे = माया का पति, प्रभू। वरतणि = हर रोज काम आने वाली चीज। वालेवा = हृदय घर का सामान। अधारा = आसरा। नामो = नाम ही।4।

अर्थ: हे प्यारे प्रभू! (मुझे निश्चय हो गया है कि) तू ही मेरा सुखों का दाता है। (जब से) पूरे गुरू ने मुझे उपदेश दिया है, मैं तेरे साथ ही परोया गया हूँ। रहाउ।

हे मनुष्य! ये जितना भी साजो सामान तू देख रहा है, ये सारा ही (आखिर में) छोड़ के चले जाना है। परमात्मा के नाम से सांझ बना, तू वह आत्मिक दर्जा हासिल कर लेगा जहाँ कोई वासना छू नहीं सकती।1।

हे भाई! काम क्रोध लोभ मोह अहंकार- इस में फसे रहने से सुख नहीं मिला करता। हे मेरे मन! तू सभी के चरणों की धूड़ बना रह। तब ही आत्मिक आनंद खुशी प्राप्त होती है।

हे मेरे मन! उस परमात्मा की सेवा-भक्ति किया कर, जो किसी की की हुई मेहनत को व्यर्थ नहीं जाने देता, और हरेक के दिल की जानता है। हे भाई! जो प्रकाश-रूप प्रभू सबसे बड़ा है जिसका स्वरूप मौत रहित है, उसकी पूजा-भक्ति कर, और, बतौर भेटा अपना ये मन उसके हवाले कर दे।3।

हे नानक! गोबिंद दामोदर दया के घर, माया के पति, पारब्रहम निरंकार के नाम को हर समय काम आने वाली चीज बना, नाम को ही हृदय-घर में सामान बना, नाम ही जिंद का आसरा है।4।9।20।

सोरठि महला ५ ॥ मिरतक कउ पाइओ तनि सासा बिछुरत आनि मिलाइआ ॥ पसू परेत मुगध भए स्रोते हरि नामा मुखि गाइआ ॥१॥ पूरे गुर की देखु वडाई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ रहाउ ॥ दूख सोग का ढाहिओ डेरा अनद मंगल बिसरामा ॥ मन बांछत फल मिले अचिंता पूरन होए कामा ॥२॥ ईहा सुखु आगै मुख ऊजल मिटि गए आवण जाणे ॥ निरभउ भए हिरदै नामु वसिआ अपुने सतिगुर कै मनि भाणे ॥३॥ ऊठत बैठत हरि गुण गावै दूखु दरदु भ्रमु भागा ॥ कहु नानक ता के पूर करमा जा का गुर चरनी मनु लागा ॥४॥१०॥२१॥ {पन्ना 614}

पद्अर्थ: मिरतक = (आत्मिक जीवन से) मरा हुआ। तनि = शरीर में, हृदय में। सासा = सांस, जिंद, आत्मिक जीवन देने वाला नाम। आनि = ला के। मुगध = मूर्ख। स्रोते = श्रोते, (सिफत सालाह) सुनने वाले। मुखि = मुँह से।1।

ता की = उस (वडिआई) की। रहाउ।

सोग = ग़म। बिसरामा = ठिकाना, निवास। बांछत = इच्छा मुताबिक। अचिंता = अचनचेत।2।

ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। हिरदै = हृदय में। मनि = मन में। भाणे = प्यारे लगे।3।

दरदु = पीड़ा। भ्रमु = भटकना। पूर = पूरे, सफल। करंमा = काम।4।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू की आत्मिक उच्चता बड़ी ही आश्चर्यजनक है, उसका मूल्य नहीं बताया जा सकता। रहाउ।

हे भाई! (गुरू आत्मिक तौर पर) मरे हुए मनुष्य के शरीर में नाम-प्राण डाल देता है, (प्रभू से) विछुड़े हुए मनुष्य को ला के (प्रभू के साथ) मिला देता है। पशु (स्वभाव लोग) मूर्ख मनुष्य (गुरू की कृपा से परमात्मा का नाम) सुनने वाले बन जाते हैं, परमात्मा का नाम मुँह से गाने लग जाते हैं।1।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ता है, गुरू उसको नाम रूपी प्राण दे के उसके अंदर से) दुखों का ग़मों का डेरा गिरा देता है उसके अंदर आनंद खुशियों का ठिकाना बना देता है। उस मनुष्य को अचानक मन-इच्छित फल मिल जाते हैं उसके सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।2।

हे भाई! जो मनुष्य अपने गुरू के मन को भा जाते हैं, उन्हें इस लोक में सुख प्राप्त रहता है, परलोक में भी वे सुर्खरू हो जाते हैं, उनके जनम-मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, उन्हें कोई डर छू नहीं सकता (क्योंकि गुरू की कृपा से) उनके हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है।3।

हे नानक! कह– जिस मनुष्य का मन गुरू के चरणों में जुड़ा रहता है, उसके सारे काम सफल हो जाते हैं, वह मनुष्य उठता-बैठता हर वक्त परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रहता है, उसके अंदर से हरेक दुख पीड़ा भटकना खत्म हो जाती है।4।10।21।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh