श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 661 धनासरी महला १ घरु दूजा ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किउ सिमरी सिवरिआ नही जाइ ॥ तपै हिआउ जीअड़ा बिललाइ ॥ सिरजि सवारे साचा सोइ ॥ तिसु विसरिऐ चंगा किउ होइ ॥१॥ हिकमति हुकमि न पाइआ जाइ ॥ किउ करि साचि मिलउ मेरी माइ ॥१॥ रहाउ ॥ वखरु नामु देखण कोई जाइ ॥ ना को चाखै ना को खाइ ॥ लोकि पतीणै ना पति होइ ॥ ता पति रहै राखै जा सोइ ॥२॥ जह देखा तह रहिआ समाइ ॥ तुधु बिनु दूजी नाही जाइ ॥ जे को करे कीतै किआ होइ ॥ जिस नो बखसे साचा सोइ ॥३॥ हुणि उठि चलणा मुहति कि तालि ॥ किआ मुहु देसा गुण नही नालि ॥ जैसी नदरि करे तैसा होइ ॥ विणु नदरी नानक नही कोइ ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 661} पद्अर्थ: सिमरी = मैं सिमरूँ। हिआउ = हृदय। जीअड़ा = जिंद। बिललाइ = बिलकता है। सिरजि = पैदा करके। सवारे = सवारता है, अच्छे जीवन वाला बनाता है। साचा = सदा कायम रहने वाला अकाल-पुरख। तिसु विसरिअै = अगर उस (प्रभू को) भुला दें। किउ होइ = नहीं हो सकता।1। हिकमति = चालाकी। हुकमि = हुकम से, जोर से, किसी हक के जताने से। साचि = सदा स्थिर प्रभू में। मिलउ = मैं मिलूँ। माइ = हे माँ!।1। रहाउ। वखरु = सौदा। कोई = कोई एक आध। लोकि पतीणै = अगर जगत की तसल्ली करवा दी जाए। पति = इज्जत। सोइ = वह परमात्मा ही।2। जह = जहाँ। देखा = मैं देखता हूँ। जाइ = जगह। कीतै = (हिकमत आदि वाला प्रयत्न) करने से।3। हुणि = अभी। मुहति = पल में। तालि = ताल (देने के जितने समय) में। देसा = मैं दूँगा। विणु नदरी = मेहर की नजर के बिना।4। अर्थ: हे मेरी माँ! किसी चालाकी से अथवा कोई हक जताने से परमात्मा नहीं मिलता। और कौन सा तरीका है जिससे मैं उस सदा स्थिर रहने वाले प्रभू में मिल सकता हूँ?।1। रहाउ। (चालाकी या जोर से) परमात्मा का सिमरन नहीं किया जा सकता। फिर मैं कैसे उसका सिमरन करूँ? और, अगर उस प्रभू को भुला दें, तो भी जीवन कभी अच्छा नहीं बन सकता, दिल जलता रहता है, जीवात्मा दुखी रहती है। (क्या किया जाए?) (दरअसल बात ये है कि) सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू जीवों को पैदा करके खुद ही (सिमरन की दाति दे के) अच्छे जीवन वाला बनाता है।1। (अगर उसकी मेहर ना हो तो) इस नाम-व्यापार को ना कोई परखने के लिए जाता है, ना ही कोई इसको खा के देखता है। (चालाकियों से जगत की तसल्ली करा दी जाती है कि हम नाम-व्यापार कर रहे हैं) पर निरा जगत की तसल्ली कराने से प्रभू की हजूरी में आदर नहीं मिलता (लोक-दिखावे वाली भक्ति प्रवान नहीं होती)। इज्जत तब ही मिलती है अगर प्रभू (स्वयं मेहर करके नाम की दाति दे और) इज्जत रखे।2। (हे प्रभू!) जिधर मैं देखता हूँ उधर ही तू मौजूद है, (तुझे मिलने के लिए) तेरे बिना और कोई आसरा नहीं है। जो कोई जीव (प्रभू को मिलने के लिए हिकमत आदि जैसे प्रयत्न) करे, तो ऐसे प्रयत्नों का कोई लाभ नहीं होता। (सिर्फ वही जीव प्रभू को मिल सकता है) जिस पर वह सदा-स्थिर प्रभू खुद (सिमरन की) बख्शिश करे।3। (यहाँ सदा नहीं बैठे रहना, यहाँ से) जल्दी ही (हरेक जीव ने अपनी-अपनी वारी) चले जाना है, एक पल में अथवा एक ताल में (कह लो। यहाँ पक्के डेरे नहीं हैं)। (फिर, इस समय में अगर मैं लोक-विखावा ही करता रहा, तो) मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? मेरे पल्ले गुण नहीं होंगे। (जीव के भी क्या वश?) परमात्मा जैसी निगाह करता है जीव वैसे ही जीवन वाला बन जाता है। हे नानक! प्रभू की मेहर की नजर के बिना कोई जीव प्रभू के चरणों में जुड़ नहीं सकता।4।1।3। नोट: अंक १ बताता है कि ‘घरु दूजा’ के नए संग्रह का ये पहला शबद है धनासरी महला १ ॥ नदरि करे ता सिमरिआ जाइ ॥ आतमा द्रवै रहै लिव लाइ ॥ आतमा परातमा एको करै ॥ अंतर की दुबिधा अंतरि मरै ॥१॥ गुर परसादी पाइआ जाइ ॥ हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु न खाइ ॥१॥ रहाउ ॥ सचि सिमरिऐ होवै परगासु ॥ ता ते बिखिआ महि रहै उदासु ॥ सतिगुर की ऐसी वडिआई ॥ पुत्र कलत्र विचे गति पाई ॥२॥ ऐसी सेवकु सेवा करै ॥ जिस का जीउ तिसु आगै धरै ॥ साहिब भावै सो परवाणु ॥ सो सेवकु दरगह पावै माणु ॥३॥ सतिगुर की मूरति हिरदै वसाए ॥ जो इछै सोई फलु पाए ॥ साचा साहिबु किरपा करै ॥ सो सेवकु जम ते कैसा डरै ॥४॥ भनति नानकु करे वीचारु ॥ साची बाणी सिउ धरे पिआरु ॥ ता को पावै मोख दुआरु ॥ जपु तपु सभु इहु सबदु है सारु ॥५॥२॥४॥ {पन्ना 661} पद्अर्थ: नदरि = कृपा दृष्टि। द्रवै = नर्म हो जाता है, पिघलता है। परातमा = पर आत्मा, दूसरों की आत्मा, दूसरों का स्वै। दुबिधा = मेर तेर। अंतर की = अंदरूनी। अंतरि = अंदर ही (‘अंदर’ संज्ञा है, ‘अंतरि’ क्रिया विशेषण)।1। परसादी = कृपा से। कालु = मौत, मौत का डर।1। रहाउ। सचि सिमरिअै = अगर सदा स्थिर प्रभू को सिमरा जाए। परगासु = प्रकाश, असल जीवन की सूझ। ता ते = उस (प्रकाश) से। बिखिआ = माया। उदासु = निर्लिप। कलत्र = स्त्री। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।2। जीउ = जिंद। जिस का = जिस प्रभू का दिया हुआ (‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है)।3। सतिगुर की मूरति = गुरू का स्वरूप, गुरू का आत्मिक स्वरूप, गुरू की बाणी। साचा = सदा स्थिर रहने वाला।4। भनति = कहता है। ता = तब ही। को = कोई (मनुष्य)। मोह = मोह से खलासी। दुआरु = दरवाजा, रास्ता। सारु = श्रेष्ठ।5। अर्थ: परमात्मा का सिमरन गुरू की कृपा से हासिल होता है, जिस मनुष्य का चिक्त परमात्मा से लग जाता है उसे दुबारा मौत का डर नहीं लगता।1। रहाउ। प्रभू खुद ही मेहर करे तो (गुरू के द्वारा) उसका सिमरन किया जा सकता है। (जो मनुष्य सिमरता है उसकी) आत्मा (दूसरों का दुख देख के) पिघलती है (कठोरता खत्म हो जाने के कारण) वह प्रभू में सुरति जोड़े रहता है। वह मनुष्य अपनी स्वै और दूसरों के स्वै को एक सा ही समझता है, उसके अंदर की मेर-तेर अंदर ही मिट जाती है।1। अगर सदा स्थिर प्रभू को सिमरा जाए तो सही जीवन की समझ पड़ जाती है, उस ‘प्रकाश’ से (वह) माया में विचरते हुए भी निर्लिप रहता है। गुरू की शरण पड़ने में ऐसी ख़ूबी है कि पुत्र-स्त्री (आदि परिवार) में ही रहते हुए उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त हो जाती है।2। सेवक वह है जो (मालिक की) इस तरह की सेवा करे कि जिस मालिक की दी हुई जिंद है उसी के आगे इसको भेट कर दे। ऐसा सेवक मालिक को पसंद आ जाता है, (मालिक के घर में) कबूल पड़ जाता है, उसकी हजूरी में आदर-सम्मान पाता है।3। जो सेवक अपने सतिगुरू के आत्मिक स्वरूप (शबद) को अपने हृदय में बसाता है, वह गुरू के दर से मन-इच्छित फल हासिल करता है, सदा स्थिर रहने वाला मालिक प्रभू उस पर (इतनी) मेहर करता है कि उसे मौत का भी डर नहीं रह जाता।4। नानक कहता है– जो मनुष्य (गुरू के शबद की) विचार करता है, सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू की सिफत सालाह वाली इस गुरबाणी से प्यार पाता है, तब वह (माया के मोह से) निजात का रास्ता तलाश लेता है। (सिफत सालाह वाला ये) श्रेष्ठ गुर-शबद ही असल जप है असल तप है।5।2।4। धनासरी महला १ ॥ जीउ तपतु है बारो बार ॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार ॥ जै तनि बाणी विसरि जाइ ॥ जिउ पका रोगी विललाइ ॥१॥ बहुता बोलणु झखणु होइ ॥ विणु बोले जाणै सभु सोइ ॥१॥ रहाउ ॥ जिनि कन कीते अखी नाकु ॥ जिनि जिहवा दिती बोले तातु ॥ जिनि मनु राखिआ अगनी पाइ ॥ वाजै पवणु आखै सभ जाइ ॥२॥ जेता मोहु परीति सुआद ॥ सभा कालख दागा दाग ॥ दाग दोस मुहि चलिआ लाइ ॥ दरगह बैसण नाही जाइ ॥३॥ करमि मिलै आखणु तेरा नाउ ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ ॥ जे को डूबै फिरि होवै सार ॥ नानक साचा सरब दातार ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 661-662} पद्अर्थ: तपतु है = दुखी होता है। बारो बार = बार बार। तपि तपि = तप तप के, दुखी हो हो के। बेकार = विकारों में। जै तनि = जिस शरीर में। विसरि जाइ = भूल जाती है। पका रोगी = कोढ़ के रोग वाला।1। बहुता बोलणु = (सहेड़े हुए दुखों के बारे में) बहुते गिले। झखणु = व्यर्थ बकवास। सोइ = वह प्रभू।1। रहाउ। जिनि = जिस (परमात्मा) ने। तातु = तुरंत। अगनी पाइ = (शरीर में) आग (गरमी) पा के। मनु = जिंद। पवणु = श्वास। वाजै = बजता है, चलता है। आखै = (जीव) बोलता है। सभ जाइ = और जगह।2। दाग दोस = दोशों का दाग़। मुहि = मुँह पर। लाइ = लगा के। जाइ = जगह।3। करमि = मेहर से। जितु लगि = जिसमें लग के। को = कोई जीव। सार = संभाल।4। अर्थ: (सिफत सालाह की बाणी को विसार के) जिंद बार बार दुखी होती है, दुखी हो हो के (फिर भी) और ही विकारों में दुखी होती है। जिस शरीर में (भाव, जिस मनुष्य को) प्रभू की सिफत सालाह की बाणी भूल जाती है, वह सदा यूँ विलकता है जैसे कोढ़ के रोग वाला आदमी।1। (सिमरन से खाली रहने के कारण सहेड़े हुए दुखों की बाबत ही) बहुते गिले करते रहना व्यर्थ का बोल-बुलारा है क्योंकि वह परमात्मा हमारे गिले किए बिना ही (हमारे रोगों की) सार जानता है।1। रहाउ। (दुखों से बचने के लिए उस प्रभू का सिमरन करना चाहिए) जिसने कान दिए, आँखें दीं, नाक दिया, जिसने जीभ दी जो फटाफट बोलती है, जिसने हमारे शरीर को गरमी दे के जीवात्मा (शरीर में) टिका दी; (जिसकी कला से शरीर में) श्वास चलता है और मनुष्य हर जगह (चल-फिर के) बोल-चाल कर सकता है।2। जितना भी माया का मोह है दुनिया की प्रीति है, रसों के स्वाद हैं, ये सारे मन में विकारों की कालिख ही पैदा करते हैं, विकारों के दाग़ ही लगाते जाते हैं। (सिमरन से सूने रह के विकारों में फस के) मनुष्य विकारों के दाग़ अपने माथे पर लगा के (यहाँ से) चल पड़ता है, और परमात्मा की हजूरी में इसे बैठने के लिए जगह नहीं मिलती।3। (पर, हे प्रभू! जीव के भी क्या वश?) तेरा नाम सिमरन (का गुण) तेरी मेहर से ही मिल सकता है, तेरे नाम में लग के (मोह और विकारों के समुंद्र में से) पार लांघा जा सकता है, (इनसे बचने के लिए) और कोई जगह नहीं है। हे नानक! (निराश होने की आवश्यक्ता नहीं) अगर कोई मनुष्य (प्रभू को भुला के विकारों में) डूबता भी है (वह प्रभू इतना दयालु है कि) फिर भी उसकी संभाल होती है। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभू सब जीवों को दातें देने वाला है (किसी से भेद-भाव नहीं रखता)।4।3।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |