श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला १ आरती    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥ कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ ॥ सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥ सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥ हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥१॥७॥९॥ {पन्ना 663}

नोट: आरती– (आरति:, आराक्तिका) देवते की मूर्ति या किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजन करना। हिन्दू मत के अनुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभि पर, एक बार मुँह पर और सात बार सारे शरीर पर दीए घुमाने चाहिए। दीए एक से ले कर सौ तक हो सकते हैं। गुरू नानक देव जी ने इस आरती का खण्डन करके ईश्वर की प्राकृतिक रूप से हो रही आरती की महिमा की है।

पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूर्य। दीपक = दीए। जनक = जानोक, जैसा, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा (अनल = हवा)। मलय पर्वत पर चंदन आदि के पौधे होने के कारण उधर से आने वाली हवा सुगंधित होती है। मलय पर्वत भारत के दक्षिण में है। बनराइ = वनस्पति। फुलंत = फूल दे रही है। जोती = जोति रूप प्रभू।1।

भवखंडना = हे जनम मरण काटने वाले! अनहता = (अन+हत) जो बिना बजाए बजे, एक रस। सबद = आवाज़, जीवन रौंअ। भेरी = नगारा।1। रहाउ।

सहस = हजारों। तव = तेरे। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे वास्ते, तेरे, तुझे। मूरति = शकल। नना = कोई नहीं। तोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। इव = इस तरह। चलत = चरित्र, करिश्में, आश्चर्यजनक खेल।2।

जोति = प्रकाश, रोशनी। सोइ = वह प्रभू। तिस कै चानणि = उस प्रभू के प्रकाश से। साखी = शिक्षा से।3।

मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनो = हर रोज। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। सारंगि = पपीहा। जा ते = जिससे। तेरै नामि = तेरे नाम में।4।

अर्थ: सारा आकाश (जैसे) थाल है, सूर्य और चंद्रमा (इस थाल में) दीए बने हुए हैं, तारा मण्डल, (थाल में) मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली (सुगंधित) हवा मानो, धूप (धुख) रही है, हवा चवर कर रही है, सारी बनस्पति ज्योति-रूपी (प्रभू की आरती) के लिए फूल दे रही है (पुष्पार्पण कर रही है)।1।

हे जीवों के जनम-मरण नाश करने वाले! (प्रकृति में) तेरी कैसी सुंदर आरती हो रही है! (सब जीवों में रुमक रही) एक-रस रौंअ, जैसे, तेरी आरती के लिए नगारे बज रहे हैं।1। रहाउ।

(सब जीवों में व्यापक होने के कारण) तेरी हजारों आँखें हैं (पर, निराकार होने के कारण, हे प्रभू!) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों ही तेरी सूरतें हैं, पर तेरी कोई सूरति नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं, पर (निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू बिना नाक के ही है। तेरे ऐसे अजीब करिश्मों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2।

सारे जीवों में एक उसी परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में रौशनी (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरू की शिक्षा से ही होता है (गुरू के माध्यम से ये समझ पड़ती है कि हरेक अंदर परमात्मा की ज्योति है)। (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ उसकी रजा में हो रहा है वह जीव को अच्छा लगे (प्रभू की रजा में चलना ही प्रभू की आरती करनी है)।3।

हे हरी! तेरे चरण-रूप कमल-पुष्प के रस के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इसी रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की बरकति) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।1।7।9।

नोट: अंक१– ‘आरती’ का विशेष एक शबद।
अंक ७– ‘घरु २’ ‘घरु ३’ के 7 शबद।

अंक ९– धनासरी में गुरू नानक देव जी के कुल शबदों की गिनती 9।

धनासरी महला ३ घरु २ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु धनु अखुटु न निखुटै न जाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अपुने सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ गुर किरपा ते हरि मंनि वसाई ॥१॥ से धनवंत हरि नामि लिव लाइ ॥ गुरि पूरै हरि धनु परगासिआ हरि किरपा ते वसै मनि आइ ॥ रहाउ ॥ अवगुण काटि गुण रिदै समाइ ॥ पूरे गुर कै सहजि सुभाइ ॥ पूरे गुर की साची बाणी ॥ सुख मन अंतरि सहजि समाणी ॥२॥ एकु अचरजु जन देखहु भाई ॥ दुबिधा मारि हरि मंनि वसाई ॥ नामु अमोलकु न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥ सभ महि वसै प्रभु एको सोइ ॥ गुरमती घटि परगटु होइ ॥ सहजे जिनि प्रभु जाणि पछाणिआ ॥ नानक नामु मिलै मनु मानिआ ॥४॥१॥ {पन्ना 663}

पद्अर्थ: अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। न निखुटै = खत्म नहीं होता। न जाइ = ना नाश होता है। सतिगुरि को = गुरू ने। कउ = को, से। सद = सदा। बलि जाई = बलि जाऊँ, सदके जाता हूँ। ते = साथ। मंनि = मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ।1।

से = वह (बहुवचन)। नामि = नाम में। लिव = लगन। लाइ = लगा के। गुरि = गुरू ने। परगासिआ = दिखा दिया। किरपा ते = कृपा से। मनि = मन में। रहाउ।

काटि = काट के, दूर करके। रिदै = हृदय में। समाइ = टिका देता है। गुर कै = गुरू के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। साची = सदा स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाली। सुख = आत्मिक आनंद (बहुवचन)। मन अंतरि = मन में।2।

अचरजु = हैरान करने वाला तमाशा। जन = हे जनो! भाई = हे भाई! दुबिधा = मन की डाँवां = डोल हालत, मेर तेर। मंनि = मन में। अमोलक = किसी भी कीमत में नहीं मिल सकता। परसादि = कृपा से। आइ = आ के।3।

सभ महि = सब जीवों में। सोइ = वही। गुरमति = गुरू की मति पर चलने से। घटि = हृदय में। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जाणि = सांझ डाल के। मानिआ = पतीज जाता है।4।

अर्थ: (हे भाई! जिन मनुष्यों के हृदय में) पूरे गुरू ने परमात्मा के नाम का धन प्रगट कर दिया, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में सुरति जोड़ के (आत्मिक जीवन के) शाह बन गए। हे भाई! ये नाम-धन परमात्मा की कृपा से मन में आ के बसता है। रहाउ।

हे भाई! ये नाम-खजाना कभी खत्म होने वाला नहीं, ना ही ये (खर्चने से) समाप्त होता है, ना ये गायब होता है। (इस धन की ये महानता मुझे) पूरे गुरू ने दिखा दी है। (हे भाई!) मैं अपने गुरू से सदके जाता हूं, गुरू की कृपा से परमात्मा (का नाम-धन अपने) मन में बसाता हूँ।1।

(हे भाई! गुरू की शरण आए मनुष्य के) अवगुण दूर करके परमात्मा की सिफत सालाह (उसके) हृदय में बसा देता है। (हे भाई!) पूरे गुरू की (उचारी हुई) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह वाली बाणी (मनुष्य के) मन में आत्मिक हुलारे पैदा करती है। (इस बाणी की बरकति से) आत्मिक अडोलता में समाई हुई रहती है।2।

हे भाई जनो! एक हैरान करने वाला तमाशा देखो। (गुरू मनुष्य के अंदर से) तेर-मेर हटा के परमात्मा (का नाम उसके) मन में बसा देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम अमोहक है, (किसी भी दुनियावी कीमत से) नहीं मिल सकता। (हाँ,) गुरू की कृपा से मन में आ बसता है।3।

(हे भाई! चाहे) परमात्मा खुद ही सबमें बसता है, (पर) गुरू की मति पर चलने से ही (मनुष्य के) हृदय में प्रकट होता है। हे नानक! आत्मिक अडोलता में टिक के जिस मनुष्य ने प्रभू के साथ गहरी सांझ डाल के (उसको अपने अंदर बसता) पहचान लिया है, उसे परमात्मा का नाम (सदा के लिए) प्राप्त हो जाता है, उसका मन (परमात्मा की याद में) पतीजा रहता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh