श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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टोडी महला ५ घरु ५ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ऐसो गुनु मेरो प्रभ जी कीन ॥ पंच दोख अरु अहं रोग इह तन ते सगल दूरि कीन ॥ रहाउ ॥ बंधन तोरि छोरि बिखिआ ते गुर को सबदु मेरै हीअरै दीन ॥ रूपु अनरूपु मोरो कछु न बीचारिओ प्रेम गहिओ मोहि हरि रंग भीन ॥१॥ पेखिओ लालनु पाट बीच खोए अनद चिता हरखे पतीन ॥ तिस ही को ग्रिहु सोई प्रभु नानक सो ठाकुरु तिस ही को धीन ॥२॥१॥२०॥ {पन्ना 716}

पद्अर्थ: गुनु = उपकार। पंच दोख = (कामादिक) पाँच विकार। अरु = और। अहं रोग = अहंकार का रोग। ते = से। सगल = सारे। रहाउ।

बंधन = फाहिआं। तोरि = तोड़ के। छोरि = छुड़ा के। बिखिआ = माया (के मोह) से। को = का। मेरै हीअरै = मेरे हृदय में। रूपु = सुहज। अनरूपु = कुहज। गहिओ = पकड़ लिया, बाँध दिया। मोहि = मुझे। रंगि = प्रेम रंग में। भीन = भिगो दिया।1।

लालनु = सुंदर लाल। पाट बीच = बीच के पर्दे। खोऐ = दूर करके। हरखे = खुशी में। पतीन = पतीज गया। ग्रिह = शरीर घर। ठाकुरु = मालिक। को धीन = का अधीन, का सेवक।2।

तिस ही: ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! मेरे प्रभू जी ने (मेरे पर) ऐसा उपकार कर दिया है, (कि) कामादिक पाँचों विकार और अहंकार का रोग- ये सारे उसने मेरे शरीर में से बाहर निकाल दिए हैं। रहाउ।

(हे भाई! मेरे प्रभू जी ने मेरी माया की) फाहियां तोड़ के (मुझे) माया (के मोह) से छुड़ा के गुरू का शबद मेरे हृदय में बसा दिया है। मेरा कोई सुहज कोई कुहज (कोई अच्छाई कोई बुराई), वह कुछ भी अपने मन में नहीं लाया। मुझे उसने अपने प्रेम से बाँध दिया है। अपने प्यार रंग में भिगो दिया है।1।

हे नानक! (कह– हे भाई!) अब जबकि बीच के पर्दे दूर करके मैंने सुंदर लाल को देखा है, तो मेरे चिक्त में आनंद पैदा हो गया है, मेरा मन खुशी से गद-गद हो उठा है। (अब मेरा ये शरीर) उसी का ही घर (बन गया है) वही (इस घर का) मालिक (बन गया है), उसी का ही मैं सेवक बन गया हूँ।2।1।20।

टोडी महला ५ ॥ माई मेरे मन की प्रीति ॥ एही करम धरम जप एही राम नाम निरमल है रीति ॥ रहाउ ॥ प्रान अधार जीवन धन मोरै देखन कउ दरसन प्रभ नीति ॥ बाट घाट तोसा संगि मोरै मन अपुने कउ मै हरि सखा कीत ॥१॥ संत प्रसादि भए मन निरमल करि किरपा अपुने करि लीत ॥ सिमरि सिमरि नानक सुखु पाइआ आदि जुगादि भगतन के मीत ॥२॥२॥२१॥ {पन्ना 716}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! ऐही = यही, ये प्रीत ही। करम धरम = धार्मिक कर्म (निहित तीर्थ स्नान आदि)। रीति = जीव मर्यादा। रहाउ।

प्रान अधार = जिंद का आसरा। मोरै = मेरे लिए। बाट = रास्ता। घाट = पक्तन। तोसा = राह का खर्च। संगि = साथ। कउ = के लिए। सखा = मित्र।1।

संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। करि = कर के। करि लीत = बना लिया है। सिमरि = सिमर के। नानक = हे नानक! आदि = शुरू से। जुगादि = जुगों के आरम्भ से।2।

अर्थ: हे माँ! (गुरू की कृपा से) मेरे मन में परमात्मा का प्यार पैदा हो गया है। मेरे लिए ये (तीर्थ-स्नान आदि निहित) धार्मिक कर्म ह,ै यही जप तप है। परमात्मा का नाम सिमरना ही जिंदगी को पवित्र करने का तरीका है। रहाउ।

हे माँ! (मेरी यही तमन्ना है कि) मुझे सदा प्रभू के दर्शन होते रहें - यही मेरी जिंद का सहारा है यही मेरे वास्ते सारी जिंदगी का (कमाया हुआ) धन है। रास्ते में, पक्तन पर (जिंदगी के सफर में हर जगह परमात्मा का प्यार ही) मेरे साथ राह का खर्च है। (गुरू की कृपा से) मैंने अपने मन के लिए परमात्मा को मित्र बना लिया है।1।

हे नानक! (कह–) गुरू की कृपा से जिनके मन पवित्र हो जाते हैं, परमात्मा मेहर करके उनको अपने (सेवक) बना लेता है। सदा परमात्मा का नाम सिमर के वे आत्मिक आनंद लेते हैं। आरम्भ से ही, जुगों की शुरूवात से ही, परमात्मा अपने भक्तों का मित्र है।2।2।21।

टोडी महला ५ ॥ प्रभ जी मिलु मेरे प्रान ॥ बिसरु नही निमख हीअरे ते अपने भगत कउ पूरन दान ॥ रहाउ ॥ खोवहु भरमु राखु मेरे प्रीतम अंतरजामी सुघड़ सुजान ॥ कोटि राज नाम धनु मेरै अम्रित द्रिसटि धारहु प्रभ मान ॥१॥ आठ पहर रसना गुन गावै जसु पूरि अघावहि समरथ कान ॥ तेरी सरणि जीअन के दाते सदा सदा नानक कुरबान ॥२॥३॥२२॥ {पन्ना 716}

पद्अर्थ: मेरे प्रान = हे मेरी जिंद (के मालिक)! निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। हीअरे ते = हृदय से। कउ = को। रहाउ।

खोवहु = नाश करो। भरमु = भटकना। राखु = रक्षा कर। प्रीतम = हे प्रीतम! सुघड़ = हे सोहाने! सुजान = हे सयाने! हे समझदार! कोटि राज = करोड़ों बादशाहियां। मेरै = मेरे वास्ते। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। द्रिसटि = निगाह। मान = मेरे मन पर, मेरे पर।1।

रसना = जीभ। जसु = सिफत सालाह। पूरि = भर के। अघावहि = तृप्त रहें। समरथ = हे समर्थ! कान = कान। जीअन के दाते = हे सब जीवों के दातार!।2।

अर्थ: हे प्रभू जी! हे मेरी जिंद (के मालिक)! (मुझे) मिल। आँख झपकने जितने वक्त के लिए भी मेरे हृदय को तू ना भूल। अपने भगत को ये पूरी दाति बख्श। रहाउ।

हे मेरे प्रीतम! हे अंतरजामी! हे सोहाने सुजान! मेरे मन की भटकना दूर कर, मेरी रक्षा कर। हे प्रभू! मेरे पर आत्मिक जीवन देने वाली निगाह कर। मेरे लिए तेरे नाम का धन करोड़ों बादशाहियों (के बराबर बना रहे)।1।

हे नानक! (कह–) हे सब ताकतों के मालिक! (मेहर कर) मेरी जीभ आठों पहर तेरे गुण गाती रहे, मेरे कान (अपने अंदर) तेरी सिफत सालाह भर के (इसी से) तृप्त रहें। हे सब जीवों के दातार! मैं तेरी शरण आया हूँ, मैं तुझसे सदा ही सदके जाता हूँ।2।3।22।

टोडी महला ५ ॥ प्रभ तेरे पग की धूरि ॥ दीन दइआल प्रीतम मनमोहन करि किरपा मेरी लोचा पूरि ॥ रहाउ ॥ दह दिस रवि रहिआ जसु तुमरा अंतरजामी सदा हजूरि ॥ जो तुमरा जसु गावहि करते से जन कबहु न मरते झूरि ॥१॥ धंध बंध बिनसे माइआ के साधू संगति मिटे बिसूर ॥ सुख स्मपति भोग इसु जीअ के बिनु हरि नानक जाने कूर ॥२॥४॥२३॥ {पन्ना 716}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! पग = चरण। धूरि = धूल। प्रीतम = हे प्रीतम! मन मोहन = हे मन को मोहने वाले! लोचा = तमन्ना। पूरि = पूरी कर। रहाउ।

दहदिस = दसों दिशाओं में, सारे संसार में। रवि रहिआ = पसरा हुआ। जसु = शोभा। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाले! हजूरि = अंग संग। गावहि = गाते हैं। करते = हे करतार! न मरते = आत्मिक मौत नहीं सहेड़ते। झूरि = (माया की खातिर) चिंता में झूर के।1।

धंध बंध = धंधों के बंधन। बिसूर = चिंता फिक्र। संपति = धन पदार्थ। जीअ के = जिंद के। कूर = झूठ, नाशवंत, झूठे।2।

अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! हे प्रीतम! हे मन मोहन! मेहर कर, मेरी तमन्ना पूरी कर, मुझे तेरे चरणों की धूड़ मिलती रहे। रहाउ।

हे अंतरजामी! तू सदा (सब जीवों के) अंग संग रहता है, तेरी शोभा सारे संसार में बिखरी रहती है। हे करतार! जो मनुष्य तेरी सिफत सालाह के गीत गाते रहते हैं, वे (माया की खातिर) चिंता-फिक्र कर कर के कभी भी आत्मिक मौत नहीं सहेड़ते।1।

हे नानक! (जो मनुष्य करतार के यश गाते रहते हैं) साध-संगति की बरकति से उनके सारे चिंता-फिक्र खत्म हो जाते हैं, (उनके वास्ते) माया के धंधों की फाहियां नाश हो जाती हैं। दुनिया के सुख, धन पदार्थ, इस जिंद को प्यारे लगने वाले मायावी पदाथों के भोग - परमात्मा के नाम के बिना वे मनुष्य इन सबको झूठे जानते हैं।2।4।23।

टोडी मः ५ ॥ माई मेरे मन की पिआस ॥ इकु खिनु रहि न सकउ बिनु प्रीतम दरसन देखन कउ धारी मनि आस ॥ रहाउ ॥ सिमरउ नामु निरंजन करते मन तन ते सभि किलविख नास ॥ पूरन पारब्रहम सुखदाते अबिनासी बिमल जा को जास ॥१॥ संत प्रसादि मेरे पूर मनोरथ करि किरपा भेटे गुणतास ॥ सांति सहज सूख मनि उपजिओ कोटि सूर नानक परगास ॥२॥५॥२४॥ {पन्ना 716}

पद्अर्थ: माई = हे माँ! सकउ = सकूँ। रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। मनि = मन में। धारी = बनाई। रहाउ।

सिमरउ = सिमरूँ, मैं सिमरता हूँ। निरंजन नामु = निरंजन का नाम। निरंजन = (निर+अंजन। अंजन = माया की कालिख) माया के प्रभाव से रहित। करते = करतार का। ते = से। सभि = सारे। किलविख = पाप। सुख दाते नामु = सुखों को देने वाले नाम। बिमल = पवित्र। जा को जास = जिसका यश।1।

संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। पूर = पूरे हो गए हैं। मनोरथ = मुरादें। भेटे = मिल गए हैं। गुणतास = गुणों के खजाने प्रभू जी। सहज = आत्मिक अडोलता। कोटि = करोड़ों। सूर = सूरज।2।

अर्थ: हे माँ! प्रीतम प्रभू (का दर्शन करने) के बिना मैं एक छिन भर भी रह नहीं सकता। मैंने अपने मन में उसके दर्शन करने के लिए आस बनाई हुई है। मेरे मन में ये प्यास (सदा टिकी रहती है)। रहाउ।

हे माँ! जिस अविनाशी प्रभू की सिफत सालाह (जीवों को) पवित्र (कर देती) है, उस निरंजन करतार का, उस पूर्ण पारब्रहम का, उस सुखदाते का नाम मैं (सदा) सिमरता रहता हूँ। (सिमरन की बरकति से, हे माँ) मन से, तन से, सारे पाप दूर हो जाते हैं।1।

हे नानक! (कह– हे माँ!) गुरू की कृपा से मेरी मुरादें पूरी हो गई हैं, गुणों के खजाने प्रभू जी मेहर करके (मुझे) मिल गए हैं। (मेरे) मन में शांति पैदा हो गई है, आत्मिक अडोलता के सुख पैदा हो गए हैं, (मानो) करोड़ों सूरजों का (मेरे अंदर) उजाला पैदा हो गया है।2।5।24।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh