श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 717 टोडी महला ५ ॥ हरि हरि पतित पावन ॥ जीअ प्रान मान सुखदाता अंतरजामी मन को भावन ॥ रहाउ ॥ सुंदरु सुघड़ु चतुरु सभ बेता रिद दास निवास भगत गुन गावन ॥ निरमल रूप अनूप सुआमी करम भूमि बीजन सो खावन ॥१॥ बिसमन बिसम भए बिसमादा आन न बीओ दूसर लावन ॥ रसना सिमरि सिमरि जसु जीवा नानक दास सदा बलि जावन ॥२॥६॥२५॥ {पन्ना 717} पद्अर्थ: पतित = (विकारों में) गिरे हुए, विकारी। पावन = पवित्र (करने वाला)। जीअ प्रान मान = जिंद का प्राणों का मान (आसरा)। को = का। मन को भावन = मन का प्यारा (जो भा जाए)। रहाउ। सुघड़ = बढ़िया (मानसिक) घाड़त वाला। चतुरु = सियाना। बेता = जानने वाला। रिद दास निवास = दासों के हृदय में निवास रखने वाला। अनूप = बहुत सुंदर, बेमिसाल। करम भूमि = शरीर, कर्म बीजने वाली धरती।1। बिसमन बिसम बिसमादा = बहुत ही हैरान। आन = अन्य। बीओ = दूसरा। लावन = बराबर। रसना = जीभ (से)। सिमरि = सिमर के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल करता हूँ। बलि = सदके।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा विकारियों को पवित्र करने वाला है। वह (सब जीवों के) जिंद-प्राणों का सहारा है, (सब को) सुख देने वाला है, (सबके) दिल की जानने वाला है, (सबके) मन का प्यारा है। रहाउ। हे भाई! परमात्मा सुंदर है, सुचॅजी घाड़त वाला है, सयाना है, सब कुछ जानने वाला है, अपने दासों के हृदय में निवास रखने वाला है, भगत उसके गुण गाते हैं। वह मालिक पवित्र-स्वरूप है, बेमिसाल है। उसका बनाया ये मानव-शरीर करम बीजने के लिए धरती है, जो कुछ जीव इसमें बीजते हैं, वही खाते हैं।1। हे नानक! (कह– हे भाई! उस परमात्मा के बारे में सोच के) बहुत ही आश्चर्य होता है। कोई भी और दूसरा उसके बराबर का नहीं है। उसके सेवक हमेशा उससे सदके जाते हैं। हे भाई! उसकी सिफत-सालाह (अपनी) जीभ से कर-कर के मैं (भी) आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा हूँ।2।6।25। टोडी महला ५ ॥ माई माइआ छलु ॥ त्रिण की अगनि मेघ की छाइआ गोबिद भजन बिनु हड़ का जलु ॥ रहाउ ॥ छोडि सिआनप बहु चतुराई दुइ कर जोड़ि साध मगि चलु ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी मानुख देह का इहु ऊतम फलु ॥१॥ बेद बखिआन करत साधू जन भागहीन समझत नही खलु ॥ प्रेम भगति राचे जन नानक हरि सिमरनि दहन भए मल ॥२॥७॥२६॥ {पन्ना 717} पद्अर्थ: माई = हे माँ! छलु = धोखा। त्रिण = तीले, तृण। मेघ = बादल। छाइआ = छाया। रहाउ। छोडि = छोड़ के। कर = (बहुवचन) हाथ। दुइ कर = दोनों हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मगि = रास्ते पर। चलु = चल। देहु = शरीर। ऊतम = सबसे अच्छा।1। बेद बखिआन = ज्ञान की व्याख्या, आत्मिक जीवन की समझ की व्याख्या। साधू जन = भले मनुष्य। खलु = मूर्ख। राचे = मस्त। सिमरनि = सिमरन से। मल = (कामादिक) पहलवान (बहुवचन)। दहन भऐ = जल जाते हैं।2। अर्थ: हे माँ! माया एक छलावा है (जो कोई रूप दिखा के जल्दी ही गुम हो जाता है)। परमात्मा के भजन के बिना (इस माया की पाया इतनी है जैसे) तिनकों की आग है, बादलों की छाया है, (नदी) की बहाड़ का पानी है। रहाउ। हे भाई! (माया के छलावे के धोखे से बचने के लिए) बहुती चालाकियां-समझदारियां छोड़ के, दोनों हाथ जोड़ के गुरू के (बताए हुए) रास्ते पर चला कर, अंतरजामी प्रभू का नाम सिमरा कर- मानस शरीर के लिए सबसे अच्छा फल यही है।1। हे भाई! भले मनुष्य आत्मिक जीवन की सूझ का यह उपदेश करते ही रहते हैं, पर अभागा मूर्ख मनुष्य (इस उपदेश) को नहीं समझता। हे नानक! प्रभू के दास प्रभू की प्रेमा-भगती में मस्त रहते हैं। परमात्मा के सिमरन की बरकति से (उनके अंदर से कामादिक) पहलवान जल के राख हो जो जाते हैं।27।26। टोडी महला ५ ॥ माई चरन गुर मीठे ॥ वडै भागि देवै परमेसरु कोटि फला दरसन गुर डीठे ॥ रहाउ ॥ गुन गावत अचुत अबिनासी काम क्रोध बिनसे मद ढीठे ॥ असथिर भए साच रंगि राते जनम मरन बाहुरि नही पीठे ॥१॥ बिनु हरि भजन रंग रस जेते संत दइआल जाने सभि झूठे ॥ नाम रतनु पाइओ जन नानक नाम बिहून चले सभि मूठे ॥२॥८॥२७॥ {पन्ना 717} पद्अर्थ: माई = हे माँ! भागि = किस्मत से। कोटि = करोड़ों। डीठे = देखने से। रहाउ। गावत = गाते हुए। अचुत = (अचुत्य। च्यु = गिर जाना) कभी ना गिरने वाला, कभी ना नाश होने वाला। मद = अहंकार। ढीठे = ढीठ। असथिर = स्थिर, अडोल। साच रंगि = सदा स्थिर प्रभू के प्रेम रंग में। बाहुरि = दोबारा। पीठे = पीठे जाते हैं।1। जेते = जितने भी हैं। संत दइआल = दया के घर गुरू (की कृपा से)। सभि = सारे। मूठे = ठगे हुए।2। अर्थ: हे माँ! गुरू के चरण (मुझे) प्यारे लगते हैं। (जिस मनुष्य को) बड़ी किस्मत से परमात्मा (गुरू के चरणों का मिलाप) देता है, गुरू के दर्शन करने से (उस मनुष्य को) करोड़ों (पुन्यों के) फल प्राप्त हो जाते हैं। रहाउ। हे माँ! (गुरू के चरणों में पड़ कर) अटल अविनाशी परमात्मा के गुण गाते-गाते बार-बार ढीठ बन कर आने वाले काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार) नाश हो जाते हैं। (गुरू के चरणों की बरकति से जो मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभू के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं वह (वे विकारों के हमलों के मुकाबले में) अडोल हो जाते हैं, वे जनम-मरन (की चक्की) में बार बार नहीं पीसे जाते।1। हे माँ! (जो मनुष्य गुरू के चरणों में लगते हैं, वह) दया के घर गुरू की कृपा से परमात्मा के भजन (के आनंद) के बिना और सारे ही (दुनियावी) स्वादों व तमाशों को झूठे जानते हैं। हे नानक! (कह–हे माँ!) परमात्मा के सेवक (गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का) रत्न (जैसा कीमती) नाम हासिल करते हैं। हरि नाम से टूटे हुए सारे ही जीव (अपना आत्मिक जीवन) लुटा के (जगत से) जाते हैं।2।8।27। टोडी महला ५ ॥ साधसंगि हरि हरि नामु चितारा ॥ सहजि अनंदु होवै दिनु राती अंकुरु भलो हमारा ॥ रहाउ ॥ गुरु पूरा भेटिओ बडभागी जा को अंतु न पारावारा ॥ करु गहि काढि लीओ जनु अपुना बिखु सागर संसारा ॥१॥ जनम मरन काटे गुर बचनी बहुड़ि न संकट दुआरा ॥ नानक सरनि गही सुआमी की पुनह पुनह नमसकारा ॥२॥९॥२८॥ {पन्ना 717} पद्अर्थ: साध संगि = गुरू की संगति में। सहजि = आत्मिक अडोलता के कारण। अंकुरु = (पिछले बीजे हुए कर्मों के) फल। रहाउ। भेटिओ = मिल गए। बड भागी = बड़ी किस्मत से। जा को = जिस (परमात्मा) का। पारावारा = पार अवार, परला उरला छोर। करु = (एकवचन) हाथ। गहि = पकड़ के। जनु अपुना = अपने सेवक को। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को समाप्त करने वाली माया के मोह का जहर।1। गुर बचनी = गुरू के वचनों से। संकट दुआरा = कष्टों (वाले चौरासी के चक्करों) का दरवाजा। गही = पकड़ी। पुनह पुनह = बार बार।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू की संगति में टिक के परमात्मा का नाम सिमरता रहता है (उसके अंदर आत्मिक अडोलता पैदा हो जाती है, उस) आत्मिक अडोलता के कारण (उसके अंदर) दिन रात (हर वक्त) आनंद बना रहता है। (हे भाई! साध-संगति की बरकति से) हम जीवों के पिछले किए कर्मों के भले अंकुर फूट पड़ते हैं। रहाउ। हे भाई! जिस परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, जिसकी हस्ती का इस पार उस पार का छोर नहीं मिल सकता, वह परमात्मा अपने उस सेवक को (उसका) हाथ पकड़ के संसार समुंद्र से बाहर निकाल लेता है, (जिस सेवक को) बड़ी किस्मत से पूरा गुरू मिल जाता है।1। हे भाई! गुरू के बचनों पर चलने से जनम-मरण में डालने वाली फाहियां कट जाती हैं, कष्टों भरे चौरासी के चक्करों का दरवाजा दोबारा नहीं देखना पड़ता। हे नानक! (कह– हे भाई! गुरू की संगति की बरकति से) मैंने भी मालिक-प्रभू का आसरा लिया है, मैं (उसके दर पर) बार बार सिर निवाता हूँ।2।9।27। टोडी महला ५ ॥ माई मेरे मन को सुखु ॥ कोटि अनंद राज सुखु भुगवै हरि सिमरत बिनसै सभ दुखु ॥१॥ रहाउ ॥ कोटि जनम के किलबिख नासहि सिमरत पावन तन मन सुख ॥ देखि सरूपु पूरनु भई आसा दरसनु भेटत उतरी भुख ॥१॥ चारि पदारथ असट महा सिधि कामधेनु पारजात हरि हरि रुखु ॥ नानक सरनि गही सुख सागर जनम मरन फिरि गरभ न धुखु ॥२॥१०॥२९॥ {पन्ना 717} पद्अर्थ: माई = हे माँ! को = का। कोटि = करोड़ों। भुगवै = भोगता है। सिमरत = सिमरते हुए।1। रहाउ। किलबिख = पाप। नासहि = नाश हो जाते हैं। पावन = पवित्र। देखि = देख के।1। चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। असट = आठ। महा सिधि = बड़ी करामाती ताकतें। कामधेनु = (काम = वासना। धेनु = गाय) स्वर्ग की वह गाय जो हरेक कामना पूरी कर देती है। पारजात = इन्द्र के बाग़ का पारजात वृक्ष जो मन मांगी मुरादें पूरी करता है। धुखु = धुक धुकी, चिंता।2। अर्थ: हे माँ! (परमात्मा का नाम सिमरते हुए) मेरे मन का सुख (इतना ऊँचा हो जाता है कि ऐसा प्रतीत होता है, जैसे मेरा मन) करोड़ों आनंद भोग रहा है; करोड़ों बादशाहियों का सुख ले रहा है। हे माँ! परमात्मा का नाम सिमरते हुए सारा दुख नाश हो जाता है।1। रहाउ। हे माँ! परमात्मा का नाम सिमरने से तन-मन पवित्र हो जाते हैं, आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, करोड़ों जन्मों के (किए हुए) पाप नाश हो जाते हैं। (सिमरन की बरकति से) प्रभू के दीदार करके (मन की हरेक) मुराद पूरी हो जाती है, दर्शन करते हुए (माया की) भूख दूर हो जाती है।1। हे माँ! चार पदार्थ (देने वाला), आठ बड़ी करामाती ताकतें (देने वाला) परमात्मा स्वयं ही है। परमात्मा खुद ही है कामधेनु; परमात्मा स्वयं ही है पारजात वृक्ष। हे नानक! (कह– हे माँ! जिस मनुष्य ने) सुखों के समुंद्र परमात्मा का आसरा ले लिया, उसको जनम-मरण के चक्कर का फिक्र, जूनियों में पड़ने की चिंता नहीं रहती।2।10।29। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |