श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 822 बिलावलु महला ५ ॥ हरि हरि नामु अपार अमोली ॥ प्रान पिआरो मनहि अधारो चीति चितवउ जैसे पान त्मबोली ॥१॥ रहाउ ॥ सहजि समाइओ गुरहि बताइओ रंगि रंगी मेरे तन की चोली ॥ प्रिअ मुखि लागो जउ वडभागो सुहागु हमारो कतहु न डोली ॥१॥ रूप न धूप न गंध न दीपा ओति पोति अंग अंग संगि मउली ॥ कहु नानक प्रिअ रवी सुहागनि अति नीकी मेरी बनी खटोली ॥२॥३॥८९॥ पद्अर्थ: अमोली = अमोलक, अमूल्य, जो किसी भी मूल्य में नहीं मिल सकता। प्रान पिआरो = जीवात्मा का प्यारा। मनहि अधारो = मन का आसरा। चीति = चिक्त में। चितवउ = मैं चितवती हूँ। तंबोली = पान बेचने वाली।1। रहाउ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गुरहि = गुरू ने। रंगि = प्रेम में। प्रिअ मुखि लागो = प्यारे के मुँह लगी, प्यारे का दर्शन हुआ। जउ = जब। कतहु = कहीं भी। डोली = डोलता है।1। गंध = सुगंधियां। दीपा = दीया। ओति पोति = ताने पेटे की तरह मिल गई। संगि = साथ। मउली = खिल उठी। प्रिअ = प्यारे ने। रवी = मेल का आनंद दिया। अति नीकी = बहुत सुंदर। खटोली = छोटी सी खाट, हृदय सेज।2। अर्थ: (हे सहेली!) बेअंत हरी का नाम किसी दुनियावी पदार्थ के बदले में नहीं मिल सकता। वह हरी का नाम मेरी जिंद का प्यारा बन गया है, मेरे मन का सहारा बन गया है। जैसे कोई पान बेचने वाली (अपने) पानों का ख्याल रखती है, वैसे ही मैं हरी-नाम को अपने चिक्त में चितारती रहती हूँ।1। रहाउ। (हे सखी!) जब गुरू ने मुझे (भेद) बता दिया, तो मैं आत्मिक अडोलता में लीन हो गई, अब मेरी शरीर चोली प्रभू के प्रेम रंग में रंगी गई है। जब से (गुरू की कृपा से) मेरे अहो भाग्य जाग उठे हैं तब से मुझे प्यारे के दर्शन हो रहे हैं। अब मेरा ये सोहाग (मेरे सिर से) दूर नहीं होएगा।1। (हे सखी!) ना कोई सुंदर पदार्थ, ना कोई धूप, ना सुगंधियाँ, ना दीए (-कोई भी ऐसे पदार्थ मैंने अपने पति देव के आगे भेटा नहीं किए। गुरू की कृपा से ही) मेरा स्वै प्रभू-पति के साथ एक-मेक हो गया है, उसके साथ मिल के मेरा मन खिल उठा है। हे नानक! कह- (हे सहेली!) प्यारे प्रभू ने मुझे सुहागिन बना के अपने साथ मिला लिया है, अब मेरी हृदय-सेज बहुत ही सुंदर बन गई है।2।3।89। बिलावलु महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद मई ॥ जब ते भेटे साध दइआरा तब ते दुरमति दूरि भई ॥१॥ रहाउ ॥ पूरन पूरि रहिओ स्मपूरन सीतल सांति दइआल दई ॥ काम क्रोध त्रिसना अहंकारा तन ते होए सगल खई ॥१॥ सतु संतोखु दइआ धरमु सुचि संतन ते इहु मंतु लई ॥ कहु नानक जिनि मनहु पछानिआ तिन कउ सगली सोझ पई ॥२॥४॥९०॥ {पन्ना 822} पद्अर्थ: गोबिंद मई = गोबिंद+मय, गोबिंद का रूप। जब ते = जब से। भेटे = मिले हैं। साध = गुरू। दइआरा = दयालु। दुरमति = खोटी मति।1। रहाउ। पूरि रहिओ = व्यापक है, हर जगह मौजूद है। सीतल = ठंड देने वाला। दई = दय, प्यारा। तन ते = शरीर से। खई = नाश हो गए।1। सतु = दान, सेवा। सुचि = आत्मिक पवित्रता। संतन ते = संत जनों से। मंतु = उपदेश। जिनि = जिस जिस ने। मनहु = मन से। पछानिआ = सांझ डाली। सगली = सारी।2। अर्थ: हे भाई! जब से (किसी मनुष्य को) दया का श्रोत गुरू मिल जाता है, तब से (उसके अंदर से) खोटी मति दूर हो जाती है, सदा गोबिंद का नाम सिमर-सिमर के वह गोबिंद का ही रूप हो जाता है।1। रहाउ। (हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरू मिल जाता है तब उसे निश्चय हो जाता है कि) दया और शांति का पुँज सारे गुणों से भरपूर प्यारा प्रभू हर जगह व्यापक है। (सिमरन की बरकति से) उसके शरीर में से काम-क्रोध-तृष्णा-अहंकार आदि सारे विकार नाश हो जाते हैं।1। (हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरू मिल जाता है, वह) सेवा, संतोख, दया, धर्म, पवित्र जीवन (अपने अंदर पैदा करने का) यह उपदेश संतजनों से ग्रहण करता है। हे नानक! कह- जिस जिस मनुष्य ने अपने मन के द्वारा (गुरू के साथ) सांझ बनाई, उन्हें (ऊँचे आत्मिक जीवन की) सारी समझ आ गई।2।4।90। बिलावलु महला ५ ॥ किआ हम जीअ जंत बेचारे बरनि न साकह एक रोमाई ॥ ब्रहम महेस सिध मुनि इंद्रा बेअंत ठाकुर तेरी गति नही पाई ॥१॥ किआ कथीऐ किछु कथनु न जाई ॥ जह जह देखा तह रहिआ समाई ॥१॥ रहाउ ॥ जह महा भइआन दूख जम सुनीऐ तह मेरे प्रभ तूहै सहाई ॥ सरनि परिओ हरि चरन गहे प्रभ गुरि नानक कउ बूझ बुझाई ॥२॥५॥९१॥ {पन्ना 822} पद्अर्थ: बरनि न साकह = हम बयान नहीं कर सकते। साकह = (वर्तमान काल, उक्तम पुरुष, बहुवचन) सकते। रोमाई = रोम जितना भी। महेस = शिव। सिध = सिद्ध योगी। मुनि = समाधियां लगाए बैठे ऋषि जन। ठाकुर = हे ठाकुर! गति = हालत। तेरी गति नही पाई = तू कैसा है इस बात की समझ नहीं आ सकी।1। किआ कथीअै = क्या बताएं? जह जह = जहाँ जहॉ। मैं देखता हूँ।1। रहाउ। जह = जहाँ। भइआन = भयानक। दूख जम = जमों के दुख। तह = वहाँ। प्रभ = हे प्रभू! गहे = पकड़े। गुरि = गुरू ने। कउ = को। बूझ बुझाई = समझ दी है।2। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा कैसा है? - ये बात) क्या बताएं? बताई नहीं जा सकती। मैं तो जिधर देखता हूँ, उधर परमात्मा ही सब जगह मौजूद है।1। रहाउ। हे मेरे मालिक! (हम जीव तेरे पैदा किए हुए हैं) हम बिचारे जीवों की कोई बिसात ही नहीं कि तेरी बाबत एक रोम जितना भी कुछ कह सकें। (हम साधारण जीव तो किसी गिनती में ही नहीं) ब्रहमा, शिव, सिद्ध, मुनी, इन्द्र (आदि जैसे) बेअंत ये समझ नहीं सके कि तू कैसा है।1। हे मेरे प्रभू! जहाँ ये सुना जाता है कि जमों के बड़े ही भयानक दुख मिलते हैं, वहीं तू ही (बचाने के लिए) मददगार है- गुरू ने (मुझे) नानक को यह समझ दी है। तभी मैं नानक तेरी शरण आ पड़ा हूँ, तेरे चरण पकड़ लिए हैं।2।5।91। बिलावलु महला ५ ॥ अगम रूप अबिनासी करता पतित पवित इक निमख जपाईऐ ॥ अचरजु सुनिओ परापति भेटुले संत चरन चरन मनु लाईऐ ॥१॥ कितु बिधीऐ कितु संजमि पाईऐ ॥ कहु सुरजन कितु जुगती धिआईऐ ॥१॥ रहाउ ॥ जो मानुखु मानुख की सेवा ओहु तिस की लई लई फुनि जाईऐ ॥ नानक सरनि सरणि सुख सागर मोहि टेक तेरो इक नाईऐ ॥२॥६॥९२॥ {पन्ना 822} पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। अगम रूप = अपहुँच हस्ती वाला। पतित पवित = विकारियों को पवित्र करने वाला। निमख = (निमेष) आँख झपकने जितना समय। इक निमख = एक एक पल, हर वक्त। जपाईअै = जपना चाहिए। परापति = मिलाप। भेटुले = मिलने पर। चरन = चरणों में।1। कितु बिधीअै = किसी बिधि से? कितु संजमि = किस संजम से? कितु = (शब्द 'किसु' का कर्ण कारक) किसके द्वारा? संजम = संयम। सुरजन = हे भले पुरुख! कहु = बताओ। कितु जुगती = किस तरीके से?।1। रहाउ। जो मानुखु मानुख की (शब्द 'मानुखु' और 'मानुख' का व्याकर्णिक फर्क याद रखने योग्य है)। तिस की = उस की (की हुई सेवा) ('तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'की' के कारण हटा दी गई है)। लई लई जाईअै = लिए ही जाता है, सदा याद रखता है। सुख सागर = सुखों का समुंद्र। मोहि = मुझे। इक नाईअै = एक नाम की, सिर्फ नाम की। फुनि = दोबारा, बार बार।2। अर्थ: हे भले पुरुष! (मुझे) बताओ कि परमात्मा को किस तरीके से सिमरना चाहिए। किस बिधि से, किस संजम से वह मिल सकता है?।1। रहाउ हे भाई! विकारियों को पवित्र करने वाले, अपहुँच हस्ती वाले नाश-रहित करतार को हर पल जपते रहना चाहिए। ये सुनते हैं कि वह आश्चर्य है आश्चर्य है, (उससे) मिलाप हो जाता है अगर संतजनों के चरणों से मिलाप प्राप्त हो जाए। (तो संतजनों के) चरणों में मन जोड़ना चाहिए।1। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) जो मनुष्य किसी और मनुष्य की (कोई) सेवा करता है वह उसकी की हुई सेवा को सदा ही बार-बार याद करता रहता है; पर हे प्रभू! तू सुखों का समुंद्र है (तू अनेकों ही सुख बख्शता है इस वास्ते) मैं सदा तेरी ही शरण तेरी ही शरण पड़ा रहूँगा, मुझे सिर्फ तेरे नाम का ही सहारा है।2।6।92। बिलावलु महला ५ ॥ संत सरणि संत टहल करी ॥ धंधु बंधु अरु सगल जंजारो अवर काज ते छूटि परी ॥१॥ रहाउ ॥ सूख सहज अरु घनो अनंदा गुर ते पाइओ नामु हरी ॥ ऐसो हरि रसु बरनि न साकउ गुरि पूरै मेरी उलटि धरी ॥१॥ पेखिओ मोहनु सभ कै संगे ऊन न काहू सगल भरी ॥ पूरन पूरि रहिओ किरपा निधि कहु नानक मेरी पूरी परी ॥२॥७॥९३॥ {पन्ना 822-823} पद्अर्थ: संत सरणि = गुरू की शरण। करी = (जब) मैंने की। धंधु = धंधा। बंधु = बंधन। अरु = और। जंजारो = जंजाल। काज ते = कामों से। छूटि परी = (मेरी बिरती) छूट गई।1। सहज = आत्मिक अडोलता। घनो = घणो, बहुत। ते = से। अैसो = ऐसे। बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। गुरि = पूरे गुरू ने। मेरी = मेरी बिरती। उलटि धरी = (माया की ओर से) पलटा दी।1। पेखिआ = मैंने देख लिया। मोहनु = सुंदर प्रभू (देखें मूल पंना 248। वहाँ भी प्रभू का ही जिकर है, बाबा मोहन जी का नहीं)। कै संगे = के साथ। ऊन = कमी, ऊणा, खाली। सगल = सारी सृष्टि। किरपा निधि = कृपा के खजाने प्रभू। नानक = हे नानक! पूरी परी = मेरी मेहनत सफल हो गई।2। अर्थ: हे भाई! जब मैं गुरू की शरण आ पड़ा, जब मैं गुरू की सेवा करने लग पड़ा, (मेरे अंदर से) धंधा, बंधन और सारा जंजाल (समाप्त हो गए), मेरी बिरती और और काम से मुक्त हो गई।2। हे भाई! गुरू से मैंने परमात्मा का नाम प्राप्त हासिल कर लिया (जिसकी बरकति से) आत्मिक अडोलता का सुख और आनंद (मेरे अंदर उत्पन्न हो गया)। हरी-नाम का स्वाद मुझे ऐसा आया कि मैं वह बयान नहीं कर सकता। गुरू ने मेरी बिरती माया की तरफ से पलट दी।1। हे भाई! (गुरू की कृपा से) सुंदर प्रभू को मैंने सबमें बसता देख लिया है, कोई भी जगह उस प्रभू से वंचित नहीं दिखती, सारी ही सृष्टि प्रभू की जीवन-रौंअ से भरपूर दिखाई दे रही है। कृपा के खजाने परमात्मा हर जगह पूर्ण तौर पर व्यापक दिख रहे हैं। हे नानक! कह- (हे भाई! गुरू की मेहर से) मेरी मेहनत सफल हो गई है।2।7।93। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |