श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ मन किआ कहता हउ किआ कहता ॥ जान प्रबीन ठाकुर प्रभ मेरे तिसु आगै किआ कहता ॥१॥ रहाउ ॥ अनबोले कउ तुही पछानहि जो जीअन महि होता ॥ रे मन काइ कहा लउ डहकहि जउ पेखत ही संगि सुनता ॥१॥ ऐसो जानि भए मनि आनद आन न बीओ करता ॥ कहु नानक गुर भए दइआरा हरि रंगु न कबहू लहता ॥२॥८॥९४॥ {पन्ना 823}

पद्अर्थ: मन = हे (मेरे) मन! हउ = जीव। जान = जाननहार। प्रबीन = समझदार। तिसु आगै = उस (प्रभू) के सामने।1। रहाउ।

अनबोले = ना बोले हुए बोल को। जीअन = दिलों में। काइ = क्यों? कहा लउ = कब तक? डहकहि = तू ठॅगी करेगा। जउ = जब। संगि = साथ।1।

जानि = जान के। मनि = मन में। आन = अन्य, कई और। बीओ = दूसरा। दइआरा = दयावान।2।

अर्थ: हे मन! तू क्या कह रहा है? हे जीव! तू क्या कहता है? मेरे ठाकुर प्रभू जी तो सब जीवों के दिलों की जानने वाले और समझने वाले हैं। हे जीव! उसके आगे कोई (ठॅगी-फरेब की) बात नहीं कही जा सकती।1। रहाउ।

हे प्रभू! जो हम जीवों के दिलों में होता है, उसको बताए बिना तू खुद ही (पहले ही) पहचान लेता है। हे मन! तू क्यों ठॅगी करता है? कब तक ठॅगी किए जाएगा? परमात्मा तो तेरे साथ (बसता हुआ तेरे कर्म) देख रहा है, और, सुन भी रहा है।1।

हे भाई! यह जान के कि, परमात्मा के बिना और दूसरा कुछ भी करने के योग्य नहीं, (जानने वाले के) मन में हिलौरे पैदा हो जाते हैं। हे नानक! कह- जिस मनुष्य पर गुरू मेहरवान होता है (उसके दिल में से) परमात्मा का प्रेम-रंग कभी नहीं उतरता।2।8।94।

बिलावलु महला ५ ॥ निंदकु ऐसे ही झरि परीऐ ॥ इह नीसानी सुनहु तुम भाई जिउ कालर भीति गिरीऐ ॥१॥ रहाउ ॥ जउ देखै छिद्रु तउ निंदकु उमाहै भलो देखि दुख भरीऐ ॥ आठ पहर चितवै नही पहुचै बुरा चितवत चितवत मरीऐ ॥१॥ निंदकु प्रभू भुलाइआ कालु नेरै आइआ हरि जन सिउ बादु उठरीऐ ॥ नानक का राखा आपि प्रभु सुआमी किआ मानस बपुरे करीऐ ॥२॥९॥९५॥ {पन्ना 823}

पद्अर्थ: झरि = झड़ के, गिर के। परीअै = नीचे गिर पड़ता है, आत्मिक मौत के गढे में जा पड़ता है। भाई = हे भाई! नीसानी = लक्षण। कालर भीति = कॅलर की दीवार।1।

जउ = जब। छिद्रु = नुक्स। तउ = तब। उमाहै = खुश होता है। भलो = (किसी की) भलाई। चितवै = (किसी के नुकसान करने की) सोच सोचता रहता है। नही पहुचै = (बुराई करने तक) पहुँच नहीं सकता। मरीअै = आत्मिक मौत मर जाता है।1।

कालु = मौत, आत्मिक मौत। सिउ = साथ। बादु = झगड़ा। बपुरे = बिचारे।2।

अर्थ: हे भाई! सुन, कॅलर की दीवार (किर किर के) गिर जाती है, यही निशानी निंदक के जीवन की है। निंदक भी इसी तरह आत्मिक उच्चता से गिर जाता है (निंदा उसके आत्मिक जीवन को, मानो, कल्लर लगा हुआ है)।1। रहाउ।

हे भाई! जब (कोई) निंदक (किसी मनुष्य में कोई) खामी देखता है तब वह खुश होता है, पर किसी के गुण देख के निंदक दुखी होता है। आठों पहर (हर वक्त) निंदक किसी के साथ बुराई करने की सोचें सोचता रहता है, बुराई कर सकने तक पहुँच तो सकता नहीं, बुराई की बिउंत सोचते-सोचते ही आत्मिक मौत मर जाता है।2।

हे भाई! निंदक को ज्यों-ज्यों प्रभू (निंदा वाले) गलत रास्ते पर डालता है, त्यों त्यों निंदक की मुकम्मल आत्मिक मौत नजदीक आती जाती है, वह निंदक संत जनों से वैर लिए रहता है। पर, हे नानक! संतजनों का रखवाला मालिक-प्रभू खुद ही है। बिचारे जीव उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते।2।9।95।

बिलावलु महला ५ ॥ ऐसे काहे भूलि परे ॥ करहि करावहि मूकरि पावहि पेखत सुनत सदा संगि हरे ॥१॥ रहाउ ॥ काच बिहाझन कंचन छाडन बैरी संगि हेतु साजन तिआगि खरे ॥ होवनु कउरा अनहोवनु मीठा बिखिआ महि लपटाइ जरे ॥१॥ अंध कूप महि परिओ परानी भरम गुबार मोह बंधि परे ॥ कहु नानक प्रभ होत दइआरा गुरु भेटै काढै बाह फरे ॥२॥१०॥९६॥ {पन्ना 823}

पद्अर्थ: अैसे = इस तरह। काहे = क्यों? भूलि परे = (जीव) भूले पड़े हैं, गलत राह पर पड़े हुए हैं। करहि करावहि = (जीव सब कुछ) करते कराते हैं। पेखत = देखता। संगि = साथ।1। रहाउ।

काच = काँच। बिहाझन = खरीदना, व्यापार करना। कंचन = सोना। हेतु = प्यार। खरे साजन = सच्चे मित्र। होवनु = जो सदा कायम है, परमात्मा। कउरा = कौड़ा। अनहोवन = जो सदा रहने वाला नहीं, जगत। बिखिआ = माया। जरे = जलते हैं, खिझते हैं।1।

अंध कूप महि = अंधे कूएं में। भरमु = भटकना। गुबार = अंधेरा। बंधि = बंधन में। दइआरा = दइआल। भेटै = मिलता है। फरे = पकड़े।2।

अर्थ: (हे भाई! पता नहीं जीव) क्यों इस तरह गलत राह पर पड़े रहते हैं। (जीव सारे बुरे कर्म) करते कराते भी हैं, (फिर) मुकर भी जाते हैं (कि हमने नहीं किए)। पर परमात्मा सदा सब जीवों के साथ बसता (सबकी करतूतें) देखता-सुनता है।1। रहाउ।

हे भाई! काँच का व्यापार करना, सोना छोड़ देना, सच्चे मित्र त्याग के वैरी से प्यार- (ये हैं जीवों की करतूतें)। परमात्मा (का नाम) कड़वा लगना, माया का मोह मीठा लगना (- यह है जीवों का नित्य का स्वभाव। माया के मोह में फस के सदा खिजते रहते हैं)।1।

हे भाई! जीव (सदा) मोह के अंधे (अंधेरे) कूएं में पड़े रहते हैं, (जीवों को सदा) भटकना लगी रहती है, मोह के अंधेरे जकड़ में फसे रहते हैं (पता नहीं ये क्यों इस तरह गलत रास्ते पर पड़े रहते हैं)। हे नानक! कह- जिस मनुष्य पर प्रभू दयावान होता है, उसे गुरू मिल जाता है (और, उस गुरू की) बाँह पकड़ के (उसको अंधेरे कूएं में से) निकाल लेता है।2।10।96।

बिलावलु महला ५ ॥ मन तन रसना हरि चीन्हा ॥ भए अनंदा मिटे अंदेसे सरब सूख मो कउ गुरि दीन्हा ॥१॥ रहाउ ॥ इआनप ते सभ भई सिआनप प्रभु मेरा दाना बीना ॥ हाथ देइ राखै अपने कउ काहू न करते कछु खीना ॥१॥ बलि जावउ दरसन साधू कै जिह प्रसादि हरि नामु लीना ॥ कहु नानक ठाकुर भारोसै कहू न मानिओ मनि छीना ॥२॥११॥९७॥ {पन्ना 823}

पद्अर्थ: हरि चीना = हरि चीन्हा, प्रभू से सांझ डाल ली। रसना = जीभ। मो कउ = मुझे। गुरि = गुरू ने।1। रहाउ।

इआनप = बेसमझी। ते = से। दाना = जानने वाला। बीना = देखने वाला। देइ = दे के। कउ = को। खीना = नुकसान।1।

जावउ = जाऊँ। बलि जावउ = मैं सदके जाता हूँ। साधू = गुरू। जिह प्रसादि = जिस (गुरू) की कृपा से। मनि = मन में। छीना = एक छिन भर भी। कहु = किसी और को।

अर्थ: (हे भाई! मेरे) गुरू ने मुझे सारे (ही) सुख दे दिए हैं, मेरे फिक्र-अंदेशे मिट गए हैं, मेरे अंदर आनंद ही आनंद बन गया है (क्योंकि गुरू की कृपा से) मेरे मन मेरे तन मेरी जीभ ने परमात्मा के साथ सांझ डाल ली है।1। रहाउ।

हे भाई! बेसमझी की जगह मेरे अंदर अब समझदारी पैदा हो गई है (क्योंकि गुरू की कृपा से मुझे विश्वास हो गया है कि) परमात्मा (सब दिलों की) जानने वाला है (सबके किए काम) देखने वाला है। (मुझे निश्चय हो गया है कि) परमात्मा अपने सेवकों को आप हाथ दे के बचा लेता है, कोई भी मनुष्य (सेवक का) कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

हे भाई! मैं गुरू के दर्शनों से सदके जाता हूँ, क्योंकि उस गुरू की कृपा से (ही) मैं परमात्मा का नाम जप सका हूँ। हे नानक! कह- (अब) परमात्मा के भरोसे पर किसी और (के आसरे) को एक पल के लिए भी अपने मन में नहीं मानता।2।11।97।

बिलावलु महला ५ ॥ गुरि पूरै मेरी राखि लई ॥ अम्रित नामु रिदे महि दीनो जनम जनम की मैलु गई ॥१॥ रहाउ ॥ निवरे दूत दुसट बैराई गुर पूरे का जपिआ जापु ॥ कहा करै कोई बेचारा प्रभ मेरे का बड परतापु ॥१॥ सिमरि सिमरि सिमरि सुखु पाइआ चरन कमल रखु मन माही ॥ ता की सरनि परिओ नानक दासु जा ते ऊपरि को नाही ॥२॥१२॥९८॥ {पन्ना 823-824}

पद्अर्थ: गुरि = गुरू ने। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। रिदे महि = हृदय में।1। रहाउ।

निवरे = दूर हो गए हैं। दूत = (कामादिक) दुश्मन। बैराई = वैरी। कहा करै = क्या कर सकता है? कुछ बिगाड़ नहीं सकता। परतापु = ताकत।1।

रखु = टेक, आसरा। माही = में। ता की = उस (प्रभू) की। जा ते ऊपरि = जिससे बड़ा।2।

अर्थ: (हे भाई! विकारों से मुकाबले में) पूरे गुरू ने मेरी इज्जत रख ली है। गुरू ने आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल हरी-नाम मेरे हृदय में बसा दिया है, (उस नाम की बरकति से) अनेकों जन्मों के किए कर्मों की मैल मेरे मन में से दूर हो गई है।1। रहाउ।

हे भाई! पूरे गुरू का बताया हुआ हरी-नाम का जाप जब से मैंने जपना शुरू किया है, (कामादिक) सारे वैरी दुर्जन भाग गए हैं। मेरे प्रभू की बड़ी ताकत है, अब (इनमें से) कोई भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता।1।

(हे भाई! गुरू की किरपा से परमात्मा के सोहणे चरण) मेरे मन में आसरा बन गए हैं, उसका नाम (हर वक्त) सिमर-सिमर के मैंने आत्मिक आनंद प्राप्त किया है। हे भाई! (प्रभू का) दास नानक उस (प्रभू) की शरण पड़ गया है जिससे बड़ा और कोई नहीं।2।12।98।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh