श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 824 बिलावलु महला ५ ॥ सदा सदा जपीऐ प्रभ नाम ॥ जरा मरा कछु दूखु न बिआपै आगै दरगह पूरन काम ॥१॥ रहाउ ॥ आपु तिआगि परीऐ नित सरनी गुर ते पाईऐ एहु निधानु ॥ जनम मरण की कटीऐ फासी साची दरगह का नीसानु ॥१॥ जो तुम्ह करहु सोई भल मानउ मन ते छूटै सगल गुमानु ॥ कहु नानक ता की सरणाई जा का कीआ सगल जहानु ॥२॥१३॥९९॥ {पन्ना 824} पद्अर्थ: जपीअै = जपना चाहिए। जरा = बुढ़ापा। मरा = मौत। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकते। आगै = आगे, परलोक में।1। रहाउ। आपु = स्वैभाव। परीअै = पड़ना चाहिए। ते = से। निधानु = खजाना। कटीअै = काट सकते हैं। नीसानु = राहदारी, परवाना।1। मानउ = मानूँ, मानता हूँ। मन ते = मन से। छूटै = खत्म हो जाता है। गुमानु = अहंकार। ता की = उस (प्रभू) की। सगल = सारा।2। अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपना चाहिए, (नाम जपने की बरकति से ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है, जिसको) बुढ़ापा, मौत अथवा दुख कुछ भी छू नहीं सकते। आगे भी परमात्मा की हजूरी में भी सफलता ही मिलती है।1। रहाउ। (पर, हे भाई!) ये (नाम-) खजाना गुरू से (ही) मिलता है, स्वैभाव त्याग के सदा (गुरू की) शरण पड़ना चाहिए। ये नाम सदा-स्थिर प्रभू की हजूरी में पहुँचने के लिए परवाना है, (नाम की सहायता से) जनम-मरन की फाही (भी) काटी जाती है।1। (हे भाई! अगर मुझे तेरा नाम मिल जाए, तो) जो कुछ तू करता है, वह मैं भला समझने लग जाऊँगा, (तेरे नाम की बरकति से) मन से सारा अहंकार समाप्त हो जाता है। हे नानक! कह (-हे भाई!) उस परमात्मा की शरण पड़े रहना चाहिए, जिसका पैदा किया हुआ सारा जहान है।2।13।99। बिलावलु महला ५ ॥ मन तन अंतरि प्रभु आही ॥ हरि गुन गावत परउपकार नित तिसु रसना का मोलु किछु नाही ॥१॥ रहाउ ॥ कुल समूह उधरे खिन भीतरि जनम जनम की मलु लाही ॥ सिमरि सिमरि सुआमी प्रभु अपना अनद सेती बिखिआ बनु गाही ॥१॥ चरन प्रभू के बोहिथु पाए भव सागरु पारि पराही ॥ संत सेवक भगत हरि ता के नानक मनु लागा है ताही ॥२॥१४॥१००॥ {पन्ना 824} पद्अर्थ: मन तन अंतरि = मन अंतर तन अंतर। आही = है, बसता है। गावत = गाते हुए। रसना = जीभ।1। रहाउ। कुल समूह = सारी कुलें। उधरे = (संसार समुंद्र से) बच निकलती हैं, उद्धार हो जाता है। भीतरि = में। सिमरि = सिमर के। सेती = साथ। बिखिआ = माया। बनु = जंगल। गाही = नाप ली, थाह पा ली, गाह ली।1। बोहिथु = जहाज। भव सागरु = संसार समुंद्र। पराही = पड़े, पड़ जाते हैं, पार हो जाते हैं। ता के = उस (प्रभू) के। ताही = उस (प्रभू) में ही।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के मन में तन में (हृदय में) (सदा) प्रभू बसता है, प्रभू के गुण गाते हुए, दूसरे की भलाई की बातें हमेशा करते हुए, उस मनुष्य की जीभ अमल्य हो जाती है।1। रहाउ। हे भाई! अपने मालिक प्रभू का नाम सदा सिमर के (सिमरन करने वाले संत-भगत) माया (के संसार-) जंगल से बड़े ही मजे पार लांघ जाते हैं, वे अपनी जन्मों-जन्मों के किए कर्मों की मैल उतार लेते हैं, उनकी सारी कुलें भी छिन में (संसार-जंगल में से) बच के निकल जाती हैं।1। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के चरणों का जहाज़ प्राप्त कर लेते हैं, वे संसार-समुंद्र से पार लांघ जाते हैं। हे नानक! वही मनुष्य उस प्रभू के संत हैं, भगत हैं, सेवक हैं। उनका मन उस प्रभू में ही सदा टिका रहता है।2।14।100। बिलावलु महला ५ ॥ धीरउ देखि तुम्हारे रंगा ॥ तुही सुआमी अंतरजामी तूही वसहि साध कै संगा ॥१॥ रहाउ ॥ खिन महि थापि निवाजे ठाकुर नीच कीट ते करहि राजंगा ॥१॥ कबहू न बिसरै हीए मोरे ते नानक दास इही दानु मंगा ॥२॥१५॥१०१॥ {पन्ना 824} पद्अर्थ: धीरउ = मेरे मन को धैर्य आ जाता है। देखि = देख के। रंगा = करिश्मे। सुआमी = मालिक। अंतरजामी = दिलों की जानने वाले। वसहि = बसता है। कै संगा = के साथ।1। रहाउ। थापि = स्थापित करके, शाबाशी दे के। निवाजे = आदर सम्मान वाले बना दिए। ठाकुर = हे ठाकुर! कीट ते = कीड़े से। करहि = तू कर देता है। राजंगा = राजा।1। कब हू = कभी भी। हीऐ ते = हृदय से। मंगा = मैं माँगता हूँ।2। अर्थ: हे प्रभू! तेरे चोज-तमाशे देख-देख के मुझे (भी) हौसला बन रहा है (कि तू मेरी भी सहायता करेगा)। तू ही (हमारा) मालिक है, तू ही हमारे दिलों की जानने वाला है, तू ही (हरेक) साधु-जन के साथ बसता है।1। रहाउ। हे मालिक! तू नीच कीड़ों (जैसे नाचीज़ बंदों) को राजा बना देता है। तू एक छिन में ही (नीच लोगों को) थापणा दे के आदर-सम्मान वाले बना देता है।1। हे दास नानक! (कह-हे प्रभू! मेहर कर, तेरा नाम) मेरे हृदय में से कभी ना भूले। (तेरे दर से) मैं ख़ैर माँगता हूँ।2।15।101। बिलावलु महला ५ ॥ अचुत पूजा जोग गोपाल ॥ मनु तनु अरपि रखउ हरि आगै सरब जीआ का है प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ ॥ सरनि सम्रथ अकथ सुखदाता किरपा सिंधु बडो दइआल ॥ कंठि लाइ राखै अपने कउ तिस नो लगै न ताती बाल ॥१॥ दामोदर दइआल सुआमी सरबसु संत जना धन माल ॥ नानक जाचिक दरसु प्रभ मागै संत जना की मिलै रवाल ॥२॥१६॥१०२॥ {पन्ना 824} पद्अर्थ: अचुत = अचुत्य, कभी नाश ना होने वाला। पूजा जोग = पूजा के काबिल। गोपाल = धरती का रखवाला। अरपि = भेटा करके। रखउ = मैं रखूँ। प्रतिपाल = पालना करने वाला।1। रहाउ। सरनि सम्रथ = शरण आए की सहायता करने योग्य। अकथ = जिसके स्वरूप का बयान ना किया जा सके। सिंधु = समुंद्र। कंठि = गले से। कउ = को। ताती बाल = गर्म हवा, सेक।1। तिस नो: 'तिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'नो' के कारण हटा दी गई है। दामोदर = (दामन उदर) परमात्मा। सरबसु = (सर्वस्व = सारा धन पदार्थ) सब कुछ। जाचिक = मंगता। प्रभ = हे प्रभू! रवाल = चरण धूड़।2। अर्थ: हे भाई! धरती का रखवाला और अबिनाशी प्रभू ही पूजा का हकदार है। मैं अपना मन और अपना तन भेटा करके उस प्रभू के आगे (ही) रखता हूँ। वह प्रभू सारे जीवों को पालने वाला है।1। रहाउ। हे भाई! प्रभू शरण पड़े जीव की रक्षा करने के समर्थ है, उसके स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता, वह सारे सुखों को देने वाला है, कृपा का समुंद्र है, बड़ा ही दयालु है। वह प्रभू अपने (सेवक) को अपने गले से लगा के रखता है, (फिर) उस (सेवक) को कोई दुख-कलेश रक्ती भर भी छू नहीं सकता।1। हे भाई! परमात्मा दया का घर है, सबका मालिक है, संतजनों के वास्ते वही धन माल है और सब कुछ है। उस प्रभू (के दर) का मंगता नानक उसके दर्शन की खैर माँगता है (और अरजोई करता है कि उसके) संत जनों के चरणों की धूल मिल जाएं2।16।102। बिलावलु महला ५ ॥ सिमरत नामु कोटि जतन भए ॥ साधसंगि मिलि हरि गुन गाए जमदूतन कउ त्रास अहे ॥१॥ रहाउ ॥ जेते पुनहचरन से कीन्हे मनि तनि प्रभ के चरण गहे ॥ आवण जाणु भरमु भउ नाठा जनम जनम के किलविख दहे ॥१॥ निरभउ होइ भजहु जगदीसै एहु पदारथु वडभागि लहे ॥ करि किरपा पूरन प्रभ दाते निरमल जसु नानक दास कहे ॥२॥१७॥१०३॥ {पन्ना 824} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जतन = (तीर्थ, कर्म काण्ड आदि) उद्यम। साध संगि = गुरू की संगति में। मिलि = मिल के। कउ = को। त्रास = डर। अहे = हो जाता है।1। रहाउ। जेते = जितने ही, सारे ही। पुनह चरन = प्रायश्चित वाले कर्म, पापों की निर्विति के लिए किए हुए कर्म। से = (बहुवचन) वह। मनि = मन में। तनि = हृदय में। गहे = पकड़े। नाठा = भाग गया। किलविख = पाप। दहे = दहन हो गया, जल गया।1। जगदीसै = जगत के ईश (मालिक) को। वड भागि = बड़ी किस्मत से। लहे = पाता है। प्रभ = हे प्रभू! दाते = हे दातार! निरमल = पवित्र करने वाला। जसु = यश, सिफत सालाह।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरने से (तीर्थ, कर्म-काण्ड आदि) करोड़ों ही उद्यम (मानों अपने आप) हो जाते हैं। (जिस मनुष्य ने) गुरू की संगति में मिल के प्रभू के गुण गाने शुरू कर दिए, जमदूतों को (उसके नजदीक जाने से) डर आने लग पड़ा।1। रहाउ। हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभू के चरण अपने मन में अपने दिल में बसा लिए, उसने (पिछले कर्मों के संस्कारों को मिटाने के लिए, मानो) सारे ही प्रायश्चित कर्म कर लिए। उसके जनम-मरण का चक्कर समाप्त हो गया, उसका हरेक भ्रम डर दूर हो गया, उसके अनेकों जन्मों के किए पाप जल गए।1। (इसलिए, हे भाई!) निडर हो के (कर्मकाण्ड का भ्रम उतार के) जगत के मालिक प्रभू का नाम जपा करो। ये नाम-पदार्थ बड़ी किस्मत से मिलता है। हे सर्व-व्यापक दातार प्रभू! मेहर कर, ता कि तेरा दास नानक पवित्र करने वाली तेरी सिफत-सालाह करता रहे।2।17।103। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |