श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ सुलही ते नाराइण राखु ॥ सुलही का हाथु कही न पहुचै सुलही होइ मूआ नापाकु ॥१॥ रहाउ ॥ काढि कुठारु खसमि सिरु काटिआ खिन महि होइ गइआ है खाकु ॥ मंदा चितवत चितवत पचिआ जिनि रचिआ तिनि दीना धाकु ॥१॥ पुत्र मीत धनु किछू न रहिओ सु छोडि गइआ सभ भाई साकु ॥ कहु नानक तिसु प्रभ बलिहारी जिनि जन का कीनो पूरन वाकु ॥२॥१८॥१०४॥ {पन्ना 825}

पद्अर्थ: ते = से। नाराइण = हे प्रभू! राखु = बचा ले। कही = कहीं भी। नापाकु = अपवित्र, मलीन बुद्धि।1। रहाउ।

काढि = निकाल के। कुठारु = (मौत रूप) कुहाड़ा। खसमि = मालिक (-प्रभू) ने। खाकु = मिट्टी, राख। पचिआ = जल के मर गया है। जिनि = जिस (प्रभू) ने। तिनि = उस (प्रभू) ने। धाकु = धक्का।1।

न रहिओसु = उस (सुलही) का नहीं रहा। छोडि = छोड़ के। कहु = कह। बलिहारी = कुर्बान। जिनि = जिस (प्रभू) ने। जन का वाकु = सेवक की अरदास।2।

अर्थ: (हे प्रभू मुझ सेवक की तो तेरे पास ही अरजोई थी कि) हे प्रभू! (हमें) सूलही (खान) से बचा ले, और सूलही का (जुल्म भरा) हाथ (हम पर) कहीं भी ना पहुँच सके। (हे भाई! प्रभू ने स्वयं मेहर की है) सूलही (खान) मलीन बुद्धि हो के मरा है।1। रहाउ।

हे भाई! पति प्रभू ने (मौत रूपी) कुहाड़ा निकाल के (सूलही का) सिर कलम कर दिया है, (जिसके कारण वह) एक पल में ही राख की ढेरी हो गया है। औरों का नुकसान करना सोचते सोचते (सूलही खुद) जल मरा है। जिस प्रभू ने उसको पैदा किया था, उसने (ही उसको परलोक की ओर) धकेल दिया है।1।

हे भाई! सारे संबंधी (कुटंब) छोड़ के (सूलही इस दुनिया से) चला गया है। उसके लिए तो ना कोई पुत्र रह गया, ना कोई मित्र रह गया, ना धन रह गया, उसकी बाबत तो कुछ भी ना रहा। हे नानक! कह-मैं उस प्रभू से कुर्बान जाता हूँ, जिसने अपने सेवक की अरदास सुनी है (और, सेवक को सूलही से बचाया है)।2।18।104।

भाव: कोई भी बिपता आती दिखाई दे, परमात्मा के दर पर ही अरजोई करनी फबती है।

बिलावलु महला ५ ॥ पूरे गुर की पूरी सेव ॥ आपे आपि वरतै सुआमी कारजु रासि कीआ गुरदेव ॥१॥ रहाउ ॥ आदि मधि प्रभु अंति सुआमी अपना थाटु बनाइओ आपि ॥ अपने सेवक की आपे राखै प्रभ मेरे को वड परतापु ॥१॥ पारब्रहम परमेसुर सतिगुर वसि कीन्हे जिनि सगले जंत ॥ चरन कमल नानक सरणाई राम नाम जपि निरमल मंत ॥२॥१९॥१०५॥ {पन्ना 825}

पद्अर्थ: पूरी = सफल। सेव = सेवा भक्ति, शरण, ओट। आपे = आप। वरतै = हर जगह मौजूद है। रासि कीआ = सफल कर दिया है।1। रहाउ।

आदि = शुरू में। मधि = (जगत रचना के) बीच, अब। अंति = आखिर में भी। थाटु = जगत रचना। परतापु = ताकत।1।

जिनि = जिस (प्रभू) ने। सगले = सारे। नानक = हे नानक! जपि = जप के। निरमल = पवित्र आचरण वाला। मंत = मंत्र।2।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरू का आसरा (जिंदगी को) कामयाब (बना देता है)। (शरण आए सिख का) हरेक काम गुरू ने (सदा) सफल किया है। (गुरू की कृपा से ये विश्वास बन जाता है कि) मालिक-प्रभू हर जगह खुद ही खुद मौजूद है।1। रहाउ।

(हे भाई! गुरू ये श्रद्धा पैदा करता है कि) जिस प्रभू ने अपना ये जगत-खेल बनाया है वह मालिक प्रभू (इस खेल के) आरम्भ में, अब और आखिर में सदा कायम रहने वाला है। (गुरू से ये निश्चय मिलता है कि) उस परमात्मा की बड़ी ताकत है, अपने सेवक की वह स्वयं ही लाज (सदा) रखता आया हैं1।

हे नानक! जिस पारब्रहम परमेश्वर ने सारे जीव-जंतु अपने वश में रखे हुए हैं, उसके सुंदर चरणों की शरण पड़े रहना चाहिए, गुरू की शरण पड़े रहना चाहिए। (गुरू की शरण पड़ के) प्रभू का नाम-मंत्र जपने से पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं।2।19।105।

बिलावलु महला ५ ॥ ताप पाप ते राखे आप ॥ सीतल भए गुर चरनी लागे राम नाम हिरदे महि जाप ॥१॥ रहाउ ॥ करि किरपा हसत प्रभि दीने जगत उधार नव खंड प्रताप ॥ दुख बिनसे सुख अनद प्रवेसा त्रिसन बुझी मन तन सचु ध्राप ॥१॥ अनाथ को नाथु सरणि समरथा सगल स्रिसटि को माई बापु ॥ भगति वछल भै भंजन सुआमी गुण गावत नानक आलाप ॥२॥२०॥१०६॥ {पन्ना 825}

पद्अर्थ: ताप ते = दुख कलेशों से। राखे = बचाता है। सीतल = शांत। महि = में।1। रहाउ।

करि = कर के। हसत = हाथ। प्रभि = प्रभू ने। जगत उधार = सारे जगत को पार उतारने वाला। नवखंड = नौ खण्डों में, सारे संसार में। प्रताप = तेज। सचु = सदा स्थिर हरी नाम। ध्राप = तृप्त हो जाते हैं।1।

को = का। नाथु = पति। सरणि समरथा = शरण पड़े की सहायता के समर्थ। भगति वछल = भगती को प्यार करने वाला है। भै भंजन = सारे डर नाश करने वाला। आलाप = उच्चारण कर।2।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरू के चरणों में लगते हैं और परमात्मा का नाम हृदय में जपते हैं, उनके हृदय ठंडे-ठार हो जाते हैं क्योंकि परमात्मा स्वयं उनको सारे दुख-कलेशों व विकारों से बचा लेता है।1। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) प्रभू ने सदा मेहर कर के अपने हाथ (उनके सिर पर) रखे हैं। वह प्रभू सारे जगत को पार लंघाने वाला है, उसका तेज सारे संसार में चमक रहा है। (सिमरन करने वाले मनुष्यों के) सारे दुख नाश हो जाते हैं, उनके हृदय में सुख-आनंद आ बसते हैं, सदा स्थिर हरी-नाम जप के उनकी तृष्णा मिट जाती है, उनका मन तृप्त हो जाता है, उनका शरीर (इन्द्रियाँ) संतुष्ट हो जाते हैं।1।

हे नानक! परमात्मा निखस्मों का खसम है, शरण आए हुओं की सहायता करने योग्य है, सारी सृष्टि का माता-पिता है। वह मालिक-प्रभू भक्ति को प्यार करने वाला है, सारे डर दूर करने वाला है, उसके गुण गा-गा के उसका नाम जपा कर।2।20।106।

बिलावलु महला ५ ॥ जिस ते उपजिआ तिसहि पछानु ॥ पारब्रहमु परमेसरु धिआइआ कुसल खेम होए कलिआन ॥१॥ रहाउ ॥ गुरु पूरा भेटिओ बड भागी अंतरजामी सुघड़ु सुजानु ॥ हाथ देइ राखे करि अपने बड समरथु निमाणिआ को मानु ॥१॥ भ्रम भै बिनसि गए खिन भीतरि अंधकार प्रगटे चानाणु ॥ सासि सासि आराधै नानकु सदा सदा जाईऐ कुरबाणु ॥२॥२१॥१०७॥ {पन्ना 825}

पद्अर्थ: जिस ते = जिस (परमात्मा) से ('जिसु' की 'ु' मात्रा संबंधक 'ते' के कारण हटा दी गई है)। ते = से। तिसहि = तिसु ही, उसको ही। पछाण = पहचान, सांझ डाल। कुसल खेम = सुख सांद।1। रहाउ।

भेटिओ = मिला। बडभागी = जिस बड़े भाग्य वाले को। सुघड़ु = सुघड़, सोहना। सुजान = समझदार। देइ = दे के।1।

भै = ('भउ' का बहुवचन) सारे डर। अंधकार = अंधेरा। चानाणु = प्रकाश। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। कुरबाणु = सदके।2।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा से तू पैदा हुआ है, उसके साथ ही (सदा) सांझ डाले रख। जिस मनुष्य ने उस पारब्रहम परमेश्वर का नाम सिमरा है उसके अंदर शांति सुख व आनंद बने रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! जिन भाग्यशाली लोगों को पूरा गुरू मिल जाता है, उन्हें हाथ दे के अपने बना के वह परमात्मा (सब प्रकार के डरों-भ्रमों से) बचाए रखता है, जो हरेक के दिल की जानने वाला है, सोहणा है, समझदार है, जो बड़ी ताकत का मालिक है और जो निमाणों को आदर-मान देने वाला है।1।

(हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है, उसके) सारे डर-भ्रम छिन में नाश हो जाते हैं, (उसके अंदर से मोह का) अंधकार दूर हो के (आत्मिक जीवन की) रौशनी हो जाती है। नानक (तो) हरेक सांस के साथ (उसी परमात्मा को) सिमरता है। (हे भाई! उस परमात्मा से) सदा सदके जाना चाहिए।2।21।107।

बिलावलु महला ५ ॥ दोवै थाव रखे गुर सूरे ॥ हलत पलत पारब्रहमि सवारे कारज होए सगले पूरे ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु जपत सुख सहजे मजनु होवत साधू धूरे ॥ आवण जाण रहे थिति पाई जनम मरण के मिटे बिसूरे ॥१॥ भ्रम भै तरे छुटे भै जम के घटि घटि एकु रहिआ भरपूरे ॥ नानक सरणि परिओ दुख भंजन अंतरि बाहरि पेखि हजूरे ॥२॥२२॥१०८॥ {पन्ना 825}

पद्अर्थ: दोवै थाव = (ये लोक और परलोक) दोनों जगहें (शब्द 'थाव' शब्द 'थाउ' का बहुवचन)। गुर सूरे = सूरमे गुरू ने। हलत = अत्र, यह लोक। पलत = परत्र, परलोक। पारब्रहमि = पारब्रहम ने। सवारे = सवार दिए हैं। सगले = सारे। पूरे = सफल।1। रहाउ।

जपत = जपते हुए। सहजे = आत्मिक अडोलता में। मजनु = स्नान। साधू धूरे = गुरू के चरणों की धूड़ में। थिति = स्थिति, टिकाव। बिसूरे = चिंता फिक्र।1।

तरे = पार लांघ गए। भै = ('भउ' का बहुवचन)। घटि घटि = हरेक शरीर में। ऐकु = एक परमात्मा ही। दुख भंजन = दुखों का नाश करने वाला। पेखि = देखता है। हजूरे = अंग संग।2।

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) सूरमा गुरू (उसका ये लोक और परलोक) दोनों ही (बिगड़ने से) बचा लेता है। परमात्मा ने (सदा ही ऐसे मनुष्य के) यह लोक और परलोक सुंदर बना दिए, उस मनुष्य के सारे ही काम सफल हो जाते हैं1। रहाउ।

(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से आनंद प्राप्त होता है, आत्मिक अडोलता में टिके रहा जाता है, गुरू के चरणों की धूड़ का स्नान प्राप्त होता है, जनम मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, (प्रभू चरणों में) टिकाव प्राप्त होता है, जनम से मरने तक के सारे चिंता-फिक्र समाप्त हो जाते हैं।1।

हे नानक! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर हरी-नाम जपता है, वह संसार-समुंद्र के सारे) डरों-भ्रमों से पार लांघ जाता है, जमदूतों के बारे में भी उसके डर समाप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य को परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक दिखता है, वह मनुष्य सारे दुखों के नाश करने वाले प्रभू की शरण पड़ा रहता है, और अंदर-बाहर हर जगह प्रभू को अपने अंग-संग बसता देखता है।2।22।108।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh