श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिलावलु महला ५ ॥ दरसनु देखत दोख नसे ॥ कबहु न होवहु द्रिसटि अगोचर जीअ कै संगि बसे ॥१॥ रहाउ ॥ प्रीतम प्रान अधार सुआमी ॥ पूरि रहे प्रभ अंतरजामी ॥१॥ किआ गुण तेरे सारि सम्हारी ॥ सासि सासि प्रभ तुझहि चितारी ॥२॥ किरपा निधि प्रभ दीन दइआला ॥ जीअ जंत की करहु प्रतिपाला ॥३॥ आठ पहर तेरा नामु जनु जापे ॥ नानक प्रीति लाई प्रभि आपे ॥४॥२३॥१०९॥ {पन्ना 826}

पद्अर्थ: दोख = (सारे) ऐब, विकार। द्रिसटि अगोचर = नजर की पहुँच से परे। जीअ कै संगि = जीवात्मा के साथ। बसे = बसे रहे।1। रहाउ।

प्रान अधार = जिंद का आसरा। पूरि रहे = हर जगह मौजूद। प्रभ = हे प्रभू! अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला।1।

सारि = याद करके। समारी = मैं सम्भालूँ, मैं हृदय में बसाऊँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। चितारी = मैं याद करता रहूँ।2।

किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! प्रतिपाला = पालना।3।

जनु = दास, सेवक। प्रभि = प्रभू ने। आपे = स्वयं ही।4।

अर्थ: (हे प्रभू तेरे) दर्शन करते हुए (जीवों के) सारे विकार दूर हो जाते हैं। (हे प्रभू! मेहर कर) कभी भी मेरी नजर से परे ना हो, सदा मेरे प्राणों के साथ बसता रह।1। रहाउ।

हे मेरे प्रीतम प्रभू! हे जीवों की जिंद के आसरे! हे स्वामी! तू सबके दिल की जानने वाला है और सबमें व्यापक है।1।

(हे प्रभू! तू बेअंत गुणों का मालिक है) मैं तेरे कौन-कौन से गुण याद कर कर के अपने हृदय में बसाऊँ? हे प्रभू! (कृपा कर) मैं अपनी हरेक सांस के साथ तुझे ही याद करता रहूँ।2।

हे कृपा के खजाने! हे गरीबों पर दया करने वाले प्रभू! सारे जीवों की तू स्वयं ही पालना करता है।3।

हे प्रभू! तेरा सेवक आठों पहर तेरा नाम जपता रहता है। (पर) हे नानक! (वही मनुष्य सदा नाम जपता है, जिसको) प्रभू ने स्वयं ही यह लगन लगाई है।4।23।109।

बिलावलु महला ५ ॥ तनु धनु जोबनु चलत गइआ ॥ राम नाम का भजनु न कीनो करत बिकार निसि भोरु भइआ ॥१॥ रहाउ ॥ अनिक प्रकार भोजन नित खाते मुख दंता घसि खीन खइआ ॥ मेरी मेरी करि करि मूठउ पाप करत नह परी दइआ ॥१॥ महा बिकार घोर दुख सागर तिसु महि प्राणी गलतु पइआ ॥ सरनि परे नानक सुआमी की बाह पकरि प्रभि काढि लइआ ॥२॥२४॥११०॥ {पन्ना 826}

पद्अर्थ: जोबनु = जवानी। चलत गइआ = सहजे सहजे साथ छोड़ जाता है। करत = करते हुए। बिकार = बुरे काम। निसि = रात (काले केसों वाली उम्र)। भोरु = (सफेद) दिन (सफेद बालों वाली उम्र)।1। रहाउ।

अनिक प्रकार = कई किसमों के। भोजन = खाने। खाते = खाते हुए। घसि = घिस के। खीन = क्षीण, कमजोर। खइआ = नाश हो जाते हैं। मूठउ = ठगा जाता है।1।

घोर दुख = बहुत सारे दुख। सागर = समुंद्र। तिसु महि = उस (सागर) में। गलतु पइआ = ग़लतान, डूबा रहता है। पकरि = पकड़ के। प्रभि = प्रभू ने।2।

अर्थ: (हे भाई! मनुष्य का यह) शरीर, धन, जवानी (हरेक ही) आहिस्ता-आहिस्ता (मनुष्य का) साथ छोड़ते जाते हैं, (पर इनके मोह में फंसा हुआ मनुष्य) परमात्मा के नाम का भजन नहीं करता, बुरे काम करते करते काले केसों वाली उम्र से सफेद बालों वाली उम्र आ जाती है।1। रहाउ।

हे भाई! कई किस्मों के खाने नित्य खाते हुए मुँह के दाँत भी घिस के कमजोर हो जाते हैं, और आखिर गिर जाते हैं। ममता के पँजे में फंस के मनुष्य (आत्मिक जीवन की राशि पूँजी) लुटा लेता है, बुरे काम करते हुए इसके अंदर दया-तरस भी नहीं रह जाती।1।

(हे भाई! यह संसार) बड़े विकारों और भारे दुखों का समुंद्र है (भजन से टूटा हुआ) मनुष्य इस (समुंद्र) में डूबा रहता है। हे नानक! जो मनुष्य मालिक प्रभू की शरण आ पड़े, उन्हे प्रभू ने बाँह पकड़ के (इस संसार-समुंद्र में से) निकाल लिया, (ये उसका आदि कदीमी बिरद भरा स्वभाव है)।2।24।110।

बिलावलु महला ५ ॥ आपना प्रभु आइआ चीति ॥ दुसमन दुसट रहे झख मारत कुसलु भइआ मेरे भाई मीत ॥१॥ रहाउ ॥ गई बिआधि उपाधि सभ नासी अंगीकारु कीओ करतारि ॥ सांति सूख अरु अनद घनेरे प्रीतम नामु रिदै उर हारि ॥१॥ जीउ पिंडु धनु रासि प्रभ तेरी तूं समरथु सुआमी मेरा ॥ दास अपुने कउ राखनहारा नानक दास सदा है चेरा ॥२॥२५॥१११॥ {पन्ना 826}

पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। दुसट = दुष्ट। रहे झख मारत = झख मारते रह गए, नुकसान करने का प्रयत्न कर कर के थक गए। कुसलु = सुख। भाई = हे भाई! मीत = हे मित्र! ।1। रहाउ।

बिआधि = शारीरिक रोग। उपाधि = ठगी, फरेब, धोखा। अंगीकारु = सहायता, पक्ष। करतारि = करतार ने। अरु = और। घनेरे = अनेकों। रिदै = हृदय में। उरहारि = उर धारि, हृदय में बसा के। उर = हृदय।1।

जीउ = जिंद, प्राण। पिंडु = शरीर। रासि = पूँजी, सरमाया। प्रभ = हे प्रभू! समरथु = सारी ताकतों का मालिक। कउ = को। राखनहारा = बचाने वाला। चेरा = गुलाम।2।

अर्थ: हे मेरे वीर! हे मेरे मित्र! जिस मनुष्य के चिक्त में प्यारा प्रभू आ बसता है, बुरे लोग और वैरी उसको नुकसान पहुँचाने का यत्न करते थक जाते हैं (उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, उसके हृदय में सदा) आनंद बना रहता है।1। रहाउ।

हे मित्र! करतार ने (जब भी किसी की) सहायता की, उसका हरेक रोग दूर हो गया, (उसके साथ किसी का भी किया हुआ) कोई छल कामयाब नही हुआ। प्रीतम प्रभू का नाम हृदय में बसाने की बरकति से उस मनुष्य के अंदर शांति सुख और अनेकों आनंद पैदा हो गए।1।

हे प्रभू! मेरे ये प्राण, मेरा ये शरीर, मेरा यह धन- सब कुछ तेरा ही दिया हुआ सरमाया है। तू मेरा स्वामी सब ताकतों का मालिक है। तू अपनें सेवक को (उपाधियों-व्याधियों से सदा) बचाने वाला है। हे नानक! (कह- हे प्रभू!) मैं भी तेरा ही दास हूँ, तेरा ही गुलाम हूँ (मुझे तेरा ही भरोसा है)।2।25।111।

बिलावलु महला ५ ॥ गोबिदु सिमरि होआ कलिआणु ॥ मिटी उपाधि भइआ सुखु साचा अंतरजामी सिमरिआ जाणु ॥१॥ रहाउ ॥ जिस के जीअ तिनि कीए सुखाले भगत जना कउ साचा ताणु ॥ दास अपुने की आपे राखी भै भंजन ऊपरि करते माणु ॥१॥ भई मित्राई मिटी बुराई द्रुसट दूत हरि काढे छाणि ॥ सूख सहज आनंद घनेरे नानक जीवै हरि गुणह वखाणि ॥२॥२६॥११२॥ {पन्ना 826}

पद्अर्थ: सिमरि = सिमर के। कलिआणु = सुख। उपाधि = छल धोखा। मिटी उपाधि = किसी की की हुई चोट सफल नहीं होती। साचा = सदा कायम रहने वाला। जाणु = सुजान।1। रहाउ।

जीअ = ('जीव' का बहुवचन)। तिनि = उस (प्रभू) ने। सुखाले = सुखी। कउ = को। ताणु = सहारा। भै भंजन = सारे डर दूर कर सकने वाला। करते = करते हैं। माणु = फखर, भरोसा।1।

मित्राई = मित्रता, प्यार की सांझ। बुराई = बुरी चितवनी। द्रुसट = दुष्ट, बुरा चितवने वाले। दूत = वैरी। छाणि = चुन के। सहज = आत्मिक अडोलता, शांति। जीवै = जीता है, आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। गुणह वखाणि = (प्रभू के) गुण उचार के।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने हरेक दिल की जानने वाले सुजान प्रभू का नाम सिमरा, उस पर किसी की चोट कारगर ना हो सकी, उसके अंदर सदा कायम रहने वाला सुख पैदा हो गया। गोबिंद का नाम सिमर के (उसके अंदर) सुख ही सुख बन गया।1। रहाउ।

हे भाई! जिस प्रभू के ये सारे जीव-जंतु हैं (इनको) सुखी भी उसने खुद ही किया है (सुखी करने वाला भी स्वयं ही है)। प्रभू की भक्ति करने वालों को यही सदा कायम रहने वाला सहारा है। हे भाई! प्रभू अपने सेवकों की इज्जत स्वयं ही रखता है। भक्त उस प्रभू पर ही भरोसा रखते हैं, जो सारे डरों का नाश करने वाला है।1।

(हे भाई! जो मनुष्य प्रभू का नाम सिमरता है, प्रभू उसका) बुरा चितवने वाले वैरियों को चुन के निकाल देता है (उनकी बल्कि सेवक से) प्यार की सांझ बन जाती है (उनके अंदर से उस सेवक की बाबत) वैर भाव मिट जाता है। हे नानक! सेवक के हृदय में सुख आत्मिक अडोलता और बहुत सारा आनंद बना रहता है। सेवक परमात्मा के गुण उचार-उचार के आत्मिक जीवन प्राप्त करता रहता है।2।26।112।

बिलावलु महला ५ ॥ पारब्रहम प्रभ भए क्रिपाल ॥ कारज सगल सवारे सतिगुर जपि जपि साधू भए निहाल ॥१॥ रहाउ ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै दोखी सगले भए रवाल ॥ कंठि लाइ राखे जन अपने उधरि लीए लाइ अपनै पाल ॥१॥ सही सलामति मिलि घरि आए निंदक के मुख होए काल ॥ कहु नानक मेरा सतिगुरु पूरा गुर प्रसादि प्रभ भए निहाल ॥२॥२७॥११३॥ {पन्ना 826-827}

पद्अर्थ: क्रिपाल = (कृपा+आलय) दयावान। सगल = सारे। जपि = जप के। जपि साधू = गुरू का आसरा हर वक्त चितार के। साधू = गुरू। निहाल = खुश, आनंद भरपूर।1। रहाउ।

अंगीकारु = पक्ष। प्रभि = प्रभू ने। दोखी = वैरी। रवाल = धूल, मिट्टी। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। जन = सेवक। उधरि लीऐ = बचा लिए। पाल = पल्ले।1।

सही सलामति = आत्मिक जीवन की सारी राशि पूँजी समेत। मिलि = (गुरू को) मिल के। घरि = हृदय घर में। काल = काले। गुर प्रसादि = गुरू की कृपा से।2।

अर्थ: हे भाई! जिन मनुष्यों पर परमात्मा दयावान होता है, गुरू उनके सारे काम सिरे चढ़ा देता है। वह मनुष्य गुरू की ओट हर वक्त चितार के सदा प्रसन्न रहते हैं।1। रहाउ।

हे भाई! प्रभू ने (जिन अपने सेवकों की) सहायता की, उनके सारे वैरी नाश हो गए (अर्थात, वैर-भाव चितवने से हट गए)। प्रभू ने अपने सेवकों को (सदा) अपने गले से लगा के (उनकी) सहायता की, उनको अपने लड़ लगा के (दोखियों से) बचाया।1।

हे भाई! (प्रभू के सेवक गुरू चरणों में) मिल के आत्मिक जीवन की सारी राशि-पूँजी समेत हृदय-घर में टिके रहते हैं, उनकी निंदा करने वाले मनुष्य बदनामी कमाते हैं। हे नानक! कह- मेरा गुरू सारी समर्था वाला है, (गुरू के दर पर आए भाग्यशालियों पर) गुरू की कृपा से परमात्मा खुश रहता है।2।27।113।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh