श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1166 घरु २ ॥ जउ गुरदेउ त मिलै मुरारि ॥ जउ गुरदेउ त उतरै पारि ॥ जउ गुरदेउ त बैकुंठ तरै ॥ जउ गुरदेउ त जीवत मरै ॥१॥ सति सति सति सति सति गुरदेव ॥ झूठु झूठु झूठु झूठु आन सभ सेव ॥१॥ रहाउ ॥ जउ गुरदेउ त नामु द्रिड़ावै ॥ जउ गुरदेउ न दह दिस धावै ॥ जउ गुरदेउ पंच ते दूरि ॥ जउ गुरदेउ न मरिबो झूरि ॥२॥ जउ गुरदेउ त अम्रित बानी ॥ जउ गुरदेउ त अकथ कहानी ॥ जउ गुरदेउ त अम्रित देह ॥ जउ गुरदेउ नामु जपि लेहि ॥३॥ जउ गुरदेउ भवन त्रै सूझै ॥ जउ गुरदेउ ऊच पद बूझै ॥ जउ गुरदेउ त सीसु अकासि ॥ जउ गुरदेउ सदा साबासि ॥४॥ जउ गुरदेउ सदा बैरागी ॥ जउ गुरदेउ पर निंदा तिआगी ॥ जउ गुरदेउ बुरा भला एक ॥ जउ गुरदेउ लिलाटहि लेख ॥५॥ जउ गुरदेउ कंधु नही हिरै ॥ जउ गुरदेउ देहुरा फिरै ॥ जउ गुरदेउ त छापरि छाई ॥ जउ गुरदेउ सिहज निकसाई ॥६॥ जउ गुरदेउ त अठसठि नाइआ ॥ जउ गुरदेउ तनि चक्र लगाइआ ॥ जउ गुरदेउ त दुआदस सेवा ॥ जउ गुरदेउ सभै बिखु मेवा ॥७॥ जउ गुरदेउ त संसा टूटै ॥ जउ गुरदेउ त जम ते छूटै ॥ जउ गुरदेउ त भउजल तरै ॥ जउ गुरदेउ त जनमि न मरै ॥८॥ जउ गुरदेउ अठदस बिउहार ॥ जउ गुरदेउ अठारह भार ॥ बिनु गुरदेउ अवर नही जाई ॥ नामदेउ गुर की सरणाई ॥९॥१॥२॥११॥ {पन्ना 1166-1167} पद्अर्थ: सति = सदा स्थिर रहने वाली। गुरदेव = गुरू (की सेवा)। आन = अन्य।1। रहाउ। दहदिस = दसों दिशाओं में। पंच = कामादिक।2। अकथ = उस प्रभू की जो बयान नहीं हो सकता। अंम्रित = पवित्र। देह = शरीर।3। सीसु = सिर, दिमाग़, मन। अकासि = आकाश में, ऊँचे ठिकाने में, प्रभू चरणों में।4। लिलाटहि = माथे पर।5। कंधु = शरीर। न हिरै = (कामादिक कोई भी) चुराता नहीं। छापरि = छपरी, कुल्ली, घर। सिहज = मंजा, चारपाई, पलंग। निकसाई = निकाल दी ।6। (नोट: बादशाह ने नामदेव को चारपाई दी थी, वह उसने दरिया में फेंक दिया। बादशाह को पता लगा, उसने कहा वापस करो। नामदेव ने दोबारा दरिया में से निकाल दिया)। अठसठि = अढ़सठ तीर्थ। तनि = शरीर पर। दुआदस सेवा = बारह शिव लिंगों की पूजा।7। अठ दस = अठारह (स्मृतियों का बताया हुआ)। अठारह भार = सारी बनस्पति (के पत्र, फूल आदि पूजा के लिए भेट)। जाई = जगह।9। अर्थ: और सब (देवताओं की) सेवा-पूजा व्यर्थ है, व्यर्थ है, व्यर्थ है। ये यकीन जानो कि गुरू की सेवा ही सदा-स्थिर रहने वाला उद्यम है।1। रहाउ। अगर गुरू मिल जाए तो रॅब मिल जाता है, (संसार-समुंद्र से मनुष्य) पार लांघ जाता है, (यहाँ से) तैर के बैकुंठ में जा पहुँचता है, (दुनिया में) रहते हुए (विकारों से उसका मन) मरा रहता है।1। अगर गुरू मिल जाए तो वह नाम जपने का स्वभाव पक्का कर देता है, (फिर मन) दसों दिशाओं में नहीं दौड़ता, पाँच कामादिक से बचा रहता है, (चिंता-फिकर में) झुर-झुर के नहीं खपता।2। अगर गुरू मिल जाए तो मनुष्य के बोल मीठे हो जाते हैं, अकथ प्रभू की बातें करने लग जाता है, शरीर पवित्र हो रहता है, (क्योंकि फिर यह सदा) नाम जपता है।3। अगर गुरू ईश्वर मिल जाए तो मनुष्य को तीनों भवनों की सूझ हो जाती है (भाव, यह समझ आ जलाती है कि प्रभू तीनों भवनों में ही मौजूद है), ऊँची आत्मिक अवस्था से जान-पहचान हो जाती है, मन प्रभू-चरणों में टिका रहता है (हर जगह से) सदा शोभा मिलती है।4। अगर गुरू मिल जाए तो मनुष्य (दुनिया में रहता हुआ ही) सदा विरक्त रहता है, किसी की निंदा नहीं करता, अच्छे-बुरे सब से प्यार करता है। गुरू को मिल के ही माथे के अच्छे लेख उघड़ते हैं।5। अगर गुरू मिल जाए तो शरीर (विकारों में पड़ के) छिॅजता नहीं (भाव, मनुष्य विकारों में प्रवृक्त नहीं होता, और ना ही उसकी सक्ता व्यर्थ जाती है); ऊँची जाति आदि के माण वाले मनुष्य गुरू की शरण आए बँदे पर दबाव नहीं डाल सकते, जैसे कि वह देहुरा नामदेव की तरफ पलट गया था जिसमें से उसे धक्के दे के निकाल दिया गया था; गुरू की शरण पड़े गरीब की रक्षा के लिए रॅब खुद पहुँचता है जैसे कि नामदेव की कुल्ली बनी थी, ईश्वर स्वयं सहाई होता है जैसे कि बादशाह के डरावे देने पर पलंग दरिया में से निकलवा दिया।6। अगर गुरू मिल जाए तो अठारह तीर्थों का स्नान हो गया (जानो), शरीर पर चक्कर लग गए समझो (जैसे बैरागी द्वारिका जा के लगाते हैं), बारह ही शिव-लिंगों की पूजा हो गई समझो; उस मनुष्य के लिए सारे जहर भी मीठे फल बन जाते हैं।7। अगर गुरू मिल जाए तो दिल के संसे मिट जाते हैं, जमों से (ही) खलासी हो जाती है, संसार-समुंद्र से मनुष्य पार लांघ जाता है, जनम-मरन से बच जाता है।8। अगर गुरू मिल जाए तो अठारह स्मृतियों के बताए कर्म-काण्ड की आवश्यक्ता नहीं रह जाती, सारी बनस्पति ही (प्रभू-देव की नित्य भेट होती दिखाई दे जाती है)। सतिगुरू के बिना और कोई जगह नहीं (जहाँ मनुष्य जीवन का सही रास्ता पा सके), नामदेव (और सब आसरे-सहारे छोड़ के) गुरू की शरण पड़ा है।9।1।2।11। नोट: नामदेव जी तो यहाँ साफ कह रहे हैं कि और देवी-देवताओं की पूजा बिल्कुल व्यर्थ है, एक सतिगुरू की शरण ही समर्थ है; पर यह आश्चर्यजनक खेल है कि लोग नामदेव जी के अपने इन शब्दों पर ऐतबार करने की जगह स्वार्थी लोगों की घड़ी हुई कहानियाँ पढ़-सुन के यही रटन लगाए जा रहे हैं कि नामदेव ने किसी बीठल-मूर्ति की पूजा की और ठाकुर को दूध पिलाया। भाव: गुरू के बताए हुए राह पर चलना ही जीवन का सही रास्ता है; और देवी-देवताओं की पूजा बिल्कुल ही निष्फल है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |