श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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भैरउ बाणी रविदास जीउ की घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बिनु देखे उपजै नही आसा ॥ जो दीसै सो होइ बिनासा ॥ बरन सहित जो जापै नामु ॥ सो जोगी केवल निहकामु ॥१॥ परचै रामु रवै जउ कोई ॥ पारसु परसै दुबिधा न होई ॥१॥ रहाउ ॥ सो मुनि मन की दुबिधा खाइ ॥ बिनु दुआरे त्रै लोक समाइ ॥ मन का सुभाउ सभु कोई करै ॥ करता होइ सु अनभै रहै ॥२॥ फल कारन फूली बनराइ ॥ फलु लागा तब फूलु बिलाइ ॥ गिआनै कारन करम अभिआसु ॥ गिआनु भइआ तह करमह नासु ॥३॥ घ्रित कारन दधि मथै सइआन ॥ जीवत मुकत सदा निरबान ॥ कहि रविदास परम बैराग ॥ रिदै रामु की न जपसि अभाग ॥४॥१॥ {पन्ना 1167}

नोट: शबद का मुख्य भाव 'रहाउ' की तुक में हुआ करता है, बाकी के शबद में उसकी व्याख्या।

मुख्य भाव: जो मनुष्य नाम सिमरता है उसका मन प्रभू में परच जाता है; पारस-प्रभू को छू के वह, मानो, सोना हो जाता है।

बाकी के शबद में उस सोना बन गए मनुष्य के जीवन की तस्वीर दी है-1. 'निहकामु', वासना रहित हो जाता है; 2. दुबिधा मिट जाती है और वह निर्भय हो जाता है; 3. किरत कार का मोह मिट जाता है; 4. सिरे की बात ये कि जीवित ही मुक्त हो जाता है।

पद्अर्थ: आसा = (पारस = प्रभू से छूने की) तमन्ना। बरन = वर्णन, प्रभू के गुणों का वर्णन, सिफत सालाह। सहित = समेत। जापै = जपता है। निहकामु = कामना रहित, वासना रहित।1।

परचै = परच जाता है, गिझ जाता है, विकारों से हट जाता है। जउ = जब। परसै = छूता है।1। रहाउ।

खाइ = खा जाता है, समाप्त कर देता है। दुबिधा = दोचिक्तापन, मेर तेर, प्रभू से विछुड़ना। त्रैलोक = तीनों लोकों में व्यापक प्रभू में। बिनु दुआरे = जिस प्रभू का दस द्वारों वाला शरीर नहीं है। सभु कोइ = हरेक जीव। करता होइ = (नाम सिमरन वाला मनुष्य) करतार का रूप हो जाता है। अनभै = भय रहित अवस्था में।2।

कारन = वास्ते। बनराइ = बनस्पति। फूली = फूलती है, खिलती है। बिलाइ = दूर हो जाती है। करम = दुनिया की किरत कार। अभिआसु = बार बार करना। करम अभिआसु = दुनिया की रोजाना किरत कार। गिआनै कारन = ज्ञान की खातिर, प्रभू में परचने की खातिर, ऊँचे जीवन में सूझ वास्ते, जीवन का सही रास्ता ढूँढने के लिए। तह = उस अवस्था में पहुँच के। करमह नासु = कर्मों का नाश, किरत कार के मोह का नाश।3।

ध्रित = घृत, घी। दधि = दही। मथै = मथती है। सइआन = सयानी स्त्री। निरबान = निर्वाण, वासना रहित। की न = क्यों नहीं? अभाग = हे भाग्यहीन!।4।

अर्थ: जब कोई मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है तो उसका मन प्रभू में परच जाता है; जब पारस-प्रभू को वह छूता है (वह, मानो, सोना हो जाता है), और, उसकी मेर-तेर समाप्त हो जाती है।1। रहाउ।

(पर, पारस प्रभू के चरण छूने आसान काम नहीं है, क्योंकि वह इन आँखों से नहीं दिखाई देता, और) उसको देखे बिना (उस पारस-प्रभू के चरण छूने की) तमन्ना पैदा नहीं होती, (इस दिखाई देते संसार के साथ ही मोह बना रहता है,) और, और यह जो कुछ दिखाई देता है यह सब नाश हो जाने वाला है। जो मनुष्य प्रभू के गुण गाता है, और, प्रभू का नाम जपता है, सिर्फ वही असल जोगी है और वह कामना-रहित हो जाता है।1।

(नाम-सिमरन वाला) वह मनुष्य (असल) ऋषि है, वह (नाम की बरकति से) अपने मन की मेर-तेर मिटा लेता है, और उस प्रभू में समाया रहता है जिसका कोई खास शरीर नहीं है। (जगत में) हरेक मनुष्य अपने-अपने मन का स्वभाव बरतता है (अपने मन के पीछे चलता है, पर नाम-सिमरन वाला मनुष्य अपने मन के पीछे चलने के जगह, नाम की बरकति से) करतार का रूप हो जाता है, और, उस अवस्था में टिका रहता है जहाँ कोई डर-भय नहीं।2।

(जगत की सारी) बनस्पति फल देने के लिए खिलती है; जब फल लगता है फूल दूर हो जाता है। इसी तरह दुनिया की रोजाना की किरत-कार ज्ञान की खातिर है (प्रभू में परचने के लिए है, उच्च-जीवन की सूझ के लिए है), जब ऊँचे-जीवन की समझ पैदा हो जाती है, तो उस अवस्था में पहुँच के किरत-कार का (मायावी-उद्यमों का) मोह मिट जाता है।3।

नोट: पाठक जन 'रहाउ' की तुक का ध्यान रखें। सारे शबद में उस जीवन का विस्तार है जो नाम के सिमरने से बनता है; इसी केन्द्रिया-विचार के इर्द-गिर्द ही सारे शबद ने रहना है। किसी कर्म-काण्ड का कोई जिकर रविदास जी ने 'रहाउ' की तुक में नहीं छेड़ा। इस बंद नंबर.3 में यह बड़ी ही गलत बात होगी अगर शब्द 'करम' का अर्थ 'कर्म-काण्ड' करेंगे।

समझदार स्त्री घी की खातिर दही मथती है (वैसे ही जो मनुष्य नाम जप के प्रभू-चरणों में परचता है वह जानता है कि दुनिया का जीवन-निर्वाह, दुनिया की किरत-कार प्रभू-चरणों में जुड़ने के लिए ही है। सो, वह मनुष्य नाम की बरकति से) माया की किरत-कार करता हुआ ही मुक्त होता है और सदा वासना-रहित रहता है। रविदास यह सबसे ऊँचे वैराग (की प्राप्ति) की बात बताता है; हे भाग्य-हीन! प्रभू तेरे हृदय में ही है, तू उसको क्यों याद नहीं करता?।4।1।

नोट: जब भी किसी कवि की किसी लिखत के बारे में कोई शक पैदा हो, तो उसको समझने का सही तरीका यही हो सकता है कि उस पहेली को उसी की बाकी और रचनाओं में से समझा जाए। कवि जहाँ अपनी बोली को बरतता, और सँवारता-श्रृंगारता है, वहीं वह पुराने शब्दों, पुराने मुहावरों और पुराने बरते दृष्टांतों को नए तरीके से भी बरतता और बरत सकता है। गुरू गोबिंद सिंह जी के शब्द 'भगौती' के प्रयोग से कई लोग ये गलती खाने लग पड़े कि सतिगुरू जी ने देवी-पूजा अथवा शस्त्र-पूजा की। पर जब इस शब्द को उनकी अपनी ही (गुरू गोबिंद सिंह जी की) रचना में बरत के ध्यान से देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि शब्द 'भगौती' परमात्मा की बाबत उन्होंने बरता है। रामकली राग में दी बाणी 'सदु' से कई लोग घबराते थे कि इसमें कर्म-काण्ड करने की आज्ञा की है, पर यह सिर्फ भुलेखा ही था (पढें मेरी पुस्तक 'सदु स्टीक')। यह बाणी उन महाँपुरुषों की है जो हमसे दूर उच्च चोटी पर खेल रहे थे, ऊँचे-विचार-मण्डलों में उड़ानें भर रहे थे। इसको समझने के लिए इसमें जुड़ना पड़ेगा, माया में खेलते मन को थोड़ा सा रोक के इधर काफी समय देना पड़ेगा, तब ही उनकी गहराई में पहुँचने की आस हो सकती है।

वेदांती लोगों ने यह प्रचार किया है कि ये जगत मिथ्या है, असल में इस जगत की कोई हस्ती ही नहीं है, माया का पर्दा पड़ने के कारण जीव को यह भ्रम हो गया है कि जगत की कोई हस्ती है। उन्होंने ये बात समझाने के लिए रस्सी और साँप का दृष्टांत दिया कि अंधेरे के कारण रस्सी को साँप समझा गया, असल में साँप कहीं है ही नहीं था। रविदास जी ने भी यही दृष्टांत बरत लिया। पर इस बात से ये भाव नहीं लिया जा सकता कि रविदास जी वेदांती थे। ये दृष्टांत वेदांतियों की जागीर नहीं हो गया। देखें राग सोरठि, शबद- 'जब हम होते'। कर्म-काण्डियों ने फल और फूल का दृष्टांत बरता, रविदास जी ने भी इसको बरत लिया; पर इसका ये मतलब नहीं निकल सकता कि रविदास जी कर्म-काण्डी थे। आखिर रविदास जी कौन सी उच्च-कुल के ब्राहमण थे कि वे किसी कर्म-काण्ड से चिपके रहते? ना जनेऊ पहनने का अधिकार, ना मन्दिर में जाने की आज्ञा, ना किसी श्राद्ध के वक्त ब्राहमण ने उनके घर का खाना, ना संध्या-तर्पण-गायत्री आदि का उनको कोई हक। फिर, वह कौन सा कर्म-काण्ड था जिसका शौक रविदास जी को हो सकता था?

रविदास जी ने इस शबद में नाम-सिमरन वाले व्यक्ति के ऊँचे जीवन का वर्णन किया है।

इसी ही राग में दिया हुआ गुरू अमरदास जी का निम्न-लिखित शबद रविदास जी के इस शबद का आनंद लेने के लिए बहुत ही सहायक सिद्ध होगा।

रागु भैरउ महला ३॥ सो मुनि जि मन की दुबिधा मारे॥ दुबिधा मारि ब्रहमु बीचारे॥१॥ इसु मन कउ कोई खोजहु भाई॥ मनु खोजत नामु नउ निधि पाई॥१॥ रहाउ॥ मूलु मोहु करि करतै जगतु उपाइआ॥ ममता लाइ भरमि भुोलाइआ॥२॥ इसु मन ते सभ पिंड पराणा॥ मन कै वीचारि हुकमु बूझि समाणा॥३॥ करमु होवै गुरु किरपा करै॥ इहु मनु जागै इसु मन की दुबिधा मरै॥४॥ मन का सुभाउ सदा बैरागी॥ सभ महि वसै अतीतु अनरागी॥५॥ कहत नानकु जो जाणै भेउ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ॥६॥५॥   (पन्ना 1128-1129)

जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर हो उस पर गुरू कृपा करता है, उसका मन माया के मोह में से जाग उठता है। जो बात रविदास जी ने 'करमह नासु' में इशारे मात्र कही है, वह गुरू अमरदास जी ने दूसरे बंद से पाँचवें बंद तक स्पष्ट शब्दों में समझा दी है कि 'करमह नासु' का भाव है 'मोह ममता का नाश'।

नोट: इन दोनों शबदों को इकट्ठे रख के पढ़ने से ये बात यकीनन पक्की नहीं हो गई कि गुरू अमरदास जी का ये शबद भगत रविदास जी के शबद की प्रथाय है? दूसरे शब्दों में ये कह लो कि ये शबद उचारने के वक्त गुरू अमरदास जी के पास भगत रविदास जी का शबद मौजूद था। दोनों शबदों के कई शब्दों व तुकों में सांझ सबब से नहीं बन गई। ये विचार समूचे तौर पर गलत है कि भक्तों की बाणी गुरू अरजन देव जी ने एकत्र की थी। सतिगुरू नानक देव जी ने पहली 'उदासी' के समय बनारस जा के भगत रविदास जी के सारे शबद लिख लिए। अपनी बाणी के साथ संभाल के ये शबद गुरू नानक देव जी ने गुरू अंगद देव जी को दिए। उनसे ये सारी बाणी गुरू अमरदास जी को मिली।

शबद का भाव: सिमरन की वडिआई-सिमरन की बरकति से मनुष्य माया के मोह वाला विकार (हठ) छोड देता है, वासना-रहित (निर्वाण) हो जाता है।

नामदेव ॥ आउ कलंदर केसवा ॥ करि अबदाली भेसवा ॥ रहाउ ॥ जिनि आकास कुलह सिरि कीनी कउसै सपत पयाला ॥ चमर पोस का मंदरु तेरा इह बिधि बने गुपाला ॥१॥ छपन कोटि का पेहनु तेरा सोलह सहस इजारा ॥ भार अठारह मुदगरु तेरा सहनक सभ संसारा ॥२॥ देही महजिदि मनु मउलाना सहज निवाज गुजारै ॥ बीबी कउला सउ काइनु तेरा निरंकार आकारै ॥३॥ भगति करत मेरे ताल छिनाए किह पहि करउ पुकारा ॥ नामे का सुआमी अंतरजामी फिरे सगल बेदेसवा ॥४॥१॥

पद्अर्थ: आउ = आइए, स्वागतम्। कलंदर = हे कलंदर! केसवा = हे केशव! हे सुदर केसों वाले प्रभू! करि = कर के। अबदाली भेसवा = अब्दाली फकीरों वाला सुंदर भेष। रहाउ।

नोट: बँदगी वाले मुसलमान फकीर केस (जुल्फें) रखते हैं, इस लिए 'कलंदर' के साथ शब्द 'केसव' भी बरता है। अब्दाली फकीर सिर पर कुल्ला (ऊँची नोक वाली टोपी) पहनते हैं; बड़ा चोला, लंबा तंबा आदि उनकी पोशाक होती है। नामदेव जी किसी अब्दाली फकीर को देख के परमात्मा को भी अब्दाली के रूप में बयान करते हैं। जब बादशाह ने डरावे दिए, तो नामदेव जी कहने लगे कि मेरे लाज रखने के लिए 'गरुड़ चढ़े गोबिंदु आइला'। निडर हो के एक कट्टर मुसलमान के सामने परमात्मा का वह स्वरूप बताते हैं जो हिन्दू पुराणों में मिथा हुआ है। पर जब मन्दिर में से निकाले जाने का वर्णन करते हैं तो अपने प्रभू को मुसलमानी रूप में बयान करते हैं। किसी खास स्वरूप के पुजारी नहीं हैं, उनका परमात्मा 'सगल बेदेसवा' में फिरने वाला (व्यापक) है।

जिनि = जिस (तुझ) ने। कुलह = कुल्ला, टोपी। सिरि = सिर पर। कउसै = खड़ावें। प्याला = पाताल। चमर पोस = चमड़े की पोशाक वाले, सारे जीव-जंतु। मंदरु = घर। गुपाला = हे धरती के रक्षक!।1।

छपन कोटि = छप्पन करोड़ मेघ माला। छपपन करोड़ बादल। पेहन = चोगा। सोलह सहस = सोलह हजार (आलम)।

नोट: इस्लामी विचार के अनुसार कोई अठारह हजार व कोई सोलह हजार आलम (जहान) कहते हैं। कई विद्वान सज्जन इसका अर्थ 'सोलह हजार गोपियाँ' करते आ रहे हैं। पर यह बिल्कुल ही गलत और बेजोड़ सा है; प्रभू का स्वरूप बयान करते हुए सारे आकाश, सारे पाताल, सारे जीव-जंतु, सारी मेघ-मालाएं, सारी बनस्पति, सारा संसार उस प्रभू के बाहरी लिबास का हिस्सा बताते हैं। बेअंत जीव पैदा करने वाले प्रभू के 'इजार' के लिए 'सोलह हजार गोपियां' कोई महिमा की बात नहीं है; ये तो सुल्तान को मीयाँ कहने वाली बात भी नहीं।

इजारा = तंबा। भार अठारह = बनस्पति के अठारह भार, सारी बनस्पति। मुदहरु = मुतहिरा, सलोतर, मुदगर, डंडा जो फकीर लोग आम तौर पर हाथ में रखते हैं। सहनक = मिट्टी की रकेबी।2।

देही = (मेरा) शरीर। महजिदि = मस्जिद। मउलाना = मौलवी, मुल्लां। सहज = अडोलता। सहज निवाज = अडोलता रूप नमाज़। कउला = माया। सउ = साथ। काइनु = निकाह, विवाह। निरंकार = हे निरंकार! हे आकार रहित प्रभू! आकार = जगत। निरंकार आकारै = हे सारे जगत के निरंकार!।3।

छिनाऐ = छिनवा दिए।

नोट: शब्द 'छीने' और छिनाऐ' अलग-अलग अर्थ वाले हैं। किसी उस 'कलंदर' को संबोधन नहीं कर रहे, जिसने नामदेव के छैने 'छीने'; सर्व-व्यापक प्रभू का अब्दाली भेष बयान करते हुए कहते हैं कि तूने ही मेरे छैणे 'छिनवाए'। नामदेव जी ने शब्द 'ताल छिनाऐ' उसी प्रकार बरता है जिस तरह कबीर जी ने 'यह माला अपुनी लीजै' बरता है। ना कबीर जी गले में माला डाले फिरते थे, ना ही नामदेव जी हाथ में छैणे लिए फिरते थे। छैणे आम तौर पर मन्दिरों में ही आरती के वक्त बजाए जाते हैं; सो, 'ताल छिनाऐ' का भाव है कि मन्दिर में से धक्के दिलवाए, मन्दिर में से निकलवा दिया। (देखें बिलावल कबीर जी: 'नित उठि कोरी गागरि'; और सोरठि कबीर जी: 'भूखे भगति न कीजै' में मेरा लिखा नोट)।

किह पहि = और किस के पास? पुकारा = पुकार, शिकायत, फरियाद। फिरै = फिरता है, व्यापक है। सगल बेदेसवा = सारे देशों में।4।

अर्थ: हे (सुंदर जुल्फों वाले) कलंदर प्रभू! हे सुंदर केशों वाले प्रभू! तू अब्दालनी फकीरों वाला पहरावा पहन के (आया है); आईए, (स्वागत है, आ, मेरे हृदय-मस्जिद में आ बैठ)। रहाउ।

(हे कलंदर! हे केशव! तू आ, तू) जिस ने (सात) आसमानों को कुल्ला (बना के अपने) सिर पर पहना हुआ है, जिसने सात पातालों को अपनी खड़ावें (बना के) पहनी हुई हैं। हे कलंदर-प्रभू! सारे जीव-जंतु तेरे बसने के लिए निवास-स्थान (घर) हैं। हे धरती के रक्षक! तू इस तरह का बना हुआ है।1।

(हे कलंदर -प्रभु!) छप्पन करोड़ (मेघ माला) तुम्हारा चोग़ा है, सोलह हज़ार आलम तुम्हारा धोती है ; हे केशव ! सारी वनस्पती तुम्हारा सलोतर है, और सारा संसार तेरी सहणकी (मिट्टी की रकेबी) है ।2।

(हे कलंदर प्रभू! आ, मेरी मस्जिद में आ) मेरा शरीर (तेरे लिए) मस्जिद है, मेरा मन (तेरे नाम की बाँग देने वाला) मुल्ला है, और (तेरे चरणों में जुड़ा रह के) अडोलता की नमाज़ पढ़ रहा है। हे सारे जगत के मालिक निरंकार! बीबी लक्ष्मी के साथ तेरा निकाह हुआ है (भाव, यह सारी माया तेरे चरणों की ही दासी है)।3।

(हे कलंदर प्रभू!) मुझे भगती करते को तूने मन्दिर में से निकलवाया, (तुझे छोड़ के मैं और) किस के आगे दिल की बातें करूँ? (हे भाई!) नामदेव का मालिक-परमात्मा हरेक जीव के अंदर की जानने वाला है, और सारे देशों में व्यापक है।4।1।

शबद का भाव: सिमरन की बरकति- निडरता, उच्च-जाति वाले लोगों की ज्यादतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh