श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1190 बसंतु महला १ ॥ दुबिधा दुरमति अधुली कार ॥ मनमुखि भरमै मझि गुबार ॥१॥ मनु अंधुला अंधुली मति लागै ॥ गुर करणी बिनु भरमु न भागै ॥१॥ रहाउ ॥ मनमुखि अंधुले गुरमति न भाई ॥ पसू भए अभिमानु न जाई ॥२॥ लख चउरासीह जंत उपाए ॥ मेरे ठाकुर भाणे सिरजि समाए ॥३॥ सगली भूलै नही सबदु अचारु ॥ सो समझै जिसु गुरु करतारु ॥४॥ गुर के चाकर ठाकुर भाणे ॥ बखसि लीए नाही जम काणे ॥५॥ जिन कै हिरदै एको भाइआ ॥ आपे मेले भरमु चुकाइआ ॥६॥ बेमुहताजु बेअंतु अपारा ॥ सचि पतीजै करणैहारा ॥७॥ नानक भूले गुरु समझावै ॥ एकु दिखावै साचि टिकावै ॥८॥६॥ {पन्ना 1190} पद्अर्थ: दुबिधा = दोचिक्ती, प्रभू के बिना किसी और आसरे की झाक। अधुली = अंधुली, अंधी। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला बंदा। मझि = में। गुबार = अंधेरा, अज्ञानता का अंधेरा।1। अंधुली मति = माया के मोह में अंधी हुई मति। भरमु = भटकना।1। रहाउ। न भाई = पसंद नहीं आती।2। सिरजि = पैदा करके समाऐ = लीन कर लेता है।3। अचारु = आचर, अच्छे आचरण वाला जीवन।4। काणे = मुथाजी।5। भाइआ = अच्छा लगा।6। स्चि = सच से, सिमरन से। पतीजै = प्रसन्न होता है।7। ऐकु = एक परमात्मा। साचि = सदा स्थिर प्रभू में।8। अर्थ: माया में अंधा हुआ मन उसी मति के पीछे चलता है जो (खुद भी) माया के मोह में अंधी हुई पड़ी है (और वह मन माया की भटकना में ही रहता है)। गुरू की बताई हुई कार किए बिना मन की यह भटकना दूर नहीं होती।1। रहाउ। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (माया के मोह के) अंधेरे में भटकता फिरता है (ठोकरें खाता फिरता है, उसको सही जीवन-पंध नहीं दिखता)। वह प्रभू के बग़ैर किसी और आसरे की झाक रखता है, (माया के मोह में) अंधी हो चुकी बुरी मति के पीछे लग के ही काम करता है।1। अपने मन के पीछे चलने वाले अंधे मूर्खों को गुरू की (दी हुई) मति पसंद नहीं आती (वे देखने को भले ही मनुष्य हैं पर स्वभाव से) पशू हो चुके हैं, (उनके अंदर से) अकड़ नहीं जाती।2। सृजनहार प्रभू चौरासी लाख जूनियों में बेअंत जीव पैदा करता है, जैसे उस ठाकुर की मर्जी होती है, पैदा करता है और नाश भी कर देता है।3।; पर वह सारी लोकाई कुमार्ग पर पड़ी रहती है जब तक गुरू का शबद (हृदय में नहीं बसाती, और जब तक उस शबद के अनुसार अपना) कर्तव्य नहीं बनाती। वही जीव (जीवन के सही रास्ते को) समझता है जिसका राहबर गुरू बनता है करतार बनता है।4। जो मनुष्य सतिगुरू के सेवक बनते हैं वे पालनहार प्रभू को पसंद आ जाते हैं। उन्हें जमों की मुथाजी नहीं रह जाती क्योंकि प्रभू ने उन पर मेहर कर दी होती है।5। जिन लोगों को अपने हृदय में एक परमात्मा ही प्यारा लगता है, उनको परमात्मा स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ लेता है, उनकी भटकना दूर हो जाती है।6। सारी सृष्टि का सृजनहार प्रभू-सिमरन के द्वारा ही प्रसन्न किया जा सकता है, वह बेमुथाज है बेअंत है उसकी हस्ती का परला छोर नहीं पाया जा सकता।7। हे नानक! (माया के मोह में फस के) गलत रास्ते पड़े मनुष्य को गुरू (ही) समझा सकता है। गुरू उसको एक परमात्मा का दीदार करवा देता है, उसको सदा-स्थिर परमात्मा (की याद) में जोड़ देता है।8।6। बसंतु महला १ ॥ आपे भवरा फूल बेलि ॥ आपे संगति मीत मेलि ॥१॥ ऐसी भवरा बासु ले ॥ तरवर फूले बन हरे ॥१॥ रहाउ ॥ आपे कवला कंतु आपि ॥ आपे रावे सबदि थापि ॥२॥ आपे बछरू गऊ खीरु ॥ आपे मंदरु थम्हु सरीरु ॥३॥ आपे करणी करणहारु ॥ आपे गुरमुखि करि बीचारु ॥४॥ तू करि करि देखहि करणहारु ॥ जोति जीअ असंख देइ अधारु ॥५॥ तू सरु सागरु गुण गहीरु ॥ तू अकुल निरंजनु परम हीरु ॥६॥ तू आपे करता करण जोगु ॥ निहकेवलु राजन सुखी लोगु ॥७॥ नानक ध्रापे हरि नाम सुआदि ॥ बिनु हरि गुर प्रीतम जनमु बादि ॥८॥७॥ {पन्ना 1190} पद्अर्थ: आपे = (प्रभू) स्वयं ही। मेलि = मेल में।1। अैसी = इस तरीके से। बासु = सुगंधि। ले = लेता हैं तरवर = वृक्ष।1। रहाउ। कवला = लक्ष्मी। कंतु = (लक्ष्मी का) पति। सबदि = (अपने) हुकम से। थापि = पैदा करके।2। बछरू = बच्छा। खीरु = दूध।3। करणहारु = सब कुछ करने के समर्थ। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख हो के।4। देखहि = देखता है, संभाल करता है। देइ = दे के। अधारु = आसरा।5। गुण गहीरु = गुणों का गहरा (समुंद्र)। अकुल = जिसका कोई खास कुल नहीं। हीरु = हीरा।6। करनजोगु = सब कुछ कर सकने वाला। निहकेवलु = वासना रहित। राजन = हे राजन!।7। ध्रापे = तृप्त हो जाता है, अघा जाता है। सुआदि = स्वाद में। बादि = व्यर्थ।8। अर्थ: (गुरमुखि) भौरा इस तरह (प्रभू के नाम की) सुगंधि लेता है कि उसको जंगल के सारे वृक्ष हरे और फूलों से लदे हुए दिखाई देते हैं (गुरमुखि को सारी सृष्टि में हर जगह प्रभू की ही ज्योति रुमकती दिखती है)।1। रहाउ। (गुरमुखि को दिखता है कि) परमात्मा स्वयं ही (सुगंधी लेने वाला) भौरा है, स्वयं ही बेल है और स्वयं ही बेलों पर उगे हुए फूल है। स्वयं ही संगति है स्वयं ही संगति में सत्संगी मित्रों को इकट्ठा करता है।1। (गुरमुखि को दिखता है कि) प्रभू खुद ही लक्ष्मी (माया) है और खुद ही लक्ष्मी का पति है, प्रभू खुद अपनी आज्ञा से सारी सृष्टि को पैदा करके खुद ही (दुनियां के पदार्थों को) भोग रहा है।2। प्रभू स्वयं ही बछड़ा है स्वयं ही (गाय का) दूध है, प्रभू स्वयं ही मंदिर है स्वयं ही (मन्दिर का) स्तम्भ (खंभा) है, (स्वयं ही जिंद है और) स्वयं ही शरीर।3। प्रभू खुद ही करन-योग्य काम है, प्रभू खुद ही गुरू है और खुद ही गुरू के सन्मुख हो के अपने गुणों की विचार करता है।4। (गुरमुखि प्रभू-दर पर इस तरह अरदास करता है-) हे प्रभू! तू सब कुछ कर सकने की ताकत रखता है, तू जीव पैदा करके और बेअंत जीवों को अपनी ज्योति का सहारा दे के स्वयं ही सबकी संभाल करता है।5। हे प्रभू! तू गुणों का सरोवर है, तू गुणों का अथाह समुंद्र है। तेरी कोई खास कुल नहीं, तेरे ऊपर माया अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, तू सबसे श्रेष्ठ हीरा है।6। (गुरमुखि सदा इस प्रकार अरदास करता है-) हे राजन! तू स्वयं ही सारे जगत को पैदा करने वाला है, और पैदा करने की समर्था रखता है। हे राजन! तू पवित्र स्वरूप है, जिस पर तेरी मेहर होती है वह आत्मिक आनंद पाता है।7। हे नानक! जो भी मनुष्य परमात्मा के नाम के स्वाद में मगन होता है वह माया की तरफ से तृप्त हो जाता है, (उसको निष्चय हो जाता है कि) परमात्मा के बिना प्रीतम गुरू की शरण के बिना मनुष्य-जीवन व्यर्थ चला जाता है।8।7। बसंतु हिंडोलु महला १ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नउ सत चउदह तीनि चारि करि महलति चारि बहाली ॥ चारे दीवे चहु हथि दीए एका एका वारी ॥१॥ मिहरवान मधुसूदन माधौ ऐसी सकति तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥ घरि घरि लसकरु पावकु तेरा धरमु करे सिकदारी ॥ धरती देग मिलै इक वेरा भागु तेरा भंडारी ॥२॥ ना साबूरु होवै फिरि मंगै नारदु करे खुआरी ॥ लबु अधेरा बंदीखाना अउगण पैरि लुहारी ॥३॥ पूंजी मार पवै नित मुदगर पापु करे कुोटवारी ॥ भावै चंगा भावै मंदा जैसी नदरि तुम्हारी ॥४॥ आदि पुरख कउ अलहु कहीऐ सेखां आई वारी ॥ देवल देवतिआ करु लागा ऐसी कीरति चाली ॥५॥ कूजा बांग निवाज मुसला नील रूप बनवारी ॥ घरि घरि मीआ सभनां जीआं बोली अवर तुमारी ॥६॥ जे तू मीर महीपति साहिबु कुदरति कउण हमारी ॥ चारे कुंट सलामु करहिगे घरि घरि सिफति तुम्हारी ॥७॥ तीरथ सिम्रिति पुंन दान किछु लाहा मिलै दिहाड़ी ॥ नानक नामु मिलै वडिआई मेका घड़ी सम्हाली ॥८॥१॥८॥ {पन्ना 1190-1191} पद्अर्थ: नउ = नौ खण्ड। सत = सात द्वीप। चउदह = चौदह भवन। तीनि = तीन लोक (स्वर्ग, मातृ और पाताल)। चारि = चार युग। करि = बना के, पैदा करके। महलति = हवेली सृष्टि। चारि = खर ही खाणियों से (अंडज, जेरज, सेतज, उत्भुज)। बहाली = बसा दी। चारे दीवे = चार दीपक (चार वेद)। चहु हथि = चार ही युगों के हाथ में। ऐका ऐका वारी = अपनी अपनी बारी से।1। मिहरवान = हे मेहरबान प्रभू! मधुसूदन = हे मधू दैत्य को मारने वाले! माधौ = हे माधव!, हे माया के पति! (मा = माया। धव = पति)। सकति = शक्ति, स्मर्थां।1। रहाउ। घरि घरि = हरेक शरीर में। पावकु = आग, (तेरी) जोति। धरमु = धर्मराज। सिकदारी = सरदारी। इक वेरा = एक बार में। भागु = भाग्य, हरेक जीव का प्रारब्ध। भंडारी = भण्डारा बाँटने वाला।2। नासाबूर = ना साबूर, बेसब्रा, सिदकहीन। फिरि = बार बार। नारदु = मन। अंधेरा = अंधकार। बंदीखाना = कैदखाना। पैरि = पैर में। लोहारी = लोहे की बेड़ी।3। पूँजी = (लोभ ग्रसित जीव का) सरमाया। मुदगर मार = मुहलों की मार। कुोटवारी = कोतवाली (अक्षर 'क' के साथ दो मात्राएं 'ु' और 'ो' हैं। असल शब्द 'कोटवारी' है यहाँ 'कुटवारी' पढ़ना है)। भावै = अगर तुझे अच्छा लगे।4। आदि पुरख कउ = उसको जिसे पहले जब हिन्दू धर्म का प्रभाव था 'आदि पुरख' कहा जाता था। अलहु कहीअै = अब 'अल्लाह' कहा जाता है मुसलमानी राज में। सेखां वारी = मुसलमानों (की राज करने) की बारी (आ गई है)। देवल = (देव = आलय) देवताओं के मन्दिर। करु = कर, टैक्स, दण्ड। कीरति = रिवाज।5। कूजा = लोटा। निवाज = नमाज़। मुसला = मुसॅला। नील रूप = नीला रूप, नीले रंग के कपड़े। बनवारी = जगत का मालिक प्रभू। घरि घरि = हरेक घर में। मीआ = (शब्द पिता की जगह पिउ वास्ते शब्द) मीआं। अवर = और ही।6। मीर = पातिशाह। महीपति = धरती का पति (मही = धरती)। कुदरति = ताकत, वटक, पेश। चारे कुंट = चारों कूटों के जीव।7। किछु दिहाड़ी = थोड़ी सी मजदूरी के रूप में। लाहा = लाभ। नामु मेका घड़ी समाली = यदि मनुष्य परमात्मा का नाम एक घड़ी मात्र चेते करे।8। अर्थ: हे सब जीवों पर मेहर करने वाले! हे दुष्टों का नाश करने वाले! हे माया के पति प्रभू! तेरी इस तरह की ताकत है (कि जहाँ पहले हिन्दू धर्म का राज था सब लोग अपनी आम बोलचाल में हिन्दके शब्द बरतते थे, हाँ पर अब तूने मुसलमानी राज कर दिया है, साथ ही लोगों की बोली भी बदल गई है)।1। रहाउ। (जब यहाँ हिन्दू राज था तो लोग हिन्दी के शब्द ही बरतते थे और कहा करते थे कि) हे प्रभू! (तूने) नौ खण्ड, सात द्वीप, चौदह भवन, तीन लोक और चार युग बना के तूने चार खाणियों के द्वारा इस (सृष्टि-) हवेली को बसा दिया है, तूने (चार वेद रूपी) चार दीए चारों युगों के हाथ में अपनी-अपनी बारी से पकड़ा दिए।1। हरेक शरीर में तेरी ही जोति व्यापक है, ये सारे जीव तेरा लश्कर हैं, और इन जीवों पर (तेरा पैदा किया हुआ) धर्मराज सरदारी करता है, (तूने इस लश्कर की पालना के लिए) धरती (-रूप) देग बना दी जिसमें से एक ही बार में (भाव, अतॅुट भण्डारा) मिलता है, हरेक जीव का प्रारब्ध तेरा भण्डारा बाँट रहा है।2। (हे प्रभू! तेरा इतना बेअंत भण्डारा होते हुए भी जीव का मन) नारद (जीव के लिए) दुख पैदा करता है, सिदक-हीन मन बार-बार (पदार्थ) माँगता रहता है। लोभ जीव के लिए अंधेरे भरा कैदखाना बना हुआ है, और इसके अपने कमाए पाप इसके पैर में लोहे की बेड़ी बने हुए हैं।3। (इस लब के कारण) जीव का सरमाया यह है कि इसको, मानो, नित्य मुसलों की मार पड़ रही है, और इसका अपना कमाया पाप (-जीवन) इसके सिर पर कोतवाली कर रहा है। पर, हे प्रभू! (जीव के भी क्या वश?) जैसी तेरी निगाह हो वैसा ही जीव बन जाता है, तुझे अच्छा लगे तो ठीक, तुझे अच्छा लगे तो बुरा बन जाता है (ये थी लोगों की बोली जो हिन्दू-राज के समय आम तौर पर बरती जाती थी)।4। पर, अब मुसलमानी राज का वक्त है। (जिसको पहले हिन्दकी बोली में) 'आदि पुरख' कहा जाता था अब उसको 'अल्ला' कहा जा रहा है। अब ये रिवाज चल पड़ा है कि (हिन्दू जिन मन्दिरों में देवताओं की पूजा करते हैं, उन) दैव-मन्दिरों पर टैक्स लगाया जा रहा है।5। अब लोटा, बांग, नमाज़, मुसॅला (प्रधान हैं), परमात्मा की बँदगी करने वालों ने नीले वस्त्र पहने हुए हैं। अब तेरी (भाव, तेरे बँदों की) बोली ही और हो गई है, हरेक घर में सब जीवों के मुँह पर (शब्द 'पिता' की जगह) शब्द 'मीआं' प्रधान है।6। हे पातशाह! तू धरती का पति है, मालिक है, अगर तू (यही पसंद करता है कि यहाँ इस्लामी राज हो जाए) तो हम जीवों की क्या ताकत है (कि गिला कर सकें) ? चारों कुंटों के जीव, हे पातशाह! तुझे सलाम करते हैं (तेरे आगे ही झुकते हैं) हरेक घर में तेरी सिफत-सालाह हो रही है (तेरे आगे ही तेरे पैदा किए हुए) बँदे अपनी तक़लीफें बता सकते हैं।7। (पर, तीर्थों मन्दिरों आदि पर रोक और गिले की भी आवश्यक्ता नहीं क्योंकि) तीर्थों के स्नान, स्मृतियों के पाठ और दान-पुन्य आदि का अगर कोई लाभ है तो वह (तिल-मात्र ही है) थोड़ी सी मजदूरी के रूप में ही। हे नानक! अगर कोई मनुष्य परमात्मा का नाम एक घड़ी मात्र. ही याद करे तो उसको (लोक-परलोक में) आदर मिलता है।8।1।8। नोट: यह अष्टपदी 'घरु 2' की है। पहली 7 अष्टपदियां 'घरु1' की हैं। कुल जोड़ 8 है। नोट: ये अष्टपदी राग 'बसंत' और राग 'हिंडोल' दोनों मिश्रित रागों में गाई जानी है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |