श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 1191 बसंतु हिंडोलु घरु २ महला ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कांइआ नगरि इकु बालकु वसिआ खिनु पलु थिरु न रहाई ॥ अनिक उपाव जतन करि थाके बारं बार भरमाई ॥१॥ मेरे ठाकुर बालकु इकतु घरि आणु ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ भजु राम नामु नीसाणु ॥१॥ रहाउ ॥ इहु मिरतकु मड़ा सरीरु है सभु जगु जितु राम नामु नही वसिआ ॥ राम नामु गुरि उदकु चुआइआ फिरि हरिआ होआ रसिआ ॥२॥ मै निरखत निरखत सरीरु सभु खोजिआ इकु गुरमुखि चलतु दिखाइआ ॥ बाहरु खोजि मुए सभि साकत हरि गुरमती घरि पाइआ ॥३॥ दीना दीन दइआल भए है जिउ क्रिसनु बिदर घरि आइआ ॥ मिलिओ सुदामा भावनी धारि सभु किछु आगै दालदु भंजि समाइआ ॥४॥ {पन्ना 1191} पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। नगरि = नगर में। कांइआ नगरि = शरीर नगर में। बालकु = अंजान मन। खिनु पल = छिन भर के समय के लिए भी। थिरु = अडोल। उपाव = (शब्द 'उवाउ' का बहुवचन)। करि = कर के। बारं बार = बार बार। भरमाई = भटकता फिरता है।1। ठाकुर = हे मालिक! इकतु घरि = एक ठिकाने पर। आणु = ला के, टिका दे। त = तब। पाईअै = मिलता है। भजु = सिमरा कर। नीसाणु = (प्रभू के दर पर पहुँचने के लिए) राहदारी, परवाना।1। रहाउ। मिरतकु = मुर्दा। मढ़ा = मढ़, मिट्टी का ढेर। सभु जगु = सारा जगत। जितु = जिस में, यदि इसमें। गुरि = गुरू ने। उदकु = जल, पानी। हरिआ = हरा भरा, आत्मिक जीवन वाला। रसिआ = रस दार, तरावट वाला।2। निरखत निरखत = अच्छी तरह देखते देखते। सभ = सारा। गुरमुखि = गुरू ने। चलतु = तमाशा। बाहर = बाहरी स्तर, दुनिया, जगत। खोजि = खोज के। मूऐ = आत्मिक मौत सहेड़ बैठे। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। गुरमती = गुरू की मति पर चल के। घरि = हृदय घर में।3। दीना दीन = कंगालों से कंगाल, महा कंगाल। दइआल = दयावान। बिदर = कृष्ण जी का पवित्र भगत। ये व्यास ऋषि का पुत्र था। कृष्ण जी दुर्योधन के महलों में जाने की जगह भगत बिदर के घर ठहरे थे। "अैसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै।" भावनी = श्रद्धा। धारि = धार के। आगै = (घर पहुँचने से) पहले ही। दालदु = दरिद्रता, गरीबी। भंजि = दूर कर के, नाश करके।4। अर्थ: हे मेरे मालिक! (हम जीवों के इस) अंजान मन को तू ही एक ठिकाने पर लगा (तेरी मेहर से मन भटकने से हट के ठहराव में आ सकता है)। हे भाई! जब गुरू मिलता है तब पूरन परमात्मा मिल जाता है (तब मन भी टिक जाता है)। (इस वास्ते, हे भाई! गुरू की शरण पड़ के) परमात्मा का नाम जपा कर (ये हरी-नाम ही परमात्मा के दर पर पहुँचने के लिए) राहदारी है।1। रहाउ। हे भाई! शरीर-नगर में (ये मन) एक (ऐसा) अंजान बालक बसता है जो एक पल के लिए भी टिका नहीं रह सकता। (इसको टिकाने के लिए) अनेकों उपाय अनेकों यत्न कर के थक जाते हैं, पर (यह मन) बार-बार भटकता फिरता है।1। हे भाई! अगर इस (शरीर) में परमात्मा का नाम नहीं बसा, तो यह मुर्दा है तो यह निरा मिट्टी का ढेर है। हे भाई! सारा जगत ही नाम के बिना मुर्दा है। हे भाई! परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन देने वाला) जल है, गुरू ने (जिस मनुष्य के मुँह में ये नाम-) जल टपका दिया, वह मनुष्य फिर आत्मिक जीवन वाला हो गया, वह मनुष्य आत्मिक तरावट वाला हो गया।2। हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए सारे मनुष्य दुनिया तलाश-तलाश के आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। पर गुरू ने (मुझे) एक अजब तमाशा दिखाया है, मैंने बड़े ध्यान से अपना सारा शरीर (ही) खोजा है, गुरू की मति पर चल के मैंने अपने हृदय-घर में ही परमात्मा को पा लिया है।3। हे भाई! परमात्मा बड़े-बड़े गरीबों पर (सदा) दया करता आया है जैसे कि कृष्ण (गरीब) बिदर के घर आए थे। और, जब (गरीब) सुदामा श्रद्धा धार के (कृष्ण जी को) मिला था, तो (वापस उसके अपने घर पहुँचने से) पहले ही उसकी गरीबी दूर करके हरेक पदार्थ (उसके घर) पहुँच चुका था।4। राम नाम की पैज वडेरी मेरे ठाकुरि आपि रखाई ॥ जे सभि साकत करहि बखीली इक रती तिलु न घटाई ॥५॥ जन की उसतति है राम नामा दह दिसि सोभा पाई ॥ निंदकु साकतु खवि न सकै तिलु अपणै घरि लूकी लाई ॥६॥ जन कउ जनु मिलि सोभा पावै गुण महि गुण परगासा ॥ मेरे ठाकुर के जन प्रीतम पिआरे जो होवहि दासनि दासा ॥७॥ आपे जलु अपर्मपरु करता आपे मेलि मिलावै ॥ नानक गुरमुखि सहजि मिलाए जिउ जलु जलहि समावै ॥८॥१॥९॥ {पन्ना 1191} पद्अर्थ: की = के कारण। पैज = इज्जत। वडेरी = बहुत बड़ी। ठाकुरि = ठाकुर ने। सभि = सारे। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। करहि = (बहुवचन) करने। बखीली = (नाम जपने वाले की) निंदा, चुगली।5। जन = परमात्मा का भक्त। उसतति = शोभा। दिसि = दिशा। दहदिसि = दसों दिशाओं में, सारे जगत में। साकतु = (एक वचन) प्रभू से टूटा हुआ मनुष्य। खवि न सकै = सह नहीं सकता। घरि = हृदय घर में। लूकी = चुआती, लूती, उक्साने व भड़काने वाला कथन व हरकत, आग जलाने के लिए आग की तीली व कोई उपाय।6। मिलि = मिल के। पावै = हासिल करता है। परगासा = प्रकाश। प्रीतम पिआरे = प्रभू प्रीतम को प्यारे लगते हैं। जो = जो। होवहि = (बहुवचन) होते हैं। दासनि दासा = दासों के दास।7। आपे = (प्रभू) स्वयं ही। अपरंपरु करता = बेअंत परमात्मा। मेलि = (गुरू की) संगति में। मिलावै = मिलाता है। गुरमुखि = गुरू से। सहजि = आत्मिक अडोलता में। जलहि = जल में ही।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (जपने वालों) की बहुत ज्यादा इज्जत (लोक-परलोक में होती है। भक्तों की ये इज्जत सदा से ही) मालिक-प्रभू ने स्वयं (ही) बचाई हुई है। परमात्मा से टूटे हुए सारे लोग (मिल के भगत जनों की) निंदा करें, (तो भी परमात्मा उनकी इज्जत) रक्ती भर भी घटने नहीं देता।5। हे भाई! परमात्मा का नाम (जपने से परमात्मा के) सेवक की (लोक-परलोक में) शोभा होती है, (सेवक नाम की बरकति से) हर तरफ शोभा कमाता है। पर परमात्मा से टूटा हुआ निंदक मनुष्य (सेवक की हो रही शोभा को) रक्ती भर भी बर्दाश्त नहीं कर सकता (इस तरह वह निंदक सेवक का तो कुछ नहीं बिगाड़ सकता, वह) अपने हृदय-घर में (ही ईष्या और जलन की) आग लगाए रखता है (निंदक अपने आप ही अंदर से जलता-भुजता रहता है)।6। हे भाई! (निंदक तो अंदर-अंदर से जलता है, दूसरी तरफ़) परमात्मा का भक्त प्रभू के भक्त को मिल के शोभा कमाता है, उसके आत्मिक गुणों में (भक्त-जन को मिल के) और गुणों में बढ़ोक्तरी होती है। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के दासों के दास बनते हैं, वे परमात्मा को प्यारे लगते हैं।7। हे भाई! (परमात्मा सब पर दया करने वाला है। वह साकत निंदक को भी बचाने वाला है। साकत-निंदक की ईष्या की आग बुझाने के लिए) वह बेअंत करतार स्वयं ही जल है, वह स्वयं ही (निंदक को भी गुरू की) संगति में (ला के) जोड़ता है। हे नानक! परमात्मा गुरू की शरण डाल के (निंदक को भी) आत्मिक अडोलता में (इस प्रकार) मिला देता है जैसे पानी पानी में मिल जाता है।8।1।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |